मैंने गदर को जेएनयू के गंगा ढाबा के सामने गाते हुए पहली बार सुना था। संभवतः 2003 की बात है। पैरों में घुंघरू बांधे, ऊपर तक उठी धोती, कंधे पर काला कंबल, एक लाल तौलिया जैसा गले में लपेटे हुए और हाथ में एक लठ्ठ और लाल रंग की ध्वजा लिए हुए गदर मंच पर आये। डफली और घुंघरू की उठती लय भरी आवाज में एक हुंकारती आह्वान करती आवाज उठनी शुरू हुई। यह गदर की आवाज थीः ‘रेला रे, रेला रे, रेला रे, ….।’ यह मेरे लिए एक नये तरह का सांस्कृतिक अनुभव था। इसके पहले हमने क्रांतिकारी गीत एक साथ सुर मिलाकर गाने के अभ्यास वाली प्रस्तुतियों को सुना था, या खुद भी इसे ऐसे ही प्रस्तुत किया था। गदर की प्रस्तुति में कुछ-कुछ पूरब के बिरहा की प्रस्तुति का अंश दिख रहा था।
खासकर जब बिरहा गायक उठती आवाज के साथ झूमते हुए गाता है। लेकिन, बिरहा आमतौर पर मंच पर प्रस्तुति के समय में एकल होता है, अन्य गवैये बैठे हुए साथ देते हैं और गीत करुण विलाप में बदलता चला जाता है। मैं गदर और उनके साथ के कलाकारों की प्रस्तुति देख रहा था। उनके गीत, प्रस्तुति का ढंग और आवाज में जो आह्वान था, वह दिलों को छू जाने वाला था, प्रेरणा से भरा हुआ था। 2004 में मुंबई प्रतिरोध कार्यक्रम के दौरान उन्हें एक बार गाते हुए सुना। साम्राज्यवाद के खिलाफ आयोजित कार्यक्रम के सांस्कृतिक प्रस्तुतियों का वह नेतृत्व कर रहे थे। वह नाटक से लेकर गीत नाटिका और गीतों की प्रस्तुतियों में व्यस्त थे।
मेरी गदर के प्रति उत्सुकता बढ़ गई थी। गदर जैसी प्रस्तुति देने वाले कई कलाकार सामने आ रहे थे। मेरे दिल में यह सवाल बना रहा कि गदर की अपनी नायाब प्रस्तुति के पीछे की ताकत क्या है। निश्चत ही गदर अपने आप में एक ताकत थे। क्रांतिकारी कवि वरवर राव के शब्दों में, ‘गदर ने जनता के क्रांतिकारी गीतों की विरासत को अंगीकार किया था, उसका अभिन्न हिस्सा बन गये और उनकी भाषा और पहनावे को अपना हिस्सा बना लिया।’ मैं गदर की प्रस्तुतियों को समझने के क्रम में कवि वरवर राव से बातचीत कर रहा था।

उन्होंने एक वाकया सुनाया। उन्होंने बताया कि एक बार यह बात चल रही थी कि गदर खुद या गदर जैसा बन गया है, में कौन अधिक प्रमुख हिस्सा है। गदर ने खुद ही जब गीत प्रस्तुतियों वाला ड्रेस की जगह पैंट-शर्ट पहनकर सामने आये तब लोगों पर वैसा प्रभाव नहीं दिख रहा था, जैसा वह प्रस्तुतियों वाले ड्रेस में होने के दौरान होता है। और, यह सब एक दिन में नहीं हुआ था। यह एक अकेले में धारा के मूर्तिमान हो उठने वाली परिघटना भी नहीं थी। यह एक विरासत थी जो गदर में मूर्त हो रही थी।
भारत में आंध्र-प्रदेश और तेलंगाना ऐसा क्षेत्र है जहां कम्युनिस्ट आंदोलन अनवरत धारा की तरह बनी हुई है। इसमें सांस्कृतिक आंदोलन की मजबूत धारा भी जुड़ी हुई आगे बढ़ती आई है। खासकर, किसान और खेतिहर मजदूरों का आंदोलन ने दुनिया के स्तर पर एक मानक बनाया है। आंध्र-महासभा का बनना और क्रांति की नई प्रस्तावना पास करना सिर्फ कागजी कार्रवाई नहीं थी। इसने तेलंगाना राष्ट्रीयता और कम्युनिस्ट आंदोलन को जनवादी राज्य में बदलने की कार्रवाई में बदल दिया।
तेलंगाना आंदोलन को लेकर खूब बहसें हुई हैं और कम्युनिस्ट पार्टी टूटते हुए नक्सलबाड़ी तक आई। इस दौरान, वरवर राव के शब्दों में, ‘लोगों ने फौज, अर्द्धसैनिक बल और पुलिस के साथ-साथ जमींदारों का जुल्म देखा।’ यही वह दौर भी था जब वरवर के प्रथम कवि गुरू ने सिखायाः ‘जैसा जो है, उसे वैसा ही कहो’। एक ऐसा समय जिसने श्रीश्री जैसे कवि के व्यक्तित्व को उसकी कविता ने बदल दिया। एक राष्ट्रीय कवि जनकवि में बदल गया और विप्लव रचियतालु संघम का हिस्सा बन गया। यह रूपांतरण अकेले श्