अगर पहली नजर में देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और प्रगतिशील मुस्लिम महिलाएं और पुरुष एक तरह समान नागरिक संहिता पर सोचते दिखेंगे। दोनों समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के पक्ष में हैं जो भारतीय संविधान के निदेशक सिद्धांतों (अनुच्छेद 44) का हिस्सा है और जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने अक्सर देश का ध्यान आकर्षित किया है। हालांकि जो सतह पर दिख रहा है, उसकी असलियत देखने पर प्रधानमंत्री, उनकी पार्टी और संघ परिवार और प्रगतिशील मुस्लिम महिलाओं और पुरूषों की सोच की बीच एक खाई दिखेगी।
धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध प्रगतिशील लोगों के लिए, लैंगिक समानता, लैंगिक न्याय का सवाल उसूलों का सवाल है। दूसरी ओर हिंदुत्ववादियों के लिए यह उनके देखने और सोचने के नजरिए से जुड़ा हुआ है। यह उनके लिए “हेडलाइन प्रबंधन” और बहुसंख्यकवादी राजनीति का मामला है।
प्रगतिशील लोग इस तरह के यूसीसी का समर्थन करते हैं जो जाति, समुदाय, धर्म की परवाह किए बिना सभी नागरिकों पर लागू हो ऐसा चाहते हैं। जिसमें धर्म और जाति की कोई भूमिका न हो। प्रधानमंत्री ने जिस तरह से पेश किया है उससे लगता है कि यूसीसी को पूरी तरह “हमारी मुस्लिम बहन-बेटियों” की “मुक्ति” के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुस्लिम पर्सनल लॉ घोर अन्यायपूर्ण, घोर महिला विरोधी है और इसमें अभी और सुधार की जरूरत है। लेकिन यहां एक सवाल है, क्या मुस्लिम बहन-बेटियों की मूलभूत समस्याएं भेदभावपूर्ण पारिवारिक कानून तक ही सीमित हैं?
बिलकिस बानो के न्याय का क्या होगा? उन मुस्लिम बहन-बेटियों की दुर्दशा के बारे में क्या कहें, जिन्हें आज “बुलडोजर बाबा” और “बुलडोजर मामा” के आदेश के तहत बिना उचित प्रक्रिया के रातों-रात बेघर कर दिया गया है?
उन मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा के बारे में क्या, जिनके पुरुषों को “गौरक्षकों” ने पीट-पीट कर मार डाला ? मुस्लिम महिलाओं की नीलामी के लिए खुद को मोदी भक्त कहने वालों द्वारा लॉन्च की गई वेबसाइटों के बारे में क्या जाए? उन साधुओं और संतों के बारे में क्या कहा जाए, जो मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार और उनके खिलाफ हिंसा का आह्वान करने के लिए धर्म संसद के मंच का इस्तेमाल करते हैं? देश भर में विभिन्न साधुओं और साध्वियों की तरफ से जारी किए गए उस फतवे के बारे में क्या कहा जाए,जिसमें “मुस्लिम-महिलाओं से बलात्कार” का आह्वान किया गया है?
यह सब, और बहुत कुछ, 2014 के बाद से मुस्लिम बहन-बेटियों (मुस्लिम पुरुषों को भूल जाओ) की यही नियति रही है। हम सभी ने बार-बार यह पवित्र मंत्र सुना है: “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास”। लेकिन क्या किसी को प्रधानमंत्री का एक शब्द भी याद है, जो उन्होंने बलात्कार की धमकियों और इससे भी बदतर स्थिति का सामना करने वाली “हमारी मुस्लिम बहन-बेटियों” को सांत्वना और आश्वासन देने के लिए कहा हो।
इस बात से कौन इनकार करेगा कि मुस्लिम महिलाओं को शरीयत के रक्षक होने का दिखावा करने वाले भारतीय इस्लाम के ठेकेदारों के बंधनों से मुक्त करने की तत्काल आवश्यकता है? लेकिन आने वाले चुनावों पर पैनी नजर रखने वाले प्रधानमंत्री के विशेषकर प्रकार की सहद्यता के प्रदर्शन से कौन प्रभावित होगा?
1990 के दशक के उत्तरार्ध से समान नागरिक संहिता, हिंदुत्व ब्रिगेड के तीन सूत्री विभाजनकारी एजेंडे का हिस्सा रहा है: अयोध्या में राम मंदिर (जहां बाबरी मस्जिद खड़ी थी), अनुच्छेद 370 को निरस्त करना (जम्मू-कश्मीर की स्थिति के संबंध में) और यूसीसी।
यूसीसी कैसा दिखेगा/कैसा होगा? कोई नहीं जानता। क्योंकि कोई भी मसौदा जनता के सामने कभी नहीं रखा गया है। जानबूझकर ऐसा किया गया, क्योंकि मकसद साफ है: चुनाव आए, यूसीसी का सवाल फिर से गरमा जाए। आगे क्या? समुदाय के भीतर से ही पहल करनी होगी। मुस्लिम धार्मिक संस्थाएं हमेशा की तरह चिल्लाएंगी: शरिया कानून में कोई हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और धर्मनिरपेक्ष पार्टियां इनके पीछ खुद को छिपा लेंगी । हिंदुत्व की प्रचार मशीनरी के लिए यह पर्याप्त हथियार है, हिंदुओं को बताएं कि मुसलमानों के लिए संविधान से पहले हमेशा शरिया है, धर्मनिरपेक्ष पार्टियों पर “मुस्लिम तुष्टिकरण” का आरोप लगाएं।
यह एक ऐसी रणनीति है जिसने अब तक हिंदू बहुसंख्यकों के लिए अच्छा काम किया है। आने वाले महीनों में कई राज्यों में चुनाव होने हैं और एक साल के भीतर आम चुनाव होने हैं, क्या नवीनतम यूसीसी की बात उसी पुरानी चाल का दोहराव है? क्या संसद माध्यम से बहुमत का फायदा उठाकर यूसीसी लॉ राजनीतिक बुलडोजर का इस्तेमाल करके पास किया जाएगा और अन्य बहुत सारी चींजे इससे हासिल की जाएंगी या संभवतः मॉनसून सत्र में ही पहले आम चुनाव होंगे? आने वाले महीनों में हमें इसका जवाब मिल जाएगा।
इस बीच एक पूरी तरह से अलग रास्ते का अनुसरण करते हुए, प्रगतिशील मुसलमान धर्म-निरपेक्ष, लैंगिक न्याय प्रदान करने वाले यूसीसी के विचार का समर्थन करते हैं। इसके कई कारण है। एक तो यह संवैधानिक निर्देश है। दूसरा, भारतीय उलेमाओं के झूठे दावों के विपरीत, मुस्लिम पर्सनल लॉ ईश्वर प्रदत्त नहीं बल्कि मानव निर्मित है। आज लाखों लोग इस्लाम में विश्वास करने वाले, उसका आचरण उतारने वाले मुसलमान पश्चिमी लोकतंत्र के नागरिक हैं जहां मुसलमानों के लिए कोई अलग पारिवारिक कानून नहीं है।
हाल के दशकों में, बड़ी और बढ़ती संख्या में मुस्लिम देशों ने, जिनमें कुछ ऐसे देश भी शामिल हैं जो खुद को इस्लामिक राज्य कहते हैं, अपने पारिवारिक कानूनों में सुधार किया है। लेकिन धर्मनिरपेक्ष भारत में उलेमा इस्लाम की रक्षा के नाम पर लिंग संबंधों की मध्ययुगीन पितृसत्तात्मक धारणाओं से चिपके हुए हैं।
अपने धार्मिक नेताओं की ओर से बदलाव की पहल करने की बात तो छोड़ ही दीजिए, इसकी पूरी उम्मीद खो देने के बाद, प्रगतिशील मुस्लिम महिलाओं और पुरुषों के पास धर्म-निरपेक्ष, लैंगिक न्याय प्रदान करने वाले यूसीसी के लिए अदालतों और आज की सरकार की ओर देखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
साथ ही, प्रगतिशील मुसलमान यूसीसी के सांप्रदायिकरण और हर चुनावी संघर्ष में इसको हथियार के रूप इस्तेमाल करने का विरोध करते हैं। संविधान यूसीसी लाने के लिए राज्य के “प्रयास” की बात करता है। एक वास्तविक प्रयास का अर्थ जो लोग भी इससे प्रभावित होंगे उन्हें शामिल करते हुए राष्ट्रव्यापी खुला विचार-विमर्श, चर्चा और बहस होनी चाहिए। एक बुलडोजर यूसीसी संवैधानिक निर्देश की भावना के खिलाफ है।
एक वास्तविक यूसीसी, आवश्यक रूप से धर्म-तटस्थ होना चाहिए, जिसका एकमात्र फोकस लैंगिक न्याय और बच्चों के सर्वोत्तम हित हों। दूसरी बातों के अलावा, सभी नागरिकों पर लागू होने वाले ऐसे पारिवारिक कानून में निम्नलिखित चीजें होंगी: तलाक केवल अदालत के माध्यम से, जिसमें महिलाएं भी तलाक के लिए अदालत में जा सकें, वैवाहिक बंधन टूटने के बाद विवेकपूर्ण भरण-पोषण का अधिकार, बहुविवाह और शर्मनाक हलाला प्रथा पर प्रतिबंध, लिंग-न्यायपूर्ण विरासत और संरक्षकता कानून, उत्तराधिकारियों के लिए छोड़ी जाने वाली संपत्ति का न्यूनतम प्रतिशत के प्रावधान के साथ वसीयत बनाने का अधिकार, बच्चे की कस्टडी इस आधार पर होनी चाहिए कि यह नाबालिग के सर्वोत्तम हित में हो, सभी नागरिकों को गोद लेने का अधिकार।
अंत में, निदेशक सिद्धांत(अनुच्छेद 48) “गायों और बछड़ों और दूसरे दुधारू और मालवाहक मवेशियों की हत्या पर रोक लगाने” का भी आह्वान करते हैं। तो फिर, भाजपा सरकारें पूरे भारत में एक समान बीफ कोड (यूबीसी) का पालन क्यों नहीं करतीं?
(जावेद आनंद के लेख ‘लूक्स हू टॉकिंग’ का अनुवाद। द हिंदू में 10 जुलाई को प्रकाशित। अनुवाद- कुमुद प्रसाद। लेखक इंडियन मुस्लिम फॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी के संयोजक हैं। सबरंग के संपादक हैं।)
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