23 अगस्त 2005 को देश की संसद से राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम पास हुआ था, जिसका नोटिफीकेशन 5 सितम्बर 2005 को किया गया। इस कानून के आधार पर 2 फरवरी 2006 से देश के 200 पिछड़े जिलों में इस योजना को लागू किया गया और बाद में इसे देश के 644 जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में लागू किया गया। इस योजना का मकसद एक वित्तीय वर्ष के 365 दिनों में से ग्रामीण इलाकों के परिवारों को 100 दिन तक अनिवार्य रोजगार उपलब्ध कराना है। रोजगार न दे पाने की स्थिति में मजदूरी का 50 प्रतिशत बेरोजगारी भत्ता तक देने का प्रावधान इस योजना में है।
दरअसल जिस समय मनरेगा की योजना लागू की गई थी देश एक बड़े आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा था। अटल बिहारी वाजपेई की सरकार के कार्यकाल के दौरान लोगों की क्रय शक्ति बुरी तरह से प्रभावित हुई थी और देश में मंदी का माहौल था। ऐसी स्थिति में वामपंथी दलों से समर्थित यूपीए सरकार ने लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाने के लिए मनरेगा जैसी योजना को लागू किया। ताकि देश के बड़े बाजार ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की क्रय शक्ति बढ़े और कारोबार में गति आ सके।
इसके एक हद तक सकारात्मक परिणाम आए और आम लोगों के हाथों में तो धन आया ही, उनकी खर्च करने की क्षमता के बढ़ी साथ ही साथ विकास के विविध काम भी हुए। सोनभद्र जैसे अति पिछड़े जनपदों में कच्चे कुएं पक्के हो गए, गांव-गांव तालाब, बरसाती नालों पर चेकडैम, सड़के, नालियां, पठारी खेतों के समतलीकरण, आवास आदि बहुतेर काम इसके जरिए हुए थे।
केन्द्र में भाजपा नीत एनडीए सरकार के बनते ही प्रधानमंत्री मोदी ने मनरेगा के बारे में संसद में कहा था कि ‘मेरी राजनैतिक सूझबूझ कहती है, मनरेगा कभी बंद मत करो.. मैं ऐसी गलती कभी नहीं कर सकता, क्योंकि मनरेगा आपकी (यूपीए) विफलताओं का जीता-जागता स्मारक है.. आजादी के 60 साल बाद आपको लोगों को गड्ढे खोदने के लिए भेजना पड़ा.. यह आपकी विफलताओं का स्मारक है, और मैं गाजे-बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूंगा… दुनिया को बताऊंगा, ये गड्ढे जो तुम खोद रहे हो, ये 60 सालों के पापों का परिणाम हैं।”
देश के बड़े पूंजी घरानो का एक बड़ा हिस्सा शुरू से मनरेगा का विरोध करता रहा है और इसे अनावश्यक खर्चा मानता रहा है। वास्तव में इसी खेमे के दबाव में मोदी सरकार शुरू से ही मनरेगा को निष्प्रभावी करने में लगी रही है। जबकि सच यह है कि कोरोना महामारी के वक्त यह मनरेगा ही थी जिसने लोगों को भुखमरी से बचाने का काम किया था। सरकार को मजबूर होकर मनरेगा के बजट में एक मुश्त 40000 करोड़ की बढ़ोतरी करनी पड़ी थी और इसने 60 दिन के लाक डाउन की अवधि में 2.63 करोड़ गरीब परिवारों को औसतन 17 दिन काम दिया था।
कोरोना महामारी के बाद लगातार सरकार इसके बजट को कम करती जा रही है। इस साल के बजट में सरकार ने 86000 करोड रुपए आवंटित किया है। जो पिछले वर्ष आवंटित बजट के बराबर है। जबकि मनरेगा में पिछले वर्ष ही करीब 91 हजार करोड रुपए खर्च हुआ था और 5 प्रतिशत न्यूनतम मुद्रास्फीति के हिसाब से तो वास्तव में मनरेगा की बजट में करीब 4000 करोड रुपए की कटौती ही की गई है। मनरेगा बजट में बड़ी कटौती के कारण मजदूरी बकाया है, आवंटित धन खत्म हो गया है और पूरा काम ठप पड़ा हुआ है।
सभी लोग जानते है कि संविधान के अनुच्छेद 23 के अनुसार काम कराकर मजदूरी का भुगतान न करना बंधुआ प्रथा है और आपराधिक कृत्य माना गया है। समय से मजदूरी भुगतान अधिनियम, उत्तर प्रदेश और पेमेन्ट एंड वेजेज एक्ट तक के अनुसार यह अपराध है। बावजूद इसके निहायत गरीब मनरेगा मजदूरों को मोदी सरकार समय से मजदूरी का पेमेंट नहीं कर रही है।
