मुबारक हो दिल्ली को संघ पोषित गालीबाज मुख्यमंत्री!

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गालीबाज मुख्यमंत्री! जी हां, दिल्ली और वह भी देश की राजधानी को गालीबाज मुख्यमंत्री मिला है। संघ-बीजेपी के 100 सालों के प्रयोग के बाद इस नये चाल, चरित्र और चेहरे की जो खोज की गयी है उसका दूसरा कोई मुकाबला नहीं कर सकता है। न तो रणवीर इलाहाबादिया और न ही दूसरा कोई गालीबाज। दिल्ली में तो जैसे बीजेपी नेताओं के बीच होड़ मच गयी थी कि कौन कितना गाली दे सकता है। और इस कड़ी में कौन कितना नीचे उतर सकता था। अनायास नहीं चुनाव के दौरान रमेश विधूड़ी का मुंह गालियों का पर्याय हो गया था। ये सज्जन रात को रिसर्च करके अगली सुबह पहले से भी बड़ी और भद्दी गाली देने के लिए तैयार रहते थे। 

चुनाव हार गए वरना शायद वही सूबे के मुख्यमंत्री होते। क्योंकि बताया जा रहा है कि बीजेपी नेताओं को यह संदेश मिल गया था कि गाली देने और अपशब्दों के मामले में जो जितना नीचे उतर सकता है पार्टी से लेकर सरकार के पदों पर उसको उतनी ही तरजीह दी जाएगी। इस मामले में प्रवेश वर्मा से लेकर कपिल मिश्रा तक लंबी कतार है। लगता है जब इन नेताओं के बयानों की तलाश शुरू हुई तो उसमें रेखा गुप्ता सबसे अव्वल पायी गयीं। वैसे भी वह संघ की नर्सरी एबीवीपी की पैदाइश हैं। उनको छोटे से ही संस्थाबद्ध तरीके से प्रशिक्षण दिया गया है। लोग कह रहे हैं कि रेखा गुप्ता कई मामलों में असम के मुख्यमंत्री हेमंत विस्व सर्मा का भी कान काट लेंगी।

कहते हैं पूत के पांव पालने में ही दिखते हैं। आइये अब उनकी कुछ गालियों की बानगियां देखते हैं। रेखा गुप्ता के ट्वीट, जबान और तमाम मसलों पर उनकी जो सोच सामने आयी है वह दिल्ली और उसके लोगों को डराने वाली है। राजधानी दिल्ली जो सबको रास्ता दिखाती है। देश का सबसे सभ्य तबका जहां रहता है। अंतरराष्ट्रीय जगत के तमाम राजनयिक से लेकर संस्थाओं के रिहाइशी और आधिकारिक दफ्तर जहां हैं। उस सूबे की मुख्यमंत्री की भाषा किसी गली छाप अवारा गुंडे से भी बदतर है। यह बात सही है कि विरोधियों पर लोग हमलावर होते हैं। और यह किसी भी पार्टी और नेता का अधिकार होता है।

लेकिन उससे यह अपेक्षा की जाती है कि उसकी भाषा संयत, शालीन और मर्यादित होगी। लेकिन रेखा गुप्ता इस न्यूनतम शर्त का भी पालन नहीं करती हैं। अरविंद केजरीवाल के लिए लिखे गए अपने एक ट्वीट में वह कहती हैं कि “अरविंद केजरीवाल दिल्ली तेरे बाप की नहीं है जो मुख्यमंत्री बनकर बकवास कर रहा है। दिल्ली की जनता ही तुझे तेरी मां की कोख में वापिस कर देगी। कमीना कहीं का”। अब ये भाषा किस रूप में रणवीर इलाहाबादिया से कम है। वह भी तो मां-बाप और उनके वैवाहिक रिश्तों को लेकर अश्लील नजरिये से बयान दिया था। यहां तो सीधे मां और बेटे के रिश्ते को ही शर्मसार कर दिया गया है। और यह कोई अकेली घटना नहीं है। 

