Sunday, April 28, 2024

एनसीईआरटी पैनल की सिफारिश: रामायण और महाभारत इतिहास का हिस्सा

नई दिल्ली। यूरोप और अमेरिका में सरकारें आती-जाती रहती हैं। लेकिन यूरोपीय और अमेरिकी देशों की शिक्षा नीति और विदेश नीति में कोई बहुत बदलाव नहीं किया जाता है। क्योंकि वहां की शिक्षा देश के भौतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक संदर्भों के अनुरूप तैयार किये गये हैं। ठीक इसी तरह वह अपने विदेश नीति में भी बहुत ज्यादा बदलाव नहीं करते हैं, क्योंकि उनकी विदेश नीति उनके निजी लाभ को ध्यान में रखते हुए तय किए गए हैं। भारत में ठीक इसका उल्टा होता है। अभी भारत की शिक्षा नीति और विदेश नीति एक तय मानक और मार्ग पर चल रही थी। लेकिन 2014 में देश की कुर्सी पर संघ-भाजपा के सत्ताशीन होने के बाद से सबसे ज्यादा हमला देश की शिक्षा और विदेश नीति पर हुआ है। परिणामस्वरूप दोनों क्षेत्रों में व्यवस्था तार-तार हो गई है।

मोदी सरकार शिक्षा के नाम पर देश के युवाओं के सामने धार्मिक कर्मकांड, रुढ़िवाद और पुरातनपंथी विचारों को अतीत के गौरवगान के आवरण में लपेटकर पेश करना चाहती है, और इसका नाम नई शिक्षा नीति है। केंद्र में आरूढ़ वर्तमान सरकार का ज्ञान-विज्ञान की हर धारा और पद्धति से विरोध है। वह जनता को कूपमंडूक बनाए रखना चाहती है तभी तो वह पौराणिक कथा-कहानियों को एक विषय को रूप में लागू करने की कोशिश कर रही है।

ताजा मामला रामायण और महाभारत को इतिहास विषय में शामिल करने की सिफारिश है। दरअसल, एनसीईआरटी की एक उच्च स्तरीय पैनल ने सिफारिश की है कि संस्कृत के महाकाव्यों- रामायण और महाभारत को ‘भारत के शास्त्रीय काल’ के तहत इतिहास पाठ्यक्रम के हिस्से के रूप में स्कूलों में पढ़ाया जाना चाहिए। पैनल ने यह भी प्रस्ताव दिया है कि कक्षा की दीवारों पर संविधान की प्रस्तावना स्थानीय भाषाओं में लिखी जाए।

रामायण और महाभारत जैसे साहित्यिक एवं अर्ध धार्मिक महाकाव्यों को साहित्य और भाषा के रूप में पढ़ाने का कभी कोई विरोध नहीं रहा। संस्कृत साहित्य में रामायण और महाभारत के कुछ भाग पाठ्यक्रमों का हिस्सा तो रहे ही हैं। लेकिन अब इसे इतिहास बनाकर पेश करना भावी पीढ़ी को कूपमंडूक बनाने और अज्ञान के अंधे कुएं में धकेलने की साजिश का हिस्सा है।

उच्च स्तरीय पैनल की सिफ़ारिशें सामाजिक विज्ञान के पेपर पर अंतिम स्थिति का हिस्सा हैं। यानि पैनल इसे अपनी तरफ से लागू करने की सिफारिश कर चुका है। पर इसे अभी तक एनसीईआरटी की मंजूरी नहीं मिली है।

स्कूली सामाजिक विज्ञान पाठ्यक्रम को संशोधित करने के लिए पिछले साल गठित सात सदस्यीय पैनल ने पाठ्यपुस्तकों में भारतीय ज्ञान प्रणाली, वेद और आयुर्वेद को शामिल करने का सुझाव दिया था।

सामाजिक विज्ञान पर अपने अंतिम ‘स्थिति पत्र’ के लिए समिति की सिफारिशें नई एनसीईआरटी पुस्तकों के विकास की नींव रखने के लिए एक महत्वपूर्ण अनुदेशात्मक दस्तावेज है।

“पैनल ने इतिहास को चार कालों में वर्गीकृत करने की सिफारिशें की हैं: शास्त्रीय काल, मध्यकालीन काल, ब्रिटिश काल और आधुनिक भारत। अब तक, भारतीय इतिहास के केवल तीन वर्गीकरण हुए हैं-प्राचीन, मध्ययुगीन और आधुनिक काल।”

उच्च स्तरीय पैनल का नेतृत्व कर रहे सेवानिवृत्त इतिहास प्रोफेसर सीआई इस्साक ने कहा कि “हमने सिफारिश की है कि महाकाव्यों-रामायण और महाभारत-को शास्त्रीय काल के तहत पढ़ाया जाना चाहिए।”

