Sunday, April 28, 2024

साझा कार्यक्रम और वैकल्पिक राजनीति के नैरेटिव के साथ राष्ट्रव्यापी अभियान में उतरे विपक्ष

विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद से यह धुंआधार प्रचार चल रहा है कि 2024 में अब मोदी की पुनर्वापसी को रोकना असम्भव है। हमेशा की तरह इसका भी सबसे catchy और आक्रामक articulation खुद मोदी ने किया है कि,”विधानसभा चुनाव की हैट्रिक 2024 में हैट्रिक की गारंटी है। “उन्होंने दावा किया है कि इन नतीजों ने साबित कर दिया कि जनता को मोदी की गारंटी पर भरोसा है।

Axis My India के प्रदीप गुप्ता कहते हैं कि ये नतीजे मोदी के प्रति जनता की गहरी आस्था और इस विश्वास से जुड़े हैं कि वे deliver करते रहेंगे। उनके अनुसार 2024 का फैसला मोदी और विपक्ष के बीच नहीं है, बल्कि इनके नतीजे जनता तय करेगी। वे पूछते हैं इन हालात में रिकॉर्ड तीसरी बड़ी जीत से मोदी को भला कौन रोक सकता है?

बहरहाल, चुनाव नतीजों के realistic आकलन से साफ है कि इनके आधार पर हैट्रिक आदि की जो भी भविष्यवाणियां की जा रही हैं, वे agenda-driven अधिक हैं, तथ्य-आधारित कम।

सच तो यह है कि इन 3 राज्यों में जीत से 2024 में वहां की लोकसभा सीटों पर कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं है। इन 3 राज्यों में अगर भाजपा सब सीटें जीत जाय- अर्थात वह कांग्रेस को 2019 में इन राज्यों में मिली कुल सीटें छीन ले- तब भी उसे मात्र 3 सीटों का नेट लाभ होगा। क्योंकि तब तीनों राज्यों में सरकार बनने के बावजूद कांग्रेस को मात्र 3 सीटें ही मिली थीं।

यह भी सम्भव है कि जिस तरह तेलंगाना में कांग्रेस को मिले वोटों ने न सिर्फ शेष 3 राज्यों के मतों में भाजपा को मिली बढ़त को compensate कर दिया, बल्कि कुल मतों में भाजपा उससे पिछड़ गई, वैसे ही 2024 लोकसभा चुनाव में तेलंगाना में कांग्रेस की सम्भावित बढ़त (जहां पिछली बार भाजपा को 4, कांग्रेस को 3 सीट मिली थी) शेष 3 राज्यों के अधिकतम 3 सीटों के loss की भरपाई कर दे और बढ़त दिला दे।

शेखर गुप्ता द प्रिंट में लिखते हैं, “2019 में, 224 सीटों पर भाजपा ने 50 फीसदी से ऊपर वोट हासिल किए। इनमें से अधिकतर सीटें उन राज्यों में थीं जिन्हें भाजपा का ‘हार्टलैंड’ कहा जा सकता है (उनमें कर्नाटक की 22 सीटें भी हैं)। जिन सीटों पर उसने 50 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल किए उन पर वह 60, 70 या 100 फीसदी वोट भी हासिल कर ले तो उसका आंकड़ा केवल 224 पर ही पहुंचेगा।”

इनमें से कर्नाटक की 22 सीटों को हटा दिया जाय, जहां अब भाजपा नेतृत्व भी शायद ही पुराने performance को दुहराने की उम्मीद करता हो, तो ऐसी सीटें 202 बचती हैं।

शेखर गुप्ता आगे कहते हैं, “जहां तक भाजपा की अजेयता की बात है, तो देश के बाकी हिस्से की 319 सीटों में से वह केवल 79 ही जीत पाई। बहुमत के लिए भाजपा को महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तेलंगाना में वे सभी सीटें जीतनी होंगी जो उसने पहले जीती थी।”

वे आगे कहते हैं, “भाजपा का ‘थिंक टैंक’ इस हकीकत को समझता है और इसको लेकर चिंतित भी है। ऐसे राज्य भी हैं जहां ‘इंडिया’ के नेता वोटों की अदला-बदली करा पाए तो गठबंधन अपना दबदबा दिखा सकता है।” 

3 राज्यों के नतीजे, बेशक, विपक्ष के लिए बड़ा झटका हैं। बहरहाल, भारत जोड़ो यात्रा, कर्नाटक विजय और INDIA गठबंधन की शुरुआती हलचलों से पैदा हुई complacency से मुक्त होकर 2024 के लिए battle-ready होने के लिहाज से शायद ये नतीजे विपक्ष के लिए blessing in disguise साबित हों।

