Saturday, April 27, 2024

विपक्षी सांसद नहीं, देश की जनता की गयी है निलंबित

भारत में लोकतंत्र नहीं अब लट्ठतंत्र है। वैसे भी शक्ति ही सत्ता की स्रोत होती है। और शक्ति अगर ज्यादा हो जाए तो स्वाभाविक तौर पर वह तानाशाही में बदल जाती है। और अगर उन हाथों में आ जाए जिनका लोकतंत्र के मूल्यों से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है। तब इसी तरह की सरकार बनती है। संसद के चलाने का तरीका बदल जाता है। और संविधान की मनमानी व्याख्या होने लगती है। जैसा कि आजकल हो रहा है। किस संविधान और संवैधानिक नियमावली के तहत इस समय संसद चलायी जा रही है? कोई बता सकता है? संसद के भीतर एक बड़ी घटना हुई है। विपक्ष उस पर बहस की मांग कर रहा है। वह चाहता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह संसद में आकर उस पर बयान दें। संवैधानिक पद पर बैठे होने के नाते जो उनकी बुनियादी जिम्मेदारी है। विपक्ष ऐसा करके क्या कोई गुनाह कर रहा है? या ऐसी कोई बात कर रहा है जिसको उसे नहीं करनी चाहिए? लेकिन घटना को चार दिन से ज्यादा बीत गए हैं।

अभी तक पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने संसद का मुंह नहीं देखा है। इस बीच देश में घूम-घूम कर इस मुद्दे पर बोल रहे हैं। पीएम बनारस गए दैनिक जागरण के साथ साक्षात्कार में मामले को गंभीर बताया। भाई अगर आप गंभीर बता रहे हैं तो आइये यही बात संसद के भीतर कहिए। और देश और संसद को भरोसे में लीजिए। अमित शाह किसी फोरम पर इसके बारे में बोले हैं लेकिन संसद के भीतर बोलने के लिए तैयार नहीं हैं। जबकि नियम यह है कि संसद सत्र के दौरान किसी भी गंभीर मसले पर कोई सांसद संसद के बाहर नहीं बोल सकता उसे संसद के भीतर ही अपनी बात रखनी चाहिए। सत्ता पक्ष के साथ तो यह शर्त और कड़ी हो जाती है। ये विशेषाधिकार के हनन के तहत आता है। दरअसल ये संसद को ठेंगे पर रखना चाहते हैं। संसद को उसकी औकात बताना चाहते हैं। और देश के सामने यह कहना चाहते हैं कि संसद के साथ इस तरह से व्यवहार करके भी वह सत्ता में आ सकते हैं। और इस तरह से पूरी संसद के अस्तित्व को खारिज करने की इनकी मंशा है।

आज जो हुआ वह भूतो न भविष्यति है। संसद के इतिहास में एक और काला पन्ना जुड़ गया है। 78 सांसदों को अब तक पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया है। जिसमें 45 राज्य सभा से हैं और 33 लोकसभा से। और अगर नाम देखेंगे तो उसमें सभी दलों के संसदीय दल के नेता या फिर उनके वरिष्ठ सदस्य शामिल हैं। अधीर रंजन चौधरी से लेकर सौगत रॉय और डेरेक ओ ब्रायन से लेकर डीएमके के टीआर बालू और दयानिधि मारन तक। यानी संसद को विपक्षी खेमे से नेतृत्व विहीन करके अपनी मनमानी करना और अपने सभी मनचाहे बिल को पास करा लेना। लोकसभा और राज्यसभा के क्रमश: स्पीकर और चेयरमैन संवैधानिक हस्ती से ज्यादा मोदी और शाह के गुर्गे की तरह काम कर रहे हैं।

प्राइमरी का हेडमास्टर भी अपने बच्चों के साथ इस तरह का व्यवहार नहीं करता है। महुआ मोइत्रा से लेकर डेरेक ओ ब्रायेन तक के निलंबन और इस पूरे दौरान दोनों सदनों में इन दोनों का जो रुख रहा है उससे शर्म भी शर्म खाने लगी होगी। जगदीप धनखड़ के हाथ में केवल लाठी नहीं है बाकी विपक्षी सदस्यों की आवाज को बंद करने में वह कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते हैं। और इस बात की डंके की चोट पर गारंटी करते हैं कि विपक्षी सदस्य ऐसा कुछ भी न बोल दें जो सत्ता के खिलाफ सदन की कार्यवाही में दर्ज हो जाए। और अक्सर उसे एक्सपंज यानी संसदीय कार्यवाही से निकालते रहते हैं। और भरसक इस बात की कोशिश करते हैं कि जो वह चाहते हैं विपक्षी सांसद वही बोलें। अब भला विपक्ष का कोई सदस्य यह कैसे कर सकता है? और उसके विपक्ष में बैठने का फिर मतलब क्या होगा? यही हालात कमोबेश लोकसभा के स्पीकर ओम बिरला का है। लेकिन इनको नहीं पता कि इसके पहले की स्पीकर सुमित्रा महाजन का क्या हुआ?

उन्होंने स्पीकर की कुर्सी से हटने के बाद किसी पद की लालच के चक्कर में संसदीय मर्यादाओं और परंपराओं को ताक पर रख दिया था। लेकिन कोई बड़ा पद मिलने की बात तो दूर दोबारा उन्हें लोकसभा का टिकट तक नहीं दिया गया। और अब कोपभवन में बैठकर इंदौर से मार्गदर्शक मंडल का हिस्सा बनी हुई हैं। बहरहाल इनसे कुछ आशा भी नहीं है। ये सब उसी संघी ब्रिगेड के सदस्य हैं जिसे इस देश से लोकतंत्र को खत्म करना है। पिछले 75 सालों तक इसके राजनीतिक मोर्चे ने पूरे कारगर तरीके से पाखंड के इस धर्म को निभाया है। लेकिन अब उसे किसी पाखंड की भी जरूरत नहीं है। अब उसका असली चेहरा सामने आ रहा है। उसे न तो संसद चाहिए। न संविधान चाहिए। और न सुप्रीम कोर्ट चाहिए। ये संस्थाएं अगर रहें भी सत्ता पक्ष की गिरफ्त में और उसके इशारे पर काम करें। बस उनकी यही तमन्ना है। संसद के इस आखिरी सत्र से संघ-बीजेपी ने अपने स्थायी शासन की भी व्यवस्था कर ली है। जब उसने सीईसी का बिल पास कराया।

सुप्रीम कोर्ट के मुंह पर उसके निर्देशों का जूता फेंक कर अपनी पूरी मनमर्जी से सीईसी और उसका पैनल नियुक्त करने का अधिकार हासिल कर लिया। और क्रिमिनल कोड के बिल को पारित कराके वह इसे एक दूसरे अंजाम पर ले जाएगी। जिसमें सभी विरोधियों को निपटाने की व्यवस्था छिपी है। इसमें एक चीज साफ-साफ लिखी गयी है कि किसी भी तरह की आर्थिक गतिविधि की आलोचना को राष्ट्रीय नुकसान माना जाएगा और उसे आतंकवाद के दायरे में रखा जाएगा। इस बिल के मुताबिक अब अगर किसी ने अडानी या फिर इनके चहेते उद्योगपतियों के खिलाफ बोल दिया तो वह देश के कानून की नजर में गुनहगार होगा। और उसे कभी भी आतंकवादी करार देकर जेल की सींखचों के पीछे डाला जा सकता है। 

आमतौर पर निरंकुश शासक बहुत डरा होता है। वह सवालों का सामना नहीं कर पाता है। और इस निरंकुशता के पीछे अपने किस्म की कायरता होती है। जिसमें सामने तो वह शेर बनने की कोशिश करता है लेकिन अंदर से शियार की मानसिकता में रहता है। इसलिए जब भी कोई इस तरह का चुनौतीपूर्ण मौका आता है तो संसद से ये श्रीमान द्वय नदारद हो जाते हैं। कुछ दिनों तक संसद के भीतर अपना चेहरा दिखाना भी नहीं चाहते। इससे पहले आपने मणिपुर की घटना देखी होगी। और 70 दिन बाद जब पीएम मोदी बोले तो महज 35 सेकेंड। और इस तरह की चुप्पियां सत्ता के इन शीर्षस्थ पुरुषों द्वारा कई बार अख्तियार की गयी हैं। गिनाने लगेंगे तो पूरी टिप्पणी उसी से भर जाएगी।