उन्होंने केजरीवाल पर इससे भी ज्यादा अश्लील तरीके से हमले किये हैं। एक ट्वीट में वह कहती हैं कि “केजरीवाल अपना जन्मदिन नहीं मनाता उन्होंने अपनी मां से घटना का वीडियो मांगा था जिसे वो नहीं दे सकीं”। अब इससे बड़ी अश्लील और घृणित बात क्या हो सकती है। और यह शब्द कोई और नहीं बल्कि एक नेता और वह भी सूबे के एक मुख्यमंत्री के खिलाफ वह इस्तेमाल कर रही हैं। जिसमें न तो कोई मर्यादा है न ही शालीनता। खास कर एक औरत से तो शालीनता की उम्मीद की ही जा सकती है। मर्दों के प्रति न सही लेकिन एक महिला के प्रति तो उसमें यह भाव होना ही चाहिए। लेकिन यहां तो केवल औरत नहीं, मां जो देश और दुनिया में सबसे ज्यादा पूज्यनीय होती है, उसके खिलाफ ही उन्होंने अश्लीलता की सारी हदें पार कर दीं।

अगर इन्हीं बयानों को सुप्रीम कोर्ट संज्ञान में ले लेता तो उनके शपथ ग्रहण पर रोक लगाने का उसके पास पूरा आधार था। और इतना ही नहीं इलाहाबादिया की तरह इनको भी कुछ दिनों तक न केवल सोशल मीडिया बल्कि दूसरे प्लेटफार्मों पर भी किसी तरह का कुछ लिखने और बोलने पर पाबंदी लगा सकता था। और केस तो चलता ही रहता।

कहने को तो यह दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ की अध्यक्ष रही हैं। लेकिन उन्होंने वहां क्या पढ़ा और क्या सीखा वह सब कुछ सवालों के घेरे में है। जेएनयू  छात्र आंदोलन के दौर का उनका एक वीडियो सामने आया है जिसमें वह न केवल फीस और खर्चे बढ़ाने की वकालत करती दिखती हैं बल्कि विश्वविद्यालय को हमेशा हमेशा के लिए बंद कराने की बात करती दिखती हैं। अब इनसे कोई पूछे कि आखिर किस तरह का आप विश्वविद्यालय चाहती हैं।

या फिर यह चाहती हैं कि शिक्षण संस्थाओं की फीस और चार्जेज इतने बढ़ा दिए जाएं कि गरीबों के बच्चे पढ़ ही न सकें? पता चला है कि इनके बच्चे आस्ट्रेलिया में पढ़ रहे हैं। इस तथ्य से ही पता चलता है कि इनको इन विश्वविद्यालयों की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि बीजेपी-संघ के इन नेताओं को शुद्ध रूप से जाहिल, अनपढ़ और मूर्ख लोग चाहिए जो भक्त बनकर इनके पीछे लाठी और तलवार लेकर चलें और इनके इशारे पर हमेशा दंगा कराने के लिए तैयार रहें। अनायास नहीं यूपी में 27 हजार स्कूलों को बंद कर दिया गया। और देश के शिक्षा के बजट में भीषण कटौती कर दी गयी। बीजेपी के नेता चाहते हैं कि उनके बेटे विदेश पढ़ें और गरीबों के बच्चे तलवार और कटार लेकर दंगा करें और फिर जेल की सींखचों के पीछे जाएं।

ये कितनी राष्ट्रवादी हैं और कितनी सभ्य और सुसंस्कृति उसका परिचय देता हुआ एक दूसरा वीडियो वायरल है। जिसमें यह पार्षद रहते निगम में सदन की कार्यवाही के दौरान उसका पोडियम ही तोड़ डालती हैं। अब कोई पूछ सकता है कि ये किस संसदीय परंपरा की निशानी है। यह बीजेपी के किस चाल-चेहरा और चरित्र के नारे में फिट बैठता है? इस घटना में आप न केवल देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचा रही हैं बल्कि एक ऐसा हिंसक रूप दिखा रही हैं जिससे किसी सभ्य समाज और उसकी सड़कों और गलियों तक में रहने वाले लोग परहेज करते हैं। 