पैनल ने यह भी प्रस्ताव दिया है कि पाठ्यपुस्तकों में केवल एक या दो के बजाय भारत पर शासन करने वाले सभी राजवंशों को जगह दी जानी चाहिए। पैनल की सिफारिश पर अब 19 सदस्यीय राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शिक्षण सामग्री समिति द्वारा विचार किया जाएगा, जिसे पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकों और शिक्षण सामग्री को अंतिम रूप देने के लिए जुलाई में अधिसूचित किया गया था।

केंद्र सरकार एनसीईआरटी के पुस्तकों में बदलाव करने की कोशिश लंबे समय से कर रही है। स्कूली और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में संघ-भाजपा हिंदुत्व की राजनीति के लिए लाभकारी विचारों को शामिल करवाने की कोशिश कर रही है। यह देश की शिक्षानीति को बर्बाद करने के साथ युवाओं के भविष्य के साथ भी खिलवाड़ है।

दरअसल, भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही मैकाले पद्धति की शिक्षा नीति का विरोध होता रहा है। लेकिन यह विरोध एक तर्क और संदर्भ के साथ था। मैकाले शिक्षा पद्धति का विरोध करने वाले राजनीतिज्ञों और शिक्षाविदों ने छात्रों को सिर्फ किताबी ज्ञान तक सीमित न रख कर व्यावहारिक दुनिया के संघर्षों और वास्तविकताओं से दो चार कराना चाहते थे। लेकिन मोदी सरकार शिक्षा में जो बदलाव कर रही है, उससे छात्र वर्तमान की सारी कमियों-बुराइयों को भूलकर अतीत के तथाकथित स्वर्णकाल में गोते लगाते दिखेंगे।

पिछली लगभग एक शताब्दी में यूरोपीय शिक्षा का जो स्वरूप उभर कर आया है, वह सबके लिए लाभकारी रहा है। इस पद्धति में ज्ञान-विज्ञान के साथ ही तर्कशील और विश्लेषणात्मक शिक्षा पर जोर रहा। आप अगर भौतिक उन्नति चाहते हैं तो वह यूरोपीय शिक्षा के अनुकरण से ही पाई जा सकती है। यूरोप-अमेरिकी शिक्षा संस्थाओं ने पिछले सवा सौ डेढ़ सौ वर्षों में शिक्षा की जो विषय वस्तु निर्धारित किया, वह ही आज दुनियाभर के स्कूल-कॉलेज और उच्च शिक्षा केंद्रों में पढ़ी-पढ़ाई जा रही है।

लेकिन अब मोदी सरकार भारतीय पद्धति की शिक्षा व्यवस्था के नाम पर ज्ञान, तर्क, विज्ञान और विश्लेषण पर कर्मकांड और अंधविश्वास को प्रमुखता दे रही है।

पहले शैक्षिक उपलब्धि सर्वेक्षण में 6 गैर-बीजेपी शासित राज्य नहीं हुए शामिल

देश के छह गैर भाजपा शासित राज्यों ने केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा कराए गए पहले शैक्षिक सर्वेक्षण में शामिल नहीं हुए। यह सर्वेक्षण 3 नवंबर को देश भर में ब्लॉक स्तर पर कक्षा तीन, छह और नौ में छात्रों के बीच शैक्षिक दक्षताओं के आकलन के लिए किया गया था।

राष्ट्रीय मूल्यांकन नियामक (परख-PARAKH) द्वारा आयोजित पहले राज्य शैक्षिक उपलब्धि सर्वेक्षण में स्कूलों में शिक्षण के तरीके और सीखने में सुधार की आवश्यकता वाले क्षेत्रों की पहचान करने के उद्देश्य से किया गया था। यह सर्वेक्षण बुनियादी, प्रारंभिक और मध्य चरणों के अंत में दक्षताओं के विकास में आधारभूत प्रदर्शन को समझने के लिए किया गया था।

शिक्षा मंत्रालय के अधिकारियों के अनुसार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, ओडिशा, पंजाब, राजस्थान और पश्चिम बंगाल को छोड़कर अन्य सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने राष्ट्रीय मूल्यांकन नियामक PARAKH द्वारा आयोजित पहले राज्य शैक्षिक उपलब्धि सर्वेक्षण में भाग लिया।

“इस व्यापक सर्वेक्षण में देश भर के 5,917 ब्लॉकों के तीन लाख स्कूलों के लगभग 80 लाख छात्रों को शामिल किया गया। इसमें 6 लाख शिक्षक और 3 लाख से अधिक क्षेत्रीय जांचकर्ता भी शामिल हैं।”

शिक्षा मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “इस सर्वेक्षण का प्राथमिक उद्देश्य भाषा और गणित पर प्राथमिक ध्यान देने के साथ प्रत्येक शैक्षिक चरण के अंत में छात्रों की सीखने की क्षमता का आकलन करना है, यानी बुनियादी, प्रारंभिक और मध्य स्तर पर।”

(जनचौक की रिपोर्ट।)

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