और वैसे भी लड़ाई में भी ये कभी सामने से मोर्चा लेने में विश्वास नहीं करते हैं। इन्होंने हमेशा पीठ के पीछे से ही वार किया है। षड्यंत्र इनके खून में है। संघ ने यही इनको शिक्षा दी है। आज भी संसद में विपक्ष के मुद्दे को दरकिनार करने के लिए डोभाल-शाह की षड्यंत्रकारी टीम सक्रिय हो गयी और कुछ नहीं सूझा तो माफिया डॉन दाऊद इब्राहिम के जहर देकर मारे जाने की खबर ही फैला दी। और भक्तों को भी नफरत और घृणा की खुराक मिल गयी। और मुद्दा पलटने का मौका भी।

सत्ता पक्ष तो अपने बनाए रोड मैप पर आगे बढ़ रहा है। लेकिन विपक्ष के पास न तो अपना कोई रोडमैप है और न ही उसका कोई विजन। आप संसद के भीतर रोज अपमानित किए जा रहे हैं और थोक के भाव में सस्पेंड किए जा रहे हैं। लेकिन अभी भी आपकी संसद में बने रहने की लालच बनी हुई है। हाथों में प्लेकार्ड लेकर विरोध की खानापूर्ति कर रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि सरकार केवल सुरक्षा के मसले से नहीं डरी है। वह इस पर कोई न कोई बयान दे ही देती। लेकिन जब राहुल गांधी समेत विपक्ष के कुछ हिस्से से इसे युवकों के बेरोजगारी और महंगाई से जोड़ा जाने लगा।

तब मोदी-शाह के पैर की जमीन खिसकने लगी। जो शख्स 2 करोड़ सालाना रोजगार देने का वादा करके आया हो। उसके शासन में बेरोजगारी 45 सालों का रिकॉर्ड तोड़ रही हो। उसमें युवा संसद के भीतर अगर घुस कर जवाब मांग लिए तो क्या गुनाह कर दिए? आप ने तो नोटबंदी में विफल होने पर चौराहे पर आने की बात कही थी। लेकिन नहीं आए और अगर युवा संसद के भीतर घुस कर आपसे जवाब मांगने पहुंच गए तो आतंकवादी हो गए? जबकि उनका किसी सांसद को किसी तरह की क्षति पहुंचाने का इरादा नहीं था। जो उनके व्यवहार और पूरे प्रदर्शन में भी दिखा। एकबारगी यह तरीका गलत हो सकता है। लेकिन अगर ये आतंकवादी हैं तब फिर भगत सिंह को भी आतंकवादी कहना होगा। आपने उनके खिलाफ यूएपीए की धाराएं लगा दीं। लेकिन इससे मामला हल नहीं होने जा रहा है।

क्योंकि उनके परिवार के लोग उनके साथ खड़े हो रहे हैं। आम नौजवान और किसान-मजदूर खड़े हो रहे हैं। और विपक्ष को भी अब संसद का मोह छोड़ देना चाहिए। पेंशन उनको मिलेगी ही। दो तीन-महीने की तनख्वाह के लिए सब्र भी कर सकते हैं। और सड़क पर उतर जाना चाहिए। संयोग से कल इंडिया गठबंधन की बैठक है। उसमें सामूहिक रूप से फैसला लेकर संसद से सामूहिक इस्तीफा देकर सड़क पर उतरने का ऐलान करना चाहिए। सत्ता पक्ष के इतने बड़े हमले और अपमान के बाद भी अगर विपक्ष यह नहीं कर पाता है तो उसे 2024 में सत्ता में लौटने का ख्वाब छोड़ देना चाहिए। 

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडर एडिटर हैं।) 

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