जिस कुर्सी पर कभी ब्रह्म प्रकाश जैसा नेता बैठा हो। मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा जैसे लोगों ने जिसकी शोभा बढ़ायी हो। शीला दीक्षित और सुषमा स्वराज जैसी महिलाओं ने जिसकी इज्जत बख्शी हो। उस पर अब रेखा गुप्ता को बैठाया गया है। यह न केवल उस कुर्सी का अपमान है बल्कि देश की राजधानी होने के नाते यह अपने किस्म का अपराध है। क्योंकि पूरा देश यह उम्मीद करता है कि दिल्ली की कुर्सी पर ऐसा व्यक्ति बैठाया जाए जो पूरे देश के लिए मिसाल का काम कर सके। दूसरे तरीके से लगता है कि बीजेपी ने अपनी नई जरूरत के लिहाज से ऐसा किया है। उसे देश में अब इसी तरह के मुख्यमंत्री चाहिए होंगे। अनायास नहीं हेमंत विस्व सर्मा इसी के लिए विख्यात हैं। मध्य प्रदेश के मोहन यादव कहीं भी लाठी भांजते मिल जाएंगे। उन्हें न तो अपने मुख्यमंत्री पद की मर्यादा का ख्याल होता है। और न ही उसकी गरिमा का। योगी साहब का मुंह तो जैसे नफरती और घृणित बयानों के लिए ही बना है। 

कल ही उन्होंने एक संवैधानिक पद पर रहते हुए एक समुदाय के प्रति जिस घृणा के साथ बयानबाजी की है उसकी पूरे देश में निंदा हो रही है। आने वाले दिनों में अगर सदन के भीतर शुद्ध रूप से गाली-गलौच और फिर मारपीट की शुरुआत न हो जाए तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। संघ की शाखाओं में आखिर किस दिन के लिए लाठियां भांजना सिखाया गया है। एक तरफ उसके निशाने पर अल्पसंख्यक होंगे तो दूसरी तरफ विपक्षी नेता जो सदन से लेकर सड़क पर उनके धतकर्मों का विरोध कर रहे होंगे।

बहरहाल रेखा गुप्ता के मुख्यमंत्री बनाए जाने के पीछ जितने भी जाति, समुदाय और वोट के गुणा और गणित लगाए जा रहे हों लेकिन इन सबसे ऊपर एक बात दिन के आईने की तरह साफ है कि केंद्र सरकार दिल्ली को सीधे गृहमंत्रालय से चलाना चाहती थी। और इस लिहाज से उसे किसी तरह के अनुभवी या फिर प्रशिक्षित मुख्यमंत्री की जरूरत नहीं थी। उसे एक रबर स्टैंप चाहिए था। जो रेखा गुप्ता के रूप में मिल गया है। वरना उन्हें भला क्यों मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए। उनके पास न तो कोई पुराना प्रशासनिक अनुभव है। और न ही उन्होंने ऐसा कोई पद हासिल किया है जिसमें बड़े स्तर पर लोगों को डील करना पड़ा हो। 

कहा जा रहा है कि विधायक दल की बैठक में उनका चयन हुआ है। तब कोई पूछ सकता है कि तमाम उपस्थित विधायकों को रेखा गुप्ता की किस कार्यक्षमता के बारे में पता था। और कैसे उनकी प्रतिभा को उन्होंने पहचाना। इसलिए बीजेपी-संघ में पर्ची की जो परंपरा है यहां भी उसी का पालन किया गया। और इस तरह से मोदी-शाह के दिए नाम पर सभी विधायकों ने अपनी मुहर लगा दी। न तो किसी ने चू किया और न ही चपड़ और न कोई सवाल पूछा गया। और रही संघ की बात तो वह इसी बात से गदगद था कि उसकी एक स्वयंसेविका को यह पद दिया गया है।

बहरहाल दिल्लीवासियों को उनकी नई मुख्यमंत्री मुबारक। उम्मीद की जानी चाहिए कि वह ऐसा कुछ नहीं करेंगी जिससे दिल्ली को दुनिया और देश के सामने शर्मसार होना पड़े।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)

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