यह तभी हो पायेगा जब विपक्ष बिना demoralise हुए इन नतीजों में छिपे संदेशों और संकेतों को dispassionate ढंग से पढ़ सके और इनसे जरूरी सबक ले।

देश के मानचित्र में उत्तर-दक्षिण और यहां तक कि पूरब-पश्चिम का भी एक भाजपा-गैरभाजपा divide दिखता है, जाहिर है यह अलग अलग क्षेत्रों की विशिष्टताओं और भारत की विविधता की अभिव्यक्ति है। लेकिन इसे अतिरंजित करना और किसी अपरिवर्तनीय सत्य के रूप में पेश करना तथ्यों से मेल नहीं खाता तथा गलत निष्कर्ष तक ले जाएगा। हिंदी क्षेत्र को लेकर अनर्गल बयानबाज़ी नासमझी और आत्मघाती है।

यह सच है कि इस दौर में भाजपा अपने core votes को बढ़ाने में सफल हुई है जो हिंदुत्व-राष्ट्रवाद की नई आक्रामकता, सोशल इंजीनियरिंग व लाभार्थी योजनाओं से बने कथित मोदी करिश्मे का नतीजा है, जिसे गोदी मीडिया और व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी ने समाज के एक हिस्से के दिलो-दिमाग में बैठा दिया है।

लेकिन यह मानना कि इसने बहुसंख्य हिन्दू जनता के बीच स्थायी आधार बना लिया है और यह स्थिति अपरिवर्तनीय है, तथ्यात्मक रूप से गलत है और एक defeatist मानसिकता को जन्म देने वाला है।

अगर यह सच होता तो अभी चंद महीने पहले भाजपा के दो मजबूत गढ़ों-दक्षिण के कर्नाटक ही नहीं, उत्तर के हिमाचल प्रदेश- में उसकी सरकारें न उखड़तीं अथवा उनके सबसे मजबूत गढ़ उत्तर प्रदेश में बिखरा होने के बावजूद मुख्य विपक्ष 37% वोट और सौ से ऊपर सीटें जीतने में सफल न होता।

हिंदी पट्टी के महत्वपूर्ण राज्य बिहार में जब नीतीश भाजपा के साथ ही थे, विपक्षी महागठबंधन अपने आक्रामक राजनीतिक अभियान के बल पर उन्हें सत्ताच्युत करने के मुहाने तक पहुंच गया था।

ताजा चुनाव के नतीजे भी गवाह हैं कि first-past-the-post सिस्टम में सीटों में बड़ा अंतर दिखने के बावजूद मुख्य विपक्ष के मत प्रतिशत में गिरावट नहीं है और वह तीनों ही राज्यों में 40% के आसपास बना हुआ है।

राजस्थान में गहलौत और सचिन पायलट की लगभग पूरे कार्यकाल भर चली खींचतान के बावजूद कांग्रेस भाजपा से महज 2% पीछे है। वही कहानी छत्तीसगढ़ की है। वहां भी 4% का फर्क है। मध्यप्रदेश में बेशक यह फर्क 8% का है, लेकिन वहां भी कांग्रेस को 40% मत मिला है।

दरअसल इन चुनावों में कांग्रेस की जो हार हुई है, उसका श्रेय भाजपा से अधिक कांग्रेस को मिलना चाहिए। यह साफ है कि शीर्ष कांग्रेस नेता राहुल गांधी के जाति जनगणना और ओबीसी आरक्षण के मुद्दे की अपील नहीं बन सकी।

छत्तीसगढ़ और राजस्थान के उनके ओबीसी मुख्यमंत्री भी ओबीसी dominated सीटों पर बढ़त नहीं बना सके। इन दोनों राज्यों में और  मध्य प्रदेश में जहां भाजपा के ओबीसी मुख्यमंत्री थे, भाजपा ओबीसी के बीच कांग्रेस पर भारी पड़ी। 

ऐसा लगता है कि जब पूरा समाज जबरदस्त बेरोजगारी, सरकारी नौकरियों व गुणवत्तापूर्ण सस्ती सरकारी शिक्षा के अवसरों के खत्म होने, अंधाधुंध निजीकरण, भयावह आर्थिक संकट से बेहाल है, उस दौर में इनके समाधान के लिए विपक्ष द्वारा कोई विश्वसनीय रोडमैप पेश किए बिना महज जाति जनगणना की बात हाशिये के तबकों को convincing और आकर्षक नहीं लगी।

