अदीबों की नज़र में नेहरू: ऐ ला-फ़ानी जवाहरलाल नेहरू, रूहे इंसानियत का सजदा कुबूल कर

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पंडित जवाहरलाल नेहरू एक अज़ीम सियासतदां, सुलझे हुए दानिश्वर और बेजोड़ स्पीकर ही नहीं, बल्कि एक बेहतरीन अदीब भी थे। दुनियावी इतिहास, साहित्य, सिनेमा, कला और संस्कृति की उन्हें अच्छी समझ थी। यही वजह है कि वे फ़न-शनास और अदब-नवाज़ थे। उनकी अदब नवाज़ी के कई क़िस्से मशहूर हैं। अदीबों और फ़नकारों को उन्होंने हमेशा इज़्ज़त-ओ-एहतिराम की नज़र से देखा। जब भी उन्हें कोई मदद की ज़रूरत हुई, वे उनके कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे। उन्हें प्रोत्साहित किया।

‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’, ‘ग्लिम्पसेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ और ‘मेरी कहानी’ जवाहरलाल नेहरू की मक़बूल किताबें हैं। ज़ाहिर है कि नेहरू की आला शख़्सियत और अदबी सलाहियत से उनके हमस्र अदीब, शायर और फ़नकार भी बेहद मुतास्सिर थे। अदीबों के बीच उनकी बेहद मक़बूलियत थी। सभी का उनमें गहरा यक़ीन और उनसे बेहद मुहब्बत करते थे। और समय-समय पर वे इसे जताने का कोई मौक़ा भी नहीं छोड़ते थे। इन अदीबों की तख़्लीक़ात में जवाहरलाल नेहरू के जानिब उनके जज़्बात ज़ाहिर होते हैं।

शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी ने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बरात’ में पंडित जवाहरलाल नेहरू की शख़्सियत का ख़ाका खींचते हुए क्या ख़ूब लिखा है, ‘‘वह अपनी मोहनी सूरत की कशिश, अलग रंग की हाज़िरजवाबी, अपनी आंखों की मुरव्वत, अपने लहजे की मिठास, अपनी गुफ़्तगू की मौसिक़ी, अपनी मुस्कराहट के सुकून, अपने ख़ानदान की इज़्ज़त, अपने दिल की आसमान की-सी बेइंतिहा गुंजाइश, अपने मिज़ाज और अपने किरदार की बेनज़ीर शराफ़त के ऐतबार से ऐसे इंसान थे, जो इस ज़मीन पर सदियों के बाद पैदा होते हैं और यह आवाज़ बुलंद कर सकते हैं कि-

मत सहल हमें समझो, फिरता है, फ़लक बरसों

तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं।

वह इस दुनिया के एक ऐसे ज़िंदा ताजमहल थे, जिसको अवध की सलोनी शाम और बनारस की ख़ूबसूरत सुबह मिलाकर, इलाहाबाद के गंगा-जमुनी संगम पर छेनियों से तराश कर तामीर किया गया था। उनका वजूद हिंदुस्तान का गु़रूर था। उनके किरदार में दूसरों के भले की सोच थी और आलम-ए-इंसानियत का ऐतबार था। (किताब ‘यादों की बरात’, लेखक : जोश मलीहाबादी, प्रकाशक : ‘संवाद प्रकाशन’ मेरठ, पेज-350)

बहरहाल, जवाहरलाल और जोश के बीच जो अपनेपन, विश्वास और मुहब्बत के मरासिम थे, वे तक़रीबन सभी जानते हैं। नेहरू, जोश की इज़्ज़त करते थे, तो जोश की नज़र में भी सभी सियासतदां के बीच नेहरू का क़द बड़ा था। वे उनका दिल से एहतिराम करते थे। उनसे हद दर्जे तक मुतास्सिर थे। नेहरू से मुताल्लिक़ ऊपर लिखीं उनकी ये चंद लाइनें, इसी बात की तस्दीक़ करती हैं। कमोबेश यही हाल अब्बास का था।

राइटर, जर्नलिस्ट, कॉलम निगार, अफ़साना निगार और फ़िल्मकार ख़्वाजा अहमद अब्बास पर पंडित जवाहरलाल नेहरू की दिल-आवेज़ शख़्सियत का क्या असर हुआ? उन्हीं की ज़ुबानी, ‘‘मैंने जब पहली बार जवाहरलाल नेहरू को देखा, तो पहली नज़र ही में उनसे मुझे इश्क़ हो गया। मैं बंसल सिनेमा के नाम से जाने वाले मक़ामी सिनेमाघर की टीन की छत के नीचे बैठा हुआ था और वो एक न्यूज रील में स्क्रीन पर मौजूद थे।