उत्तर प्रदेश में तो हाल और भी बुरा है। प्रदेश के 75 जिलों के 827 ब्लॉकों और 57997 ग्राम पंचायत में मनरेगा को लागू किया गया है। उत्तर प्रदेश में वर्तमान में एक करोड़ 66 लाख जॉब कार्डधारी है, जिसमें सक्रिय जॉब कार्डधारी एक करोड़ 9 लाख है। 2 करोड़ 22 लाख मनरेगा मजदूर पंजीकृत है जिनमें से एक करोड़ 34 लाख सक्रिय मजदूर है। सक्रिय जॉब कार्डधारी मजदूर में अनुसूचित जाति के 33.05 प्रतिशत है और अनुसूचित जनजाति के 1.09 प्रतिशत है।
प्रदेश में इस समय मनरेगा में 2180 करोड रुपए मजदूरी और सामग्री का विगत 5 महीना से बकाया पड़ा हुआ है। केंद्र सरकार द्वारा इसका भुगतान न होने के कारण मनरेगा मजदूर होली और रमजान जैसे बड़े त्योहार को भी कायदे से मना नहीं पाए। ईद और नवरात्र तक भी मजदूरी आने की कोई सम्भावना नहीं है। यहीं नहीं मनरेगा वेवसाइट के अनुसार तो वित्तीय वर्ष 2023-24 का भी प्रदेश में बकाया है जिसका भुगतान नहीं हुआ है।
यदि हम उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े जनपद सोनभद्र, जिसे नीति आयोग ने महत्वाकांक्षी जनपद की श्रेणी में रखा है, उसे देखे तो वहां तो मनरेगा की और भी बुरी हालत है। सोनभद्र में आमतौर पर मनरेगा ठप पड़ी है। गांव में लोगों को काम नहीं मिल रहा और जिन्हें काम मिला भी है, आधार से हाजिरी लगाने के नियमों के कारण उन्हें भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। मनरेगा की मजदूरी दर बाजार की मजदूरी दर से बेहद कम है। उसमें भी महीनों मजदूरी बकाया रहती है। यहीं नहीं मेजरमेंट (नापी) के नाम पर ब्लाक के अधिकारी कार्यदिवसों में कटौती कर देते है। यहां भी विगत 5 महीना से 28 करोड़ रूपया मजदूरी का बकाया है। जिसका भुगतान नहीं किया जा रहा है।
सरकार के जाब कार्ड सत्यापन के नए नियमों के कारण करीब 2 लाख जॉब कार्डधारी परिवारों का जॉब कार्ड सोनभद्र में खत्म कर दिया गया है। यदि हम 100 दिन काम की बात करें तो 2 लाख से ज्यादा जॉब कार्ड धारी परिवारों में मात्र 8460 परिवारों को 100 दिन काम मिला है। जिसमें बभनी ब्लाक में 527, चतरा में 436, चोपन में 1186, दुद्धी में 894, घोरावल में 1294, करमा में 546, कोन में 732, म्योरपुर में 1384, नगवा में 747 राबर्ट्सगंज में 716 परिवारों को 100 दिन काम मिला है। अनुसूचित जाति के 79859 परिवारों में से 2303 लोगों को और अनुसूचित जनजाति के 73859 परिवारों में से 2694 परिवारों को 100 दिन काम का मिल पाया है।
सोनभद्र में रोजगार की इतनी बुरी स्थिति है कि यहां के गावों में 90 प्रतिशत नौजवान रोजगार के अभाव में दूसरे प्रदेशों में पलायन करने को विवश है। गांव के गांव खाली पड़े है जहां आपको वृद्ध, विकलांग, महिलाएं और बच्चे ही मिलेंगे। यहां तक कि लड़के ही नहीं लड़कियां भी बेंगलुरु जैसे शहरों में रेडीमेड गारमेंट्स के काम में जा रही हैं, जहां 10 से 12000 रुपए की मजदूरी में उन्हें 12-12 घंटा काम करना पड़ता है।
बहरहाल इस बेरोजगारी के खिलाफ यहां के नौजवान संगठित हो रहे है। नौजवान लड़कियों की टीम गांवों में जन जागरण अभियान में लगी है। सरकार से मनरेगा की बकाया मजदूरी को ब्याज सहित तत्काल देने, मनरेगा में 200 दिन काम और 600 रुपया मजदूरी और शहरी क्षेत्रों तक इसका विस्तार करने, नौजवानों व महिला स्वयं सहायता समूहों को स्वरोजगार के लिए 10 लाख अनुदान देने, म्योरपुर में आदिवासी लड़कियों के लिए आवासीय डिग्री कालेज बनाने जैसे सवालों को प्रमुखता से उठाया जा रहा है।
(दिनकर कपूर ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के प्रदेश महासचिव हैं)
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