Sunday, April 28, 2024

फिलिस्तीनियों का क्रूर नरसंहार क्या अरब राष्ट्रवाद के उभार के तीसरे दौर का गवाह बनेगा?

17 दिसंबर 2010 को ट्यूनीशिया में बादशाहियत के तानाशाही तंत्र के उत्पीड़न से परेशान होकर एक फल विक्रेता मोहम्मद बाऊजीजी ने हताशा में आत्महत्या कर ली थी। यह घटना एक छोटे शहर में घटी, जिसकी आबादी 40 हजार के करीब थी। बाऊजीजी के जनाजे में करीब 200 लोगों ने भाग लिया था। पूरा शहर फल विक्रेता की आत्महत्या से शोक और आक्रोश में डूब गया।यहां से शुरू हुआ जन विक्षोभ सड़कों पर जन सैलाब बनकर उतर आया। एक-एक कर इस्लामी मुल्क इसकी गिरफ्त में आते गए। जिसे अरब बसंत के नाम से जाना गया। जन सैलाब का सड़कों पर उतरना अरब जगत के लिए सर्वथा नई परिघटना थी।

बादशाहियत के स्थाई तानाशाही के जुल्मों से पीड़ित अवाम में आजादी, स्वतंत्रता और न्याय की जन चेतना की उठती लहरों ने बसंत के शीतल हवा के झोंके की तरह अरब जगत को अपने आगोश में खींच लिया। जिसमें लाखों-करोड़ों लोग सड़कों पर उतर आए थे। आजादी की हवा के तेज झोंके अल्जीरिया होते हुए मोरक्को, सूडान, जॉर्डन, लेबनान, कुवैत, ओमान, इराक और संम्पूर्ण इस्लामिक राष्ट्रों (अरब मुल्कों) में फैलते गये। सभी देशों में बड़े-बड़े जन प्रदर्शन होने लगे। इससे इस्लाम के नाम पर खड़ी तानाशाहियों के खंभे हिलने लगे। पहली बार सल्तनतों के खिलाफ और स्थाई तानाशाही के विरुद्ध अलग-अलग देशों के लाखों लोग सड़कों पर उतरे।

कुछ मुल्कों में जहां इस्लामिक तानाशाही के लौह कर्टन बने हैं। वहां से भी छोटे बड़े प्रदर्शन होने की खबरें आने लगीं। इसमें जिबूती, आर्मेनिया, फिलिस्तीन, सऊदी अरब, मोरक्को के कब्जे वाले शहारा में विरोध प्रदर्शन देखे गए।

उस समय ऐसा लगता था कि आधुनिक लोकतांत्रिक सभ्यता की रोशनी को इस्लाम के नाम पर इन देशों में राजशाहियों ने जिस तरह से रोक रखा था। अब वे दीवारें ढह जाएंगी। लेकिन साम्राज्यवादी पूंजी और उसके सरगना देश अमेरिका की पकड़ इन देशों में अंदर तक इतनी गहरी है कि अमेरिका आधुनिक लोकतंत्र के इस महा-अभियान को सैन्यशक्ति, प्रचार तंत्र और पूंजी की ताकत से रोक देने में सफल हुआ। शेखों, प्रिंसो, किगों की तानाशाहियों की जड़ें हिलने के बाद भी टिक गईं। अमेरिका द्वारा पोषित कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों को आगे करके जन आक्रोश को दूसरी दिशा में मोड़ दिया गया।

ऐसे कई देश जो अरब जगत में अमेरिकी साम्राज्यवादी रणनीति के अनुकूल नहीं बैठते थे। वहां जन उभार का फायदा उठाकर तख्ता पलट कराया गया। इस श्रेणी में लीबिया, लेबनान, मिस्र, अल्जीरिया जैसे देश थे। लंबे समय से सीरिया पर शासन कर रहे सोवियत कालीन दौर के असद-अल-बसर सरकार के खिलाफ अमेरिका और इजराइल के सहयोग से इस्लामी संगठन आईएसआईएस को खड़ा कर तख्ता पलट करने की कोशिश हुई। तब से सीरिया गृह युद्ध में फंसा हुआ है। लेकिन रूस के सहयोग से असद अभी तक सत्ता पर काबिज हैं।