इसके विपरीत भाजपा को इसके विरुद्ध सवर्ण सामंती-मध्यवर्गीय प्रतिक्रिया से तो लाभ हुआ ही, विभिन्न स्तरों पर सटीक सोशल इंजीनियरिंग और हिंदुत्व की अपील द्वारा वह हाशिये के तबकों में  भी कांग्रेस पर बढ़त बनाने में सफल हुई। इसीलिए शहरी सीटों के साथ ही आदिवासी-दलित सीटों एवं ओबीसी डोमिनटेड सीटों पर भी वह कांग्रेस पर बहुत भारी पड़ी।

सधी सोशल इंजीनियरिंग द्वारा इस gain को consolidate करने और राहुल गांधी तथा INDIA गठबंधन की ओबीसी जाति जनगणना की काट करने की रणनीति भाजपा तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री-उपमुख्यमंत्री-स्पीकर आदि के चयन में अपना रही है।

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अपनी जीत के प्रति इतनी आश्वस्त थी कि आदिवासियों के लगातार चल रहे आंदोलनों तथा लोकतान्त्रिक ताकतों की उसने घोर उपेक्षा की। नतीजतन, आदिवासी बहुल सीटों पर, जहां उसे पिछली बार भारी समर्थन मिला था, इस बार वह बुरी तरह भाजपा से पिछड़ गयी।

नरम हिंदुत्व की रणनीति पर अमल करती बघेल सरकार ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के सवालों पर चुप्पी साधे रही। अचरज नहीं, अगर इसने अल्पसंख्यकों के मतदान को प्रभावित किया हो।

मध्यप्रदेश में तो कमलनाथ भाजपा के खिलाफ कोई काउंटर political नैरेटिव ही नहीं सेट कर पाए। उल्टे हिन्दूराष्ट्र के पैरोकार बागेश्वर धाम के चरणों मे बैठकर, राम मंदिर निर्माण का श्रेय लेते हुए भाजपा के हिंदुत्व से प्रतिस्पर्धा में उतरकर उन्होंने उसके  नैरेटिव को ही मजबूत किया। एक वैकल्पिक पोलिटिकल offensive के अभाव में कांग्रेस की गारंटियां भाजपा की लाड़ली बहना जैसी आकर्षक योजनाओं के आगे ढेर हो गईं।

राजस्थान में कांग्रेस का केवल 2% मत से पिछड़ना यह दिखाता है कि सरकार द्वारा लायी गयी शहरी रोजगार गारंटी और स्वास्थ्य के क्षेत्र में चिरंजीवी जैसी बुनियादी महत्व की योजनाओं को जनता का समर्थन मिला।

लेकिन भारी बेरोजगारी (राजस्थान में हरियाणा के बाद बेरोजगारी दर देश में सर्वाधिक है), लगातार पेपर लीक जैसे मामलों के कारण नई पीढ़ी की नाराजगी, शीर्ष नेताओं की लड़ाई से उनके सामाजिक आधार का विभाजन- गुज्जर समुदाय का पूरी तरह खिलाफ हो जाना, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण आदि की कारगर काट न कर पाना गहलौत सरकार पर भारी पड़ा।

तीनों ही राज्यों में विपक्ष के बिखराव के कारण न सिर्फ भाजपा विरोधी मत विभाजित हो गए, बल्कि कई जगहों पर लगता है छोटे दलों के समर्थक कांग्रेस के रुख से नाराज होकर भाजपा के पक्ष में चले गए। पिछले चुनाव की तुलना में इस बार ‘अन्य दलों ‘ के मत में हुई भारी गिरावट भाजपा के खाते में  transfer हो गयी। इससे भाजपा के मत और सीटों में भारी उछाल आ गया।

विपक्ष की चुनौतियां दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। लोकसभा चुनाव के ठीक पूर्व धारा 370 के खात्मे जैसे हिंदुत्व के आदि मुद्दे पर, सर्वोच्च न्यायालय की मुहर ने संघ-भाजपा के ‘राष्ट्रवादी’ विमर्श को धार दे दी है, रही सही कसर अगले महीने 22 जनवरी को राम मंदिर के उद्घाटन के साथ पूरी हो जाएगी। सम्भव है उसके तुरन्त बाद चुनाव की घोषणा हो जाय।

आज विपक्ष को सभी स्तरों पर न सिर्फ व्यापकतम सम्भव एकता बनाना होगा, बल्कि विधानसभा चुनाव से सबक लेते हुए भाजपा के खिलाफ ज्वलन्त जनमुद्दों को केंद्र कर एक convincing, कारगर नैरेटिव तैयार करना होगा और बिना समय गंवाए राष्ट्रव्यापी अभियान में जनता के बीच उतरना होगा।

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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