Thursday, September 28, 2023

मोदी भारत को अमेरिका का प्यादा बनाने को बेताब!

अमेरिका भारत में अपना सैनिक हवाई अड्डा स्थापित करेगा। इस सिलसिले में मोदी और बाइडेन सरकार के बीच जारी वार्ता की प्रक्रिया अपने आखिरी दौर में है। इसका खुलासा खुद अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने किया है। वह भी अमेरिकी कांग्रेस की हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव की विदेश मामलों की समिति के सामने। रिपब्लिकन पार्टी के एक सांसद के पूछे गए प्रश्न के हवाले से ब्लिंकेन ने स्वीकार किया कि दोनों देशों के बीच इस मसले को लेकर बातचीत अंतिम दौर में है। इस सिलसिले में अमेरिका के दो सैनिक कमांडर भारत की यात्राएं भी कर चुके हैं। और उनकी भारतीय सेना के चीफ मनोज मुकुंद नरवाने और चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ बिपिन रावत से मुलाकात भी हो चुकी है।

दरअसल अमेरिका अफगानिस्तान की बाकी लड़ाई अब भारत के सहारे लड़ना चाहता है। क्योंकि उसका अफगानिस्तान में न तो कोई सैन्य अड्डा है और न ही ऐसी कोई ताकत जिसके सहारे जरूरत पड़ने पर वह इस तरह की कोई पहल कर सके। पिछली पूरी लड़ाई में उसने पाकिस्तान के कंधे का इस्तेमाल किया था। और एक तरह से उसे अपना पपेट ही बना लिया था। जिसका पाकिस्तान को कई रूपों में खामियाजा भुगतना पड़ा। लेकिन अब जबकि तालिबान के साथ पाकिस्तान के आईएसआई समेत पूरे सत्ता प्रतिष्ठान के घनिष्ठ रिश्ते हैं। और अफगानिस्तान की सरकार में मंत्री तक उसके इशारे पर बन रहे हैं। तब भला पाकिस्तान अमेरिका के किसी अफगानिस्तान विरोधी हमलावर मिशन में उसका क्यों साथ देगा। ऐसे में अमेरिका को अब किसी नये बलि के बकरे की तलाश है। और उसकी यह तलाश लगभग पूरी हो गयी है। अमेरिका ने भारत के नॉर्थ-वेस्ट के किसी इलाके में जमीन की मोदी सरकार से मांग की है। जहां से वह जरूरत पड़ने पर अपने ड्रोन या फिर दूसरे हवाई यंत्रों द्वारा अफगानिस्तान के आतंकी ठिकानों पर हमला कर सके।

हालांकि अभी तक इसे हवाई क्षेत्र के इस्तेमाल की इजाजत के तौर पर पेश किया जा रहा है। अमूमन तो हवाई क्षेत्र भी किसी देश की उसकी संप्रभुता का हिस्सा होता है। लेकिन कोई पूछ सकता है कि किसी ड्रोन या फिर हवाई हथियार के संचालन के लिए जमीन कौन होगी? तब स्वाभाविक तौर पर भारत के जिस उत्तर-पश्चिम इलाके की मांग की जा रही है वह उसी के लिए है। और अचरज नहीं कि अभी सितंबर के आखिरी सप्ताह में होने वाली मोदी की अमेरिकी यात्रा के दौरान इस पर मुहर लग जाए।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह देश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ते हुए स्वतंत्र हुआ है। 250 सालों की गुलामी की बेड़ियों से आजाद होने के लिए लाखों लोगों ने अपने सिर कटा दिए। अपने पुरखों की इस कुर्बानी को न तो यह देश भुलाने जा रहा है और न ही किसी को भूलने देगा। शायद यही वजह है कि 1991 में चंद्रशेखर सरकार ने जब इराक पर हमले के दौरान अमेरिकी लड़ाकू जहाजों के लिए मुंबई में तेल भरने की इजाजत दी थी तो चंद्रशेखर सरकार को पूरे देश में जबर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ा था। इसी तरह से अफगानिस्तान पर हमले के लिए नाटो देशों के साथ चाहकर भी सैनिक बेड़ा भेजने की वाजपेयी सरकार हिम्मत नहीं जुटा पायी थी। क्योंकि उसे लग गया था कि वह देश की जनता के विरोध को बर्दाश्त नहीं कर सकेगी।