अब यह बात स्पष्ट हो गई है कि आईएसआईएस नामक आतंकी संगठन को अमेरिका और इजराइल का समर्थन हासिल था। ऐसी भी रिपोर्ट आ रही हैं कि बेंजामिन नेतन्याहू के साथ आईएसआईएस के नेताओं की गुप्त बैठकें होती रही हैं। तेलअबीब से इस संगठन को हर तरह की मदद मिलती थी। जो अमेरिकी अरब नीति का जीता जागता उदाहरण है। आईएसआईएस के घायलों के उपचार से लेकर युद्ध सामग्री तक इजराइली सरकार मुहैया कराती रही है। एक दौर ऐसा आया था जब सीरिया, तुर्की, जॉर्डन, लेबनान, इराक तक आईएसआईएस का नेटवर्क फैल गया था।

खुली-छिपी अमेरिकी साजिशों से अब अरबी जनता धीरे-धीरे अवगत होने लगी है कि कट्टरपंथी ताकतों का अमेरिका के साथ किस तरह का संबंध है। अमेरिका अपने राजनीतिक-आर्थिक स्वार्थ के लिए इन ताकतों का कैसे इस्तेमाल करता है और फिर एक सीमा के बाद इन संगठनों को नेस्तनाबूद करने में भी अग्रिम भूमिका निभाता है।

इस तथ्य के बाहर आने से अरब जनता की राजनीतिक चेतना में गुणात्मक बदलाव आने लगा। जिस कारण से कट्टरपंथी आतंकी संगठनों की पकड़ अब इस्लामी देशों में घटने लगी है। यही कारण है कि अरब जनता में आई लोकतांत्रिक चेतना ने आईएसआईएस के खिलाफ‌ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और वह सीरिया में असद सरकार को पलटने में कामयाब नहीं हो सका। अंत में सिमट कर अब अमेरिकी दया पर जिंदा है।

लेकिन ट्यूनीशिया से उठी अब बसंत की लहर का फायदा उठाकर मिस्र और लीबिया में अमेरिकी षड्यंत्र कामयाब हो गए। लीबिया में गद्दाफी की लंबे समय से चल रही स्थाई तानाशाही की सरकार को पलट दिया गया। गद्दाफी खुद मारे गए। मिस्र में भी यही हालत हुई और वहां के विद्रोही संगठनों के बल पर सत्ता पलट कराया गया। अब अल सीसी की तानाशाह सरकार मिस्र पर थोप दी गई है।जो पश्चिम उत्तर एशिया में अमेरिकी लठैत के रूप में इस समय काम कर रही है।

अतीत में शायद ही किसी ने सोचा होगा कि गमाल यूसुफ नासिर के द्वारा गढ़ा गया इजिप्ट जो कभी गुटनिरपेक्ष देशों का नेता हुआ करता था। जिसने अरब राष्ट्रवाद को प्रगतिशील दिशा में मोड़ने की अनथक कोशिश की, अंततोगत्वा अमेरिकी विश्व प्रभुत्व रणनीति का शिकार बन जाएगा। (14 नवंबर गुटनिरपेक्ष आंदोलन के चमकते सितारे पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म दिवस है। यह समय के विकास की विडंबना ही है कि भारत भी आज अमेरिकी विश्व रणनीति का पिछलग्गू हो चुका है।)