ये वाक़िया इंडियन नेशनल कांग्रेस के कलकत्ता इजलास के कई माह बाद का है। गांधीजी, वल्लभभाई पटेल, पंडित मालवीय, बाबू राजेन्द्रप्रसाद, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद यानी कि सुभाषचंद्र बोस (कांग्रेसी रज़ाकारों के जनरल कमांडिंग अफ़सर की ड्रामाई वर्दी में) के बरख़िलाफ़ एक इकहरे बदन के नौजवान को सफे़द घोड़े पर सवार आते हुए देखना, इस क़दर पुरलुत्फ़ हैरतअंगेज़ था कि मैं देखता ही रह गया।

मैंने बगै़र सोचे-समझे ही ख़ुद से कहा कि ये मेरा रहनुमा, मेरा साथी, मेरा महबूब सिनेमाघर के अंधेरे में किसी लड़की का हाथ अपने हाथ में लेकर नहीं बैठा हुआ था (ऐसा मौक़ा दस्तयाब ही कहां था।) लेकिन अगर ऐसा हुआ भी होता, तो भी मैं उसकी नर्म व नाज़ुक गिरफ़्त से अपना हाथ छुड़ा कर तालियां बजा रहे दर्शकों में शामिल हो गया होता। ऐसे हालात में मेरे नॉवेल ‘इंक़लाब’ का मर्क़ज़ी किरदार ऐसा ही करता है।

मेरे लिए कशिश का बड़ा सबब एक शख़्सियत नहीं थी, मैं पहले ही से कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी की इस नए जोश वाली तक़रीर पर फ़िदा था, जो उन्होंने कलकत्ता में ज़ोर व जुल्म से मुताल्लिक़ क़रारदाद की मुख़ालफ़त में अदा की थी कि आपको ख़ूबसूरत जुमलों और दलीलों से आज़ादी हासिल नहीं होगी, आज़ादी आपको उस वक़्त हासिल होगी, जब उनको ये महसूस होने लगेगा और वो उसे तस्लीम कर लेंगे कि उनका हिंदुस्तान में रहना दोज़ख़ में रहने के बराबर है। मगर मेरे मुतास्सिर होने का ताल्लुक़ उनकी तेज़तर्रार पुरजोश ख़ूबसूरत शख़्सियत से भी था।

ये हक़ीक़त कि उनको दीगर जलवागर या माजूर कांग्रेसी रहनुमाओं की तरह बैलगाड़ी में या हाथी पर बिठा कर नहीं लाया गया था, बल्कि वो एक सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर आए थे। पन्द्रह बरस की उम्र के या उससे ज़्यादा बड़े लड़कों को लुभा रही थी। इसके बाद किताबचे की शक्ल में शाए किया गया, उनका वो सदारती ख़ुत्बा जो उन्होंने कांग्रेस के लाहौर इजलास में अदा किया था, हमारे बाइबिल की तरह से था और उसके कई हिस्से हमें ज़बानी याद थे-

‘‘लिहाज़ा आज हम हिंदुस्तान की मुकम्मल आज़ादी के लिए उठ खड़े हुए हैं। कांग्रेस ने अंग्रेज़ी पार्लियामेंट के इस हक़ को न कभी तस्लीम किया है और न करेगी कि वो किसी भी सूरत में हम पर हुक्मरानी करें। इसके लिए हमें कोई प्रार्थना नहीं करनी है। हां, मगर हम दुनिया की पार्लियामेंटों और उनके ज़मीरों से ज़रूर दरख़्वास्त करेंगे और मुझे उम्मीद है कि हम उनको दिखा देंगे कि हिंदुस्तान अब और ज़्यादा गै़र मुल्की क़ब्ज़ा बर्दाश्त नहीं करेगा। कोई भी शख़्स ख़ास तौर से इंग्लैंड हमारे दृढ़ निश्चय की मज़बूती को कम आंकने या उसका ग़लत मतलब निकालने की हिम्मत न करे।’’

अध्यक्षीय संबोधन सामराज ही के लिए नहीं, बल्कि उनके हमनवा हिंदुस्तानी सरमायदारों और ग़ैर हाज़िर जागीरदारों के लिए भी एक चैलेंज था। ‘‘ये फ़ैसला हम को करना है कि किस क़िस्म के उद्योगों को बढ़ावा देना है और हमें अपने खेतों में क्या पैदा करना है। आज हमारे खेतों में जो कुछ बहुतायत से पैदा हो रहा है, वो उन खेतों में काम करने वाले किसानों या मज़दूरों के लिए नहीं है। उद्योग का पहला मक़सद करोड़पति पैदा करना है। हमारे अवाम की बदहाली, उनकी झुग्गी झोंपड़ियों बरतानवी सामराज और हमारे मौजूदा समाजी निज़ाम की तस्दीक़ है।’’

या ये कि ‘‘समाजवाद लालच पर आधारित समाज में बढ़ावा नहीं पा सकता। ये ज़रूरी हो जाता है कि हम समाज की लालची बुनियादों को हिलाएं और मुनाफ़ाख़ोरी के मक़सद को विदा करें।’’