लेकिन लगता है कि मौजूदा मोदी सरकार ने देश की विदेश नीति को अमेरिका के पल्लू से बांध दिया है। जिसका नतीजा यह है कि हमारे अपने किसी भी पड़ोसी देश के साथ अच्छे रिश्ते नहीं हैं। और भारत अमेरिकी हितों पर अपना सब कुछ कुर्बान कर देने के लिए तैयार है। जिसकी उसने क्वैड में शामिल होकर हरी झंडी दे दी है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि इसका अघोषित उद्देश्य चीन के खिलाफ मोर्चेबंदी है। क्वैड में भारत और अमेरिका के अलावा जापान और आस्ट्रेलिया शामिल हैं। जापान और आस्ट्रेलिया पहले से ही अमेरिका के पिट्ठू हैं। लेकिन भारत का उनके साथ जाने का भला क्या तुक बनता है? विदेशी मोर्चे पर हर देश अपने हितों के लिए संबंधों का विस्तार करता है। लेकिन लगता है कि अमेरिकी हितों को पूरा करने के लिए मोदी सरकार ने किसी भी हद तक जाने का संकल्प ले लिया है।

आज़ादी की लड़ाई से लेकर आज तक अफगानिस्तान के साथ भारत के घनिष्ठ रिश्ते रहे हैं। दोनों देशों में एक दूसरे के प्रति प्रेम और भाईचारे की मिसालें पेश की जाती रही हैं। पाकिस्तान के बरखिलाफ वह हमेशा भारत का साथ देता रहा है। और मौजूदा समय में अगर वहां कोई एक ऐसी सरकार बनी है जो हमारे मुताबिक नहीं है तो उसे उदासीन करने की जरूरत है। न कि उसको दुश्मन घोषित करके उससे मोर्चा लिया जाए। अभी जब यह बात कही जा रही है कि तालिबान आतंकियों के लिए अपनी धरती के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देगा। और एक हद तक इस मसले पर वह राजी भी है तो फिर आ बैल मुझे मार की दिशा में भारत को क्यों बढ़ना चाहिए?

और यह काम मोदी सरकार वहां से भागे अमेरिका को भारत में पनाह देने के जरिये कर रही है। इससे तो अफगानिस्तान को कश्मीर में दखलंदाजी का तार्किक मौका मिल जाएगा। जिसका पाकिस्तान कितने सालों से इंतजार कर रहा है। इस तरह से जो लड़ाई भारत अमेरिका के लिए अफगानिस्तान से लड़ना चाहता है वह कश्मीर में तालिबानी लड़ाकों की घुसपैठ की कीमत पर होगी। और फिर अफगानिस्तान नहीं बल्कि कश्मीर लड़ाई के केंद्र में आ जाएगा। और अभी तक कश्मीर के प्रति केंद्र सरकार का जो शत्रुतापूर्ण रवैया रहा है उसमें इस बात की पूरी आशंका है कि इस तरह की किसी बाहरी ताकत को वहां बड़ा समर्थन मिल सकता है। जो इस खतरे की आशंका को और बढ़ा देगा।