अमेरिका इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों खासकर पेट्रोलियम पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।इसके लिए वह अलकायदा, बोको हरम, आईएसआईएस जैसे न जाने कितने आतंकी संगठनों और तानाशाहियों द्वारा लोकतांत्रिक आंदोलनों को कमजोर कर शेखों, बादशाहों की सरकारों को मदद पहुंचता रहा है। इन संगठनों की मदद से यूएस ने अरब देशों में इस्लामी रूढ़िवादी माहौल बनाने का प्रयास किया, जिससे पूरी दुनिया में इस्लाम को बदनाम करने में अमेरिका सहित अन्य नस्लवादी ताकतों को कामयाबी मिली।

अलकायदा जिसे अमेरिका ने खड़ा किया था। बाद में वह अमेरिका का विरोधी हो गया। इसलिए अमेरिका ने इस संगठन की गतिविधियों को केंद्रित करते हुए पूरी दुनिया में इस्लामोफोबिया का माहौल खड़ा किया। जिससे अलग-अलग देशों में अलग-अलग कारणों से मुस्लिम समाज को अनेक संकटों से गुजरना पड़ रहा है।

हालांकि वह अमेरिका ही है जिसने अरब जगत में तानाशाहियों को जिंदा रखा है और अब इस्लामी जगत के लोकतांत्रिक जागरण की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बना हुआ है। इस रोड़ा को हटाए बिना अरब देशों में आधुनिक विचारों के फलने-फूलने और सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण के दरवाजे नहीं खोले जा सकते।

अतीत में कम्युनिज्म विरोध के नाम पर अमेरिका ने अरब जगत के बादशाहों और इस्लामी कट्टरपंथी संगठनों के साथ मिलकर अरबी अवाम पर भारी दमन और नरसंहार कराया था। हजारों वामपंथी, कम्युनिस्ट कार्यकर्ता, लेखक, आधुनिक विचारों वाले प्रबुद्ध नागरिकों की हत्याएं की गईं। उन्हें फांसियों पर चढ़ाया गया और बरसों जेल में बंद रखकर यातनाएं दी गईं। (ईरान, इराक, अफगानिस्तान, सऊदी अरब, जॉर्डन, लेबनान जैसे देश इसके उदाहरण हैं।)

यहां की धरती के नीचे काले तरल सोने की खानें हैं। जिसकी लूट के बल पर ही अमेरिकी साम्राज्यवाद की बादशाहत दुनिया पर पिछले 75 वर्षों से कायम है। इसलिए अरब देशों में किसी भी तरह की नई राजनीतिक-सामाजिक चेतना को रोकने के लिए अमेरिका ने भारी धन खर्च किया। यहां की सरकारों को अमेरिका ने अपने सैनिक शक्ति के बल पर जिंदा रखने की कोशिश की है। इन पिछड़े  सितारों वाले शेखों, बादशाहों, प्रिंसों और किंगों की सत्ता लोलुपता का फायदा उठाकर सैन्य सामग्री सप्लाई करने से लेकर सैनिक अड्डों का विशाल जाल अरब देशों में बिछा रखा है।

इन देशों की सत्ता संरचना में अमेरिकी पकड़ इतनी गहरी है कि वह जब चाहे तब इन देशों में सत्ता संतुलन बिगाड़ सकता है। आपने देखा है कि इराक, अफ़गानिस्तान, लीबिया, सीरिया, मिस्र तक अमेरिकी द्वारा किए गए नरसंहार और तख्ता पलट का विरोध करने की हिम्मत किसी भी इस्लामी देश में नहीं हुई।

यही नहीं पिछड़े रूढ़ीवादी विचारों और मजहबी संस्थाओं को मजबूत करने के लिए अमेरिका ने अरबों डॉलर इन देशों में उड़ेलना जारी रखा है। प्राचीन इस्लामी व्यवस्था के नाम पर राजशाही को ईश्वरीय प्रतीक के रूप में पेश करते हुए पिछड़े, मध्यकालीन सामाजिक-राजनीतिक ढांचे को बनाए रखा गया है। जिस कारण से इन मुल्कों में आधुनिक लोकतांत्रिक संगठनों-संस्थाओं और यहां तक की प्रशासनिक ढांचे का भी विकास नहीं हो सका है।