ये था वो शख़्स, जिसने रावी के किनारे पर मुकम्मल आज़ादी का परचम बुलंद किया था। उसकी शख़्सियत में भी जांबाज़ी व जादूगरी थी और उसके शब्दों में भी। और हिंदुस्तानी नौजवानों की पूरी नस्ल सफे़द घोड़े पर सवार उस नौजवान पर मोहित थी। हम उससे पागलों की तरह मुहब्बत करते थे। (‘मेरा इश्क़-ए-दराज़’, लेखक : ख़्वाजा अहमद अब्बास, मैगज़ीन : ‘शेष’ जुलाई-सितम्बर 2016, पेज-83, 84, मूल लेख : तिमाही ‘उदू अदब’, नई दिल्ली)

पंडित जवाहरलाल नेहरू की विस्तृत सोच और इंक़लाबी कारनामों के मुरीद शायर-ए-आज़म फ़िराक़ गोरखपुरी भी थे। नेहरू के जानिब उनका अपनापन क्यों था, वे उन्हें क्यों पसंद करते थे?, इस बात को उन्होंने बड़े ही तफ़्सील से अपने एक मज़मून में लिखा है-

“आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के कारनामे सूरज की तरह रौशन हैं। महज़ अवाम नहीं, बल्कि मुल्क के बड़े से बड़े चिंतकों ने विश्व राजनीति के सिलसिले में उन्हें बजा तौर पर जगत-गुरु माना है। अब जवाहरलाल अमर हो चुके हैं और इस सदी की तारीख़ उनके कारनामों के बगै़र हरगिज़ मुकम्मल नहीं समझी जा सकती। मैं अक्सर दिल ही दिल में सोचता हूं कि जवाहरलाल नेहरू और मैं इस क़दर अपनापन क्यों महसूस करते थे!

मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि पूर्वी और पश्चिमी, प्राचीन और नवीन कल्चर का जो संगम हिंदुस्तान को संपूर्ण करने के लिए लाज़िमी है, वही संगम या वही घुलावट हम दोनों चाहते थे। न महज़ पाश्चात्य से काम चलने वाला है, न सिर्फ़ भारत माता, भारत माता पुकारने से काम चलने वाला है। हम दोनों के दिल एक ही साज़ के पर्दो की धड़कन थे।” (‘जवाहरलाल नेहरू : कुछ यादें कुछ तास्सुरात’, लेखक : फ़िराक़ गोरखपुरी, मैगज़ीन : ‘शेष’ अप्रैल-जून 2012, मूल लेख : माहनामा ‘आजकल’ नवम्बर 1964 जवाहरलाल नेहरू नंबर)

मैं अपने इस मज़मून का इख़्तिताम (समापन) जोश मलीहाबादी के ही लेख से करता हूं, जिसमें उन्होंने पंडित जवाहरलाल नेहरू के विरोधियों के इस इल्जाम ‘‘नेहरू, अच्छे सियासतदां नहीं थे !’’ का, मुंहतोड़ जवाब देते हुए उसमें वाज़ेह (स्पष्ट) तौर पर लिखा था-

“नेहरू में ख़ुदकामी (निरंकुशता) और कमीनगी नहीं थी। वह बुरे आदमी बन ही नहीं सकते थे और इसी ख़ता पर कहा जाता है कि वह अच्छे सियासतदां नहीं थे। बात यह है कि दरअसल, सियासत पैग़ंबरी का एक-दूसरा नाम है और सच्ची सियासत वह होती है, जो इंसानी नस्ल को फूलों की सेज पर लिटाने के लिए ख़ुद कांटों पर चलती और अल्लाह के बंदों का पेट भरने के लिए ख़ुद अपने पेट पर पत्थर बांध कर काम करती है, लेकिन आज की सियासत इस क़दर बदसूरत हो चुकी है कि वह अवाम को कांटों पर चला कर ख़ु़द फूलों की सेज पर लेटती है और अल्लाह के करोड़ों बंदों के पेटों पर पत्थर बंधवा कर सिर्फ़ अपने चहेतों का पेट भरती है।

और नेहरू की सियासत चूंकि मौजूदा सियासत के बरअक्स थी, इसलिए यह कहा जाता है कि वह अच्छे सियासतदां नहीं थे। मैं इसकी तस्दीक़ (पुष्टि) करता हूं। इसलिए कि आज के सियासतदां के लिए यह एक लाज़िमी शर्त है कि उसूलों की ख़िदमत और इंसानियत के ऐतबार से वह नाक़ाबिले-बर्दाश्त हद तक बुरा आदमी हो।” [ऐ ला-फ़ानी (शाश्वत) जवाहरलाल नेहरू, रूहे इंसानियत का सजदा कुबूल कर!]

(ज़ाहिद ख़ान लेखक और पत्रकार हैं।)

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