चीन के मामले में भारत को एक बात समझ लेनी चाहिए कि उसकी लड़ाई अमेरिका से है। और इस रास्ते में भारत कहीं नहीं आता है। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका के खिलाफ गोलबंदी में जुटा है। इस सिलसिले में यूरोप से लेकर एशिया तक के तमाम देशों को वह अपने पीछे खड़ा करने में लगा हुआ है। और हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारा परंपरागत मित्र रूस भी इस मिशन में उसके साथ है। यहां तक कि भारत से रिश्ते सुधारने और दोनों देशों की आर्थिक प्रगति और समृद्धि को सुनिश्चित करने के लिए उसने ब्रिक्स जैसे फोरम का निर्माण किया था। और मनमोहन सिंह के दौर में उस दिशा में चीजें बहुत तेजी से आगे बढ़ रही थीं। जिसमें आईएमएफ के समानांतर ब्रिक्स बैंक तक खड़ा करने की योजना बन गयी थी। लेकिन मोदी सरकार के आते ही सारी योजना धरी की धरी रह गयी। और फिर भारत के अमेरिकी रुख का नतीजा कहिए या फिर कश्मीर मसले पर भारत सरकार का एकतरफा फैसला चीन ने भी भारत को सबक सिखाने के लिहाज से लद्दाख से जुड़े इलाकों में मोर्चा खोल दिया। और इस कड़ी में उसने कई सौ वर्ग मीटर जमीन अपने कब्जे में ले ली। जिसका बड़ा हिस्सा अब हम गंवा चुके हैं और शेष को हासिल करने के लिए उसके साथ वार्ताओं के दौर में हैं।

इस पूरे घटनाक्रम में जो एक बात सामने आ रही है वह यह कि भारत अभी तक अपने पड़ोसी देशों के साथ शांति और सहअस्तित्व के साथ रह रहा था। लेकिन अमेरिकी इशारे पर भारतीय विदेश नीति में आए बदलाव ने अब इस पूरे इलाके में युद्ध की जमीन तैयार कर दी है। और एक बात हमें गांठ बांध लेनी चाहिए कि अमेरिका और चीन के बीच कभी भी आमने-सामने की लड़ाई नहीं होगी। अमेरिका इस काम को अपने प्यादों के जरिये पूरा करेगा। वह भारत जो कभी निर्गुट देशों का एक क्षत्र नेता हुआ करता था और तमाम अंतरराष्ट्रीय मसलों पर सैकड़ों देश उसका मुंह देखा करते थे। आज उसके अपने किसी पड़ोसी देश के साथ अच्छे रिश्ते तक नहीं हैं। सार्क को जब मोदी ने रद्दी की टोकरी में डाला तभी यह बात समझ में लोगों को आ जानी चाहिए थी कि सरकार ने कोई नया रास्ता अख्तियार कर लिया है। और वह यही था अमेरिका का प्यादा बनने का रास्ता।

और एक लाइन में अगर कहें तो भारत अमेरिका का नया पाकिस्तान बनने जा रहा है। इस पूरी कवायद में पाकिस्तान को क्या मिला वह पूरी दुनिया जानती है और मौजूदा पाकिस्तान की सरकार उससे तौबा कर रही है। ऐसे में भारत का हस्र भी कुछ वैसा ही होगा। या फिर कहिए उससे भी बुरा क्योंकि सामने चीन जैसी एक ताकत है।

और आखिरी बात मोदी अमेरिका के सहारे जो सपना देख रहे हैं उसे उन्हें भूल जाना चाहिए। अमेरिकी साम्राज्यवाद के दिन गए। वह एक ढहती हुई ताकत है। अफगानिस्तान से जिस तरह से उसे अपमानित होकर भागना पड़ा है उसमें आगे से नाटो के दूसरे यूरोपीय देश भी उसके किसी मिशन में साथ नहीं देने वाले हैं। इस बीच चीन यूरोप के न केवल पूरे बाजार पर कब्जे की राह पर है बल्कि रोड एंड बेल्ट योजना के तहत उसे और ज्यादा मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ चुका है। ऐसे में तमाम देश अब उसके साथ खड़े होने को बेताब हैं। नतीजतन अमेरिका के न केवल अलग-थलग पड़ जाने की आशंका है बल्कि अपनी पुरानी आर्थिक हैसियत भी बरकरार रख पाना उसके लिए मुश्किल होगी। ऐसे में उसके साथ जाने वाले देशों के बुरे दिनों की शुरुआत होना निश्चित है। तो क्या माना जाए कि मोदी ने भारत को उसी रास्ते पर धकेल दिया है?

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of

guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles