औरंगजेब के आधुनिक संस्करण नरेंद्र मोदी

औरंगजेब और नरेंद्र मोदी में कुछ आश्चर्यजनक समानताएं हैं जो हैरान कर देती हैं। दोनों ही जन्म से गुजराती हैं। औरंगजेब का जन्म अहमदाबाद से 200 किमी. दूर दाहोद शहर में हुआ था। मोदी का जन्मस्थान वडनगर उसके दूसरी ओर करीब 100 किमी. दूर है। औरंगजेब को अपने जन्म के शहर से प्यार था और अपनी मृत्यु से तीन साल पहले उसने अपने बेटे, गुजरात के गवर्नर को इसकी विशेष देखभाल करने का निर्देश दिया था। मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में वडनगर पर विशेष ध्यान दिया।

औरंगजेब शाहजहाँ के चार बेटों में से तीसरा था और कट्टर मुसलमान था। उसने इस्लाम को तलवार के बल पर खूब फैलाया। मोदी अपने 6 भाई-बहनों में तीसरे नबर के और कट्टर हिन्दुत्ववादी हैं। वे आरएसएस के आक्रामक शैली के प्रचारक रहे हैं।

औरंगजेब के पास दक्कन और गुजरात के गवर्नर के रूप में व्यापक प्रशासनिक और सैन्य अनुभव था। उसने राजसी वैभव के बीच अपने धार्मिक कार्यों से अपनी एक संत की छवि बनाई। हालाँकि उसके इस दिखावे के पीछे सिंहासन पर चढ़ने की उसकी महत्वाकांक्षा ही थी।

वह प्रतिद्वंद्वियों पर हमले के लिए हमेशा सही समय की शांतिपूर्वक प्रतीक्षा करता था। अपने रास्ते में आने वाली हर चीज को वह बेरहमी से खत्म कर देता था। उनमें से कुछ उसके समर्थक और शुभचिंतक भी थे, लेकिन इसका उस पर कोई फर्क नहीं पड़ा।

सत्ता के लिए कुछ भी करेंगे

औरंगजेब की दृष्टि मयूर सिंहासन पर टिकी होने के कारण, वह जानता था कि भाई दारा ही उसकी राह में मुख्य बाधा है। इसलिए उसने अपने दो अन्य भाइयों से दोस्ती करके उन्हें बड़े पुरस्कार देकर दारा से अलग-थलग कर दिया। कुछ समय बाद उसकी बेरहमी से सरेआम हत्या कर दी गई।

यूरोपीय यात्री बर्नियर और मनुची के अनुसार औरंगजेब ने सबसे छोटे भाई मुराद को अपने तंबू में आमंत्रित किया, पवित्र कुरान की शपथ ली कि उसे सिंहासन में कोई दिलचस्पी नहीं है, फिर उसे इतनी ज्यादा शराब पिलाई कि वह अपनी सुध-बुध खो बैठा तो उसे जंजीरों में बाँध कर ग्वालियर के किले में कैद कर दिया गया। कुछ समय बाद न्यायिक प्रक्रिया का बहाना बनाकर मुराद को फाँसी दे दी गई।

इसके अलावा उसके दूसरे भाई शुजा को म्यांमार ले जाया गया और फिर स्थानीय लोगों के जरिये उसे मरवा दिया गया।

औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को आगरा के किले के एक छोटे से कमरे में कैद कर दिया, जहाँ उसने अपने अंतिम आठ दुखद वर्ष बिताए।

मोदी भी अपनी माँ का जिक्र तो अनेक बार करते रहे हैं लेकिन पता नहीं क्यों उन्हें कभी पिता का नाम लेते नहीं सुना गया। यह बिल्कुल अस्वाभाविक स्थिति है।

मोदी की महत्वाकांक्षा

नरेंद्र मोदी अपनी महत्वाकांक्षा में जिस रास्ते पर चले हैं, उसमें हर कदम पर औरंगजेब की तरह राह में रोड़ा बनकर खड़े किसी भी व्यक्ति के प्रति उनकी वैसी ही कठोर और निर्ममता के निशान हैं।

2002 के गुजरात दंगों के दौरान राजधर्म का पालन न करने की अटल बिहारी वाजपेयी की चेतावनी को मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी का समर्थन प्राप्त करके निष्प्रभावी बना दिया; किंतु समय आने पर उन्होंने आडवाणी जैसे भाजपा के संस्थापक सदस्य और देश के वरिष्ठतम राजनेता को उनकी अपनी ही पुरानी गांधीनगर लोकसभा सीट से टिकट न देकर अमित शाह को दे दिया और आडवाणी की राजनीतिक पारी का अंत ही नहीं कर दिया, बल्कि उन्हें पार्टी में अलग-थलग कर आंसू बहाने के लिए अकेला छोड़ दिया।

गुजरात में कांग्रेस को मटियामेट करने वाले भाजपा के कद्दावर नेता शंकर सिंह बाघेला मोदी से उम्र और अनुभव में काफी बड़े थे। वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके थे। पार्टी में फंड लाने वाले और पंथनिरपेक्ष पार्टियों से गठबंधन बनाने वाले प्रमुख व्यक्ति बाघेला को मोदी ने ऐसा झटका दिया कि वे न सिर्फ अकेले पड़ गए, बल्कि उनका राजनीतिक जीवन खत्म हो गया।

केशुभाई पटेल भी एक समय मोदी के संरक्षक थे लेकिन मोदी ने भाजपा का संगठन मंत्री बनते ही दिल्ली में पार्टी के नेताओं तथा मीडिया को हमेशा केशुभाई के बारे में बुरी बातें कहते हुए उनके खिलाफ ऐसी बिसात बिछाई कि केशुभाई से न केवल मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन ली गई बल्कि उनके शेष दिन राजनीति के बियाबान में गुमनामी में गुजरे।

इस तरह मोदी न सिर्फ गुजरात का राजपाट हथियाने में सफल हुए बल्कि वे राष्ट्रीय राजनीति के शिखर पुरुष ही बन गये।

उपकार करने वालों के साथ मोदी का एहसान जताने का यही अंदाज है। क्या उन्हें इसका कोई पछतावा है? नहीं, छल-छद्म से दूसरों को धक्का देकर शक्तिशाली बन गये लोगों को अपने किये का कोई पश्चाताप नहीं होता।

कट्टरता और संत की छवि बनाना

औरंगजेब दिल से कट्टर मुस्लिम और अपने मजहब की सर्वोच्चता में विश्वास रखता था। वह सांप्रदायिक शत्रुता को बढ़ावा देने में खुश रहता था लेकिन इस पर भी वह हिंदुओं को छोटी-छोटी रियायतें देता था। उसने काशी और मथुरा के मंदिरों को ध्वस्त कर दिया और उनकी नींव पर मस्जिदें बनवाईं लेकिन इसके साथ ही उसने काशी के विश्वनाथ व अन्य हिंदू मठ-मंदिरों को भूमि और मौद्रिक अनुदान भी दिया।

उसका शिवाजी के साथ संघर्ष जैसे-जैसे अधिक उग्र होता गया, उसने प्रतिद्वंद्वी मराठा समूहों को अधिक से अधिक सैन्य रैंक व अन्य आधिकारिक पद देना शुरू कर दिया। मुगल सम्राटों में औरंगजेब के अधीन हिंदू मनसबदारों की संख्या सबसे अधिक थी।

नफरत के साथ प्यार की नाटकबाजी में मोदी भी किसी को संदेह में नहीं छोड़ते, वे खुला खेल फर्रूखाबादी खेलते है। उनके ऊपर गुजरात का मुख्यमंत्री रहते बड़े पैमाने पर मुसलमानों को हिंसा का शिकार बनाने के आरोप लगाये जाते हैं। बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने सार्वजनिक मंच से श्मसान-कब्रिस्तान और साम्प्रदायिक आधार पर लोगों को उनके कपड़ों से पहचानने की बात कही है।

सीएए-एनआरसी, मुस्लिमों की मॉब लिंचिंग, बेगुनाह मुसलमानों को वर्षों तक जेलों में बंद करना, उन्हें हिंसा और घृणा का निशाना बनाना जैसे तमाम कुकृत्यों पर रोक लगाने के अपने संवैधानिक दायित्व से मोदी ने मुंह मोड़ दिया।

कट्टर हिंदुत्ववादी होते हुए भी मोदी ने अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए आरएसएस को भी झुका दिया है। वे आरएसएस के प्रति एक प्रचारक की प्रतिबद्धता के उलट उसके इशारों पर काम करने के बजाय स्वतंत्र रूप से निर्णय लेते ही नहीं बल्कि उसे अपनी ज़िद मानने पर विवश भी कर देते हैं।

यह महसूस करते हुए कि मुसलमानों को नजरअंदाज करने से उन्हें फायदा होने के बजाय नुकसान होगा, मोदी ने बतौर मुख्यमंत्री गुजरात में अचानक ऐसे मुस्लिम पुरुषों और महिलाओं के बीच टोपी और बुर्का के वितरण पर सब्सिडी देने का फैसला किया जो उनकी रैलियों में आने के इच्छुक थे।

प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने मुस्लिम महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए तीन तलाक़ पर कानून बनाया।

एक साल पहले प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी पार्टी की बैठक में साफ-साफ कहा था कि मुसलमानों को लेकर गलत बयानबाजी न करें। पसमांदा मुसलमानों तक अपनी पहुंच बनाएं। मुसलमान हमें वोट दें या न दें लेकिन संपर्क सबसे बनाएं।

रैलियों में मोदी की भाषा में भी बदलाव आ गया है और अब वे मुसलमानों के बजाय गरीबी को मुख्य दुश्मन बताने लगे हैं।

अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम से ठीक पहले नरेंद्र मोदी ने गुजरात में यूएई के राष्ट्रपति शेख मोहम्मद बिन जायद के साथ रोड शो कर अरब देशों को यह संदेश देने की कोशिश की कि मैंने मुसलमानों का भरोसा जीत लिया है।

सत्ता का केंद्रीकरण

हालांकि लोकतंत्र विविधताओं के लिए खुले मैदान जैसा है। इसमें हर कोई अपनी पसंद का खेल खेल सकता है। इसीलिए इसमें तानाशाहों के उभरने की भी संभावना बनी रहती है। शायद वाजपेयी सरकार के मंत्री अरुण शौरी ने इसे बखूबी भांप लिया था। तभी तो उन्होंने मोदी पर देश व पार्टी में एकाधिकारवाद की स्थापना करने का आरोप लगाया था।

उनका विश्लेषण था कि ‘सिर्फ तीन लोग ही सब कुछ चला रहे हैं- प्रधानमंत्री, उनके वित्त मंत्री और उनके सहयोगी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह। लोकसभा में बहुमत होना एक बात है, लेकिन जब राजनीति तेजी से गिर रही हो तो यह पर्याप्त नहीं है। यह सब बहुत स्पष्ट है। हम नए मुगल साम्राज्य औरंगजेब के युग में प्रवेश कर चुके हैं।’

इस प्रकार जिस तरह क्रूरता और निर्ममता के एक से बढ़कर एक उदाहरण औरंगज़ेब के खाते में दर्ज हैं ठीक वैसे ही मोदी का दामन भी इस तरह की नकारात्मक उपलब्धियों से भरा हुआ है। महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए किसी भी हद तक गुज़रते हुए भी संत की छवि का प्रदर्शन मोदी को उतना ही परिभाषित करता है जितना कि औरंगजेब को।

(हरबंस मुखिया का लेख, अनुवाद- श्याम सिंह रावत।)

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