Saturday, April 27, 2024

केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद से सियासत में छाए कुहासे की वजह

देश में 2024 आम चुनावों की औपचारिक घोषणा से पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे देश में, विशेषकर दक्षिण के राज्यों का तूफानी दौरा कर रहे थे। अपनी 400+ सीटों के दावे के लिए उन्होंने नई जमीन तैयार करने के लिए दिन-रात एक किया हुआ था। उत्तरी भारत और पश्चिमी भारत में भाजपा पहले ही 2019 में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुकी थी, लिहाजा दक्षिण ही वह आखिरी किला बचा है, जहां से अतिरिक्त सीटों को हासिल किया जा सकता है।

राहुल गांधी ने भी अपनी यात्रा का समापन मुंबई में कर लिया। इससे पहले मीडिया और विपक्षी दलों की ओर से भी बार-बार यही फीड किया जा रहा था कि पूरा देश चुनावी जोड़-गुणा में व्यस्त है, जबकि राहुल गांधी ऐन मौके पर अपना अलग ही राग अलापे हुए कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के चुनावी गणित को बर्बाद कर रहे हैं।

लेकिन पिछले कुछ दिनों से इन दोनों शीर्ष नेताओं की ओर से ऐसा कुछ भी खास प्रयास नहीं किया जा रहा है, जो साबित करता हो कि इनके द्वारा 2024 के नैरेटिव को अपने पक्ष में करने का जतन किया जा रहा है। पिछले एक सप्ताह से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड में चंदा देने और लेने वाली पार्टियों का मुद्दा और ईडी द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी का मुद्दा ही छाया हुआ है।

इलेक्टोरल बॉन्ड के मुद्दे से विपक्ष के हाथ में ऐसा खजाना लग गया है कि वो चाहे तो पूरे चुनाव की दिशा ही पलट सकता है, लेकिन ईडी के जरिये एक और राज्य के मुख्यमंत्री की गिरफ्तारी कराकर मोदी सरकार मीडिया की सुर्ख़ियों को बदल पाने में अभी तक कामयाब रही है। हालांकि, पिछले दो दिनों से कंगना रनौत को लेकर कांग्रेस नेता सुप्रिया श्रीनेत के सोशल मीडिया हैंडल से अमर्यादित टिप्पणी का मामला सुर्खियां बटोरे हुए है।

कुल मिलाकर ऐसा जान पड़ता है कि भाजपा के पास अचानक से मुद्दों का टोटा पड़ गया है। धारा 370, राम जन्मभूमि, अमृत काल, विश्वगुरु, 25 करोड़ भारतीयों को गरीबी रेखा से ऊपर ले जाने और 80 करोड़ लोगों को 5 किलो फ्री राशन जैसे मुद्दे धराशायी हो चुके हैं। भाजपा के सामने सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र ईडी ही बचा है, जो पिछले एक साल से बचे-खुचे विपक्षी खेमे को गिरफ्तार करने या उसके खौफ में विरोध में बुलंद आवाज निकालने से रोकने में सफल साबित हुआ है।

चुनावों की घोषणा के बाद से चुनाव आयोग के पास शासन की औपचारिक कमान आ चुकी है। लेकिन इसके बावजूद ईडी की कार्यवाही कम होने के बजाय तेज ही हुई है। लेकिन इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसले कार्यपालिका की उन्मुक्तता पर कहीं न कहीं अंकुश लगाते प्रतीत हो रहा है। मीडिया और सत्तापक्ष का नैरेटिव तो अभी भी तीसरी बार भाजपा के नेतृत्व में ही सरकार के गठन की बात दोहरा रहा है, लेकिन देश के विभिन्न राज्यों में भाजपा के उम्मीदवार ही चुनावी मैदान में उतरने से इंकार कर रहे हैं। गुजरात जैसे राज्य से ही एक दिन में दो-दो लोकसभा उम्मीदवारों ने चुनाव न लड़ने को लेकर ऐसे तर्क दिए, कि किसी के लिए भी उन तर्कों पर विश्वास करना कठिन है।

हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस के जिन 6 बागी विधायकों को विधानसभा अध्यक्ष ने बर्खास्त कर दिया था, वे सभी भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर उप-चुनाव में पार्टी के उम्मीदवार घोषित किये जा चुके हैं। इतनी बड़ी संख्या में भाजपा में दल-बदल कर टिकट पाने वाले लोगों से दशकों से पार्टी की सेवा में जुटे लोगों में असंतोष लाजिमी था। लिहाजा वे दल-बल सहित कांग्रेस की शरण में जा रहे हैं। 2014 और 2019 या कहें 2023 तक यह सब नहीं हो रहा था। सभी दलों से नेताओं की शरणस्थली भाजपा ही बनी हुई थी। लेकिन 2024 आम चुनाव की घोषणा के बाद ऐसा क्या हुआ, जो इतनी बड़ी तादाद में लोग भाजपा जैसी दुनिया की सबसे मजबूत और अजेय पार्टी से नाता तोड़ रहे हैं?

पार्टी में सत्ता का अधिकाधिक केन्द्रीयकरण

इसकी एकमात्र सबसे प्रमुख वजह यही नजर आ रही है। 2014 में दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद ही नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार भाजपा सांसदों के साथ पहली बैठक की थी, उसकी तस्वीर आज भी जेहन में याद है। विपक्ष और देश को अपनी मुट्ठी में करने से पहले प्रधानमंत्री ने अपने सांसदों को अपने पीछे लामबंद करने की जो मुहिम शुरू की थी, उसने भाजपा में निरंकुशता को बेलगाम बढ़ने का मौका दिया। बाद के दौर में वरिष्ठ नेताओं को ‘सलाहकार मंडल’ और बाकियों के लिए जीत की एकमात्र गारंटी ‘मोदी की तस्वीर’ ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी।

आज स्थिति यह है कि पार्टी हो या सरकार, उसके किसी भी विज्ञापन या योजनाओं के शुभारंभ को पीएम नरेंद्र मोदी की तस्वीर के बिना जारी किये जाने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। पिछले 10 वर्षों का लुब्बो-लुआब यह है कि आज देश में इक्का-दुक्का सांसदों को छोड़ दें तो कोई भी ‘मोदी आशीर्वाद’ के बगैर अपनी जीत की गारंटी नहीं कर सकता। मोदी की तर्ज पर सिर्फ उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ही इसकी नकल कर रहे हैं, जो पिछले कुछ वर्षों से केंद्र के साथ लुकाछिपी का खेल खेल रहे हैं।

राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के तीनों क्षत्रपों से सिंहासन खाली करा लिया गया है। गुजरात में तो मुख्यमंत्री सहित पूरे काबिना तक से इस्तीफ़ा लेकर पूरा मंत्रिमंडल तक बदल डाला गया। देश में आज भी अधिकांश लोग गुजरात के मुख्यमंत्री का नाम तक नहीं जानते। हरियाणा के 9 साल तक मुख्यमंत्री रह चुके मनोहरलाल खट्टर को एक दिन पहले तक खबर ही नहीं थी कि रातोंरात उनसे उनका पद छीन लिया जायेगा। फिलहाल वे और मध्यप्रदेश के 17 वर्षों तक मुख्यमंत्री रह चुके शिवराज सिंह को लोकसभा का उम्मीदवार बनाया गया है। इसी तरह उमा भारती को लेकर अखबारों में पूछा जा रहा है कि उन्हें स्टार प्रचारकों की सूची तक में जगह क्यों नहीं मिली? वे आजकल कहां हैं?

इसके उलट, कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों से टूटकर आने वाले नेताओं को भाजपा में तत्काल शामिल कर राज्य सभा की सीट सौप दी गई। लोकसभा का उम्मीदवार बनाया गया और आज तक यह सिलसिला थमा नहीं है। अभी तक पार्टी कार्यकर्ताओं को भी शायद लग रहा था कि विपक्ष को निरंतर कमजोर कर भाजपा -आरएसएस को स्थायित्व प्रदान करने की कोशिश है, लेकिन पिछले वर्ष हिंडनबर्ग की रिपोर्ट और अब इलेक्टोरल बॉन्ड्स के खुलासे में लाखों करोड़ रुपये की बन्दरबांट ने उन्हें भी सोचने को मजबूर कर दिया है कि हो न हो इस सबका खामियाजा पहले देश और देश की बहुसंख्यक जनता को भुगतना होगा, लेकिन अंत में यह सारी गाज पार्टी और आरएसएस के माथे पर गिरने वाली है।

इलेक्टोरल बॉन्ड्स ने भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं

इलेक्टोरल बॉन्ड्स का खुलासा होते ही ईडी द्वारा अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी ने एक बार फिर इसकी टाइमिंग को लेकर सवाल खड़े कर दिए हैं। अब देश में भी अधिकांश लोग जान गए हैं कि मोदी सरकार में नैरेटिव को बदलने के लिए कैसे समय-समय पर ऐसे हथकंडों को अपनाया जाता है।

इलेक्टोरल बॉन्ड्स के खुलासे पर अभी देश में चर्चा बाकी है। अभी तक ये तथ्य कुछ अखबारनवीसों और राजनीतिक दलों के बीच ही सीमित है। अभी तक लोगों को चंदे के धंधे में ईडी, सीबीआई जैसी संस्थाओं की भूमिका का अंदाजा नहीं है। अभी भी 90% लोगों को नहीं पता कि दिल्ली में शराब बिक्री में जिस कथित 100 करोड़ रुपये के आरोप के आधार पर आप पार्टी के तमाम नेताओं को ईडी के द्वारा गिरफ्तार किया गया है, उसके मुख्य किरदार के बयानों को ही ईडी ने अपना हथियार बना रखा है। इस कथित रिश्वत पर अभी भी अदालत में जिरह होनी बाकी है। लेकिन एक तथ्य इलेक्टोरल बाॉन्ड में अकाट्य सत्य के रूप में चीख-चीखकर अपनी गवाही खुद दे रहा है, उसे पूरा देश अनदेखी कर रहा है। वह है इसी आरोपी से सरकारी गवाह बन चुके व्यक्ति द्वारा अपनी गिरफ्तारी के तत्काल बाद भाजपा को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा देने और बाद में कुल मिलाकर 55 करोड़ रुपये की भेंट चढ़ाने के सुबूत।

सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णायक रुख ने एसबीआई सहित सरकार के पक्ष में खड़े होने वाले तमाम क़ानूनी विशेषज्ञों के मुंह पर ताला जड़ दिया। लेकिन ईडी की मदद से पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और अब दिल्ली के मुख्यमंत्री को हिरासत में लेने की खबर ने पूरे विश्व का ध्यान भारतीय लोकतंत्र की दशा-दिशा पर सोचने को मजबूर कर दिया है।

यही वजह है कि जर्मनी की सरकार ने 22 मार्च को एक प्रेस कांफ्रेंस कर भारत में अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर चिंता व्यक्त करते हुए उम्मीद जताई थी कि भारत में उचित न्यायिक प्रकिया का इस्तेमाल किया जायेगा और उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए उचित मौका दिया जायेगा। जर्मन प्रवक्ता ने भारत में चल रहे घटनाक्रम पर निगाह रखने की बात भी कही थी, जिस पर भारतीय विदेश विभाग की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया देखने को मिली।

भारत ने जर्मन दूतावास के उप प्रमुख को तलब कर कड़ा विरोध दर्ज करते हुए इसे भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बताया था। विदेश मंत्रालय के बयान में ऐसी टिप्पणियों को देश की न्यायिक प्रक्रिया में दखल और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करने वाला बताया था।

जर्मनी के बाद अमेरिका ने भी भारतीय घटनाक्रम पर चिंता व्यक्त की है

जर्मनी के बाद कल अमेरिका के भी विदेशी मामलों के प्रवक्ता ने अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर टिप्पणी कर सनसनी मचा दी। रायटर्स के साथ अपनी बातचीत में अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता ने कहा, ‘हम मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए निष्पक्ष, पारदर्शी एवं समयबद्ध क़ानूनी प्रकिया की उम्मीद करते हैं।’ जर्मनी के बाद अमेरिका से भी ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद भारत सरकार ने नहीं की होगी। यही कारण है कि आज विदेश मंत्रालय ने दिल्ली में अमेरिकी मिशन की कार्यवाहक उप प्रमुख ग्लोरिया बेर्बेना को तलब किया और करीब 40 मिनट तक उनके साथ बातचीत कर भारत सरकार का पक्ष पेश किया।

अमेरिकी प्रवक्ता की टिप्पणी के 24 घंटे बाद जाकर यह कार्रवाई की गई। इसके बाद भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से इस बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। पत्र में कहा गया है कि अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता के द्वारा भारत में कुछ क़ानूनी प्रक्रियाओं को लेकर की गई टिप्पणी पर कहा है कि, “हम इस टिप्पणी पर अपना कड़ा प्रतिवाद व्यक्त करते हैं। कूटनीति में उम्मीद की जाती है कि राष्ट्र दूसरों की सार्वभौमिकता और आंतरिक मामलों का सम्मान करेंगे। साथी लोकतांत्रिक देशों के मामले में तो यह जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। इसके अभाव में अस्वस्थ्यकर स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं। भारत का कानून, स्वतंत्र न्यायपालिका पर आधारित है, जो निष्पक्ष और समयबद्ध फैसला देने के लिए प्रतिबद्ध है। इस पर संदेह जताना अनावश्यक है।”

भले ही भारत सरकार की ओर से जर्मनी के बाद अब अमेरिका के सामने भी कड़ा प्रतिवाद जाहिर कर भारत के आंतरिक मामलों पर खामोश रहने की सलाह दी गई हो, लेकिन यह बात तो तय है कि भाजपा सहित शासन की मशीनरी से जुड़े लोगों तक में यह बात घर करती जा रही है कि मोदी मैजिक कहीं न कहीं तेजी से दरक रहा है। मोदी मैजिक के तेजी से खात्मे को ईडी की कार्रवाई से थामने की यह कोशिश कहीं बड़े भूचाल का कारण न बन जाये, भारत के प्रभुवर्ग को यह कत्तई मंजूर नहीं होगा। चाहे इसके लिए अपने सबसे चहेते राजनीतिक मोहरे का ही बलिदान क्यों न करना पड़े। लेकिन क्या ठीक-ठीक ऐसा होने जा रहा है, यह फिलहाल दावे के साथ नहीं कहा जा सकता।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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