आज भी अरब जगत में मौलवियों-इमामों की ताकत तथा समानांतर धार्मिक संगठनों के जाल बने हुए हैं। जो जनता की एक एक गतिविधि को नियंत्रित करते हैं। इनके द्वारा ही तानाशाही तंत्र को अस्थायित्व और वैधता मिली हुई है।

यहां के सभी मुल्कों में ऐसे समूह हैं जो अपनी चेतना में हजार वर्ष पीछे की दुनिया में जी रहे हैं। लेकिन वे पूंजीवाद द्वारा निर्मित  आधुनिक अय्याशी के सारे साधनों का इस्तेमाल करने में नहीं हिचकते हैं। विचारों के स्तर पर डेढ़ हजार वर्ष पुराने सामाजिक ढांचे की वकालत और जीवन में आधुनिक विज्ञान से निर्मित संसाधनों, सुविधाओं के उपभोग के बीच जिंदा अरबी समाज अब नए तरह के जागरण के लिए छटपटा रहा है और उसके संकेत भी मिलने लगे हैं।

इस्लाम की सेवा के नाम पर बादशाही को जायज ठहरने के लिए इमाम, मुफ्ती, मौलाना, मौलवी, मस्जिद, मदरसे एक बेहतरीन हथियार हैं। इसलिए इनका इस्तेमाल करते हुए अमेरिका ने आधुनिक विचारों के खिलाफ़ युद्ध छेड़ रखा है। लेकिन इजराइली कब्जे तथा फिलिस्तीनी नागरिकों के हो रहे दमन-उत्पीड़न, हमले और उनके सम्मान पर पहुंचाई जा रही अंतहीन चोटों तथा उनको उनकी भूमि से लगातार बेदखल किए जाने के चलते उपजी परिस्थितियों में हमास द्वारा इजराइल पर हुए हमले ने अरब जगत के सामाजिक जीवन को बदल दिया है। 

अजेय इजराइली मिथक को तोड़ते हुए हमास ने जो कदम उठाया उससे अरब जगत की जनता के स्वाभिमान को नई शक्ति मिली है। इस घटना के बाद उत्पन्न स्थिति ने अरब जगत के जनमानस में नए तरह का आलोड़न पैदा कर दिया है। दसियों हजार निर्दोष बच्चों‌, बुजुर्गों, महिलाओं और नागरिकों के जनसंहार से उपजे जन आक्रोश ने अरब जगत की जनता की दृष्टि और घटनाओं को देखने के तरीके को बदला है।

एशिया और उत्तरी अफ्रीका के सभी 22 इस्लामिक मुल्कों में लगातार जन विरोध देखने को मिल रहे हैं। हमास का हमला फिलिस्तीनी प्रतिरोध और इजराइली क्रूर नरसंहार आने वाले समय में ‌संभवतः अरब राष्ट्रवाद के उभार के तीसरे दौर का गवाह बनने जा रहा है। उम्मीद है कि अरब जगत में आए जन उभार की तीसरी लहर नए बसंत की सुखद हवाओं को साथ लेकर आएगी।

दुनिया के सबसे क्रूर अमानवीय नरसंहार जो जायनिस्ट इजराइली सरकार द्वारा किया जा रहा है। संभवतः इसी के बीच से लोकतंत्र और सार्वभौम राष्ट्रों के निर्माण का नया युग शुरू होगा। फिलिस्तीन और इजराइल के बीच चल रहे महाविनाशकारी युद्ध में यह संभावना निहित है कि युद्धोत्तर दुनिया में अरब जगत के साथ ही पूरे विश्व का शक्ति संतुलन बदला जा सकता है।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

   

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Omkar Nath
Omkar Nath
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5 months ago

शानदार विश्लेषण

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