Sunday, April 28, 2024

रोजगार के सवाल पर बड़े आंदोलन की तैयारी, 15 जुलाई को दिल्ली में ‘संयुक्त युवा मोर्चा’ का राष्ट्रीय अधिवेशन

यह स्वागत योग्य है कि नौजवान रोजगार के सवाल पर निर्णायक जंग छेड़ने के लिए कमर कस रहे हैं। रोजगार के मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर युवा आंदोलन की रणनीति तय करने के लिए 15 जुलाई को 100 से ऊपर युवा संगठनों की भागीदारी के साथ गठित ‘संयुक्त युवा मोर्चा’ के बैनर तले राजधानी दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में ‘राष्ट्रीय अधिवेशन’ आयोजित किया जा रहा है। ज्ञातव्य है कि इस पहल को तमाम जनपक्षधर अर्थशास्त्रियों तथा नामचीन सामाजिक-राजनीतिक हस्तियों का समर्थन और मार्गदर्शन प्राप्त है।

इसमें प्रमुखता से यह मांग उठेगी कि देश भर में रिक्त पड़े एक करोड़ सरकारी पदों को पारदर्शिता के साथ अविलंब भरा जाए, रोजगार अधिकार को कानूनी दर्जा प्रदान किया जाए, आउटसोर्सिंग/संविदा व्यवस्था खत्म की जाए, रेलवे, बैंकिंग, बिजली-कोयला, दूरसंचार, पोर्ट समेत शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे सार्वजनिक क्षेत्र में निजीकरण निषिद्ध हो।

सम्मेलन के आयोजक ‘संयुक्त युवा मोर्चा’ के राष्ट्रीय सह-संयोजक राजेश सचान द्वारा जारी बयान में कहा गया है, “देश में आज आजीविका का अभूतपूर्व संकट है। बहुसंख्य आबादी बेरोजगार है। यह लोगों के अपमानजनक/तिरस्कारपूर्ण जीवन का मुख्य स्त्रोत है। ऐसे में राज्य का यह दायित्व है कि नागरिकों के गरिमापूर्ण जीवन के लिए आजीविका सुनिश्चित करे।”

संविधान सभा में काम के अधिकार (Right to work) के सवाल पर गंभीर बहस हुई थी और तय किया गया था कि राज्य का यह दायित्व होगा कि वह सभी नागरिकों की आजीविका की गारंटी करे, संसाधनों का इस तरह केन्द्रीकरण कतई न हो जिससे नागरिकों का हित प्रभावित हो। बेकारी भत्ते समेत सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने का भी दायित्व राज्य का होगा। इसे संविधान के चौथे भाग नीति निर्देशक तत्व के अनुच्छेद 39 व 41 में दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य के नीति निर्देशक तत्व और अनुच्छेद 21 की व्याख्या में नागरिकों के गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार सुनिश्चित करने की बात की है।

ऐसे में सरकारें इस दायित्व से अपना पल्ला झाड़ नहीं सकतीं, लेकिन मोदी सरकार तो रोजगार संकट की भयावह स्थिति को स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं है, संकट का निराकरण तो दूर की बात है। वहीं विपक्षी दलों के पास भी इसे लेकर सुस्पष्ट नीति व कार्यक्रम का अभाव है। इन स्थितियों में राष्ट्रीय स्तर पर रोजगार आंदोलन वक्त की जरूरत है।

‘संयुक्त युवा मोर्चे’ के बैनर तले जुट रहे युवाओं का लक्ष्य रोजगार को 2024 के आम चुनावों का प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बनाना है, ताकि सरकार पर रोजगारपरक अर्थव्यवस्था के लिए नीतियों में बदलाव के लिए दबाव बनाया जा सके। अधिवेशन में यह मांग भी उठेगी कि सबके लिए रोजगार के लक्ष्य को हासिल करने के लिए संसाधनों की पर्याप्त व्यवस्था हेतु कॉरपोरेट्स पर संपत्तिकर व उत्तराधिकार-कर जैसे टैक्स लगाये जाएं, कॉरपोरेट टैक्स बढ़ाया जाए तथा कृषि आधारित व श्रम-सघन उद्योगों का जाल बिछाया जाय।

बेरोजगारी का संकट कितना गहरा हो गया है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि आर्थिक मोर्चे पर तमाम बड़-बोले दावों के बावजूद बेरोजगारी दर में लगातार वृद्धि हो रही है। इस वर्ष जनवरी में 7.14% , फरवरी में 7.45%, मार्च में 7.8%, अप्रैल में 8.11% पहुंच गई। बताया जा रहा है कि मार्च से अप्रैल में बढ़ोत्तरी का कारण लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट (LFPR) का मार्च के 39.77% से बढ़कर अप्रैल में 41.98% हो जाना है।

इससे समझा जा सकता है कि LFPR अगर वैश्विक स्तर 60% के आसपास होता तो यहां बेरोजगारी दर के आंकड़े किस भयानक स्तर पर होते। लेकिन यहां काम मिलने को लेकर नाउम्मीद बहुत बड़ी आबादी रोजगार बाजार में उतरती ही नहीं, विशेषकर महिलाएं। साफ है संकट की भयावहता बेरोजगारी दर के आंकड़ों से कई गुना अधिक गम्भीर है।

प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अशोक मोदी कहते हैं, “भारत में बेरोजगारी की भयावहता को बेरोजगारी दर की बजाय सरप्लस लेबर की अवधारणा द्वारा ज्यादा सटीक ढंग से समझा जा सकता है। दरअसल अधिकांश भारतीय बिना काम के रहना afford नहीं कर सकते। इसलिए एक ही आदमी के काम में कई लोग sharing arrangement में शामिल हो जाते हैं। (प्रायः एक extended फैमिली में), ताकि बेकार रहने से बेहतर है कुछ आय हो जाय। ऐसे लोगों की संख्या बहुत बड़ी है पर उनके काम का उत्पादक असर नगण्य है। उनको अगर श्रमशक्ति से हटा लिया जाय तब भी कुल आर्थिक उत्पादन पर कोई असर नहीं पड़ेगा। भारत में काम की उम्र की- 15 साल से अधिक की आबादी 1 अरब से ऊपर है। इनमें से 56 करोड़ श्रमशक्ति में शामिल हैं, जिसमें लगभग 10 करोड़ लोग सरप्लस हैं।”

आज देश के रोजगार बाजार के कुल श्रमिकों में मात्र 5% संगठित क्षेत्र में हैं जिन्हें स्तरीय वेतन, सामाजिक सुरक्षा और बेहतर working conditions हासिल हैं, शेष 95% श्रमिक असंगठित क्षेत्र में हैं जो इन सबसे वंचित हैं। असंगठित क्षेत्र में 50% लोग स्वरोजगार में, 25% दिहाड़ी मजदूर तथा मात्र 20% पगार वाले हैं। इसी में 44% किसानी में लगे लोग भी शामिल हैं।

समझा जा सकता है असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की यह विराट आबादी गरिमामय जीवन-निर्वाह हेतु जरूरी नियमित अच्छी आय और सामाजिक सुरक्षा से वंचित बेहद खराब working conditions में काम करने और कितना यातनादायी जीवन जीने को अभिशप्त है।

प्रोफेसर अशोक मोदी कहते हैं, “पिछले 4 साल में भारत की जीडीपी औसतन मात्र 3.5% वार्षिक की दर से बढ़ी है, जो भारत जैसे गरीब देश के लिए बेहद निराशाजनक है। आज़ादी के 75 साल बाद भी भारत अपने सबसे गरीब लोगों के रोजगार के लिए कृषि क्षेत्र पर बुरी तरह निर्भर है। देश की 45% आबादी कृषि क्षेत्र में लगी है जबकि उसका हिस्सा जीडीपी में मात्र 15% है।

कोविड के दौर की असामान्य परिस्थितियों में तेजी से उभरे भारत के चर्चित Unicorns की कहानी भी बुरे अंत की ओर बढ़ रही है। कड़ी वैश्विक मौद्रिक नीतियों के कारण इंवेस्टर फण्ड का टोटा पड़ता जा रहा है और unicorns के valuation में तेज गिरावट हो रही है। शिक्षा जगत के महाबली Byju का valuation मई 2022 के 22 अरब डॉलर के ऊंचे मुकाम से ढहकर 8.4 अरब डॉलर पहुंच गया है। Swiggy जनवरी 2022 के 10.7 अरब डॉलर से गिरकर 5.5 अरब डॉलर पर पहुंच गई है। नतीजतन भारत के स्टार्टअप्स ने पिछले साल 20 हजार कर्मचारियों की छंटनी किया।”

वे कहते हैं, भारत ने sophisticated tech industry जरूर विकसित की है। परंतु यह देश में व्याप्त भारी रोजगार संकट को हल करने में पूरी तरह विफल है।

दरअसल, देश में इस गहराते रोजगार संकट के मूल कारण स्ट्रक्चरल हैं। नव-उदारवादी नीतियों के “जॉबलेस ग्रोथ” मॉडल को मोदी ने अपनी धुर कॉरपोरेट परस्ती में नोटबन्दी और दोषपूर्ण GST तथा unplanned लॉक-डाउन जैसे सनक भरे कदमों और विनाशकारी नीतियों द्वारा भयावह स्तर पर पहुंचा दिया।

इस संकट के लिए कोविड की आड़ लेना जनता की आंख में धूल झोंकने की कोशिश है, सच्चाई यह है कि कोविड के पहले ही 2019 में बेरोजगारी 45 साल के सर्वोच्च मुकाम पर पहुंच गई थी।

भारी युवा आबादी वाला देश होने के डेमोग्राफिक डिविडेंड का तो भारत लाभ नहीं ही उठा सका, अब वह डेमॉग्राफिक डिजास्टर में तब्दील होता जा रहा है। विस्फोटक आयाम ग्रहण करते संकट से निकलने के लिए नफरती राजनीति ने अब उन बेरोजगार नौजवानों के हाथ में त्रिशूल और तलवार पकड़ा कर हमारे लोकतन्त्र तथा धर्मनिरपेक्ष सामाजिक ताने-बाने के लिए ही गम्भीर ख़तरा पैदा कर दिया है।

आज नौजवानों को इस खतरनाक राजनीति के खिलाफ खड़ा होना होगा जो उनके जीवन को तबाह कर रही है, साथ ही देश में लोकतन्त्र के ध्वंस पर आमादा है। इसके लिए देश के सभी छात्र-युवा संगठनों को आपसी तालमेल बनाते हुए एक मंच पर आना होगा। उम्मीद है कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में होने जा रहे ‘राष्ट्रीय युवा अधिवेशन’ से इस दिशा में बड़ी पहल होगी।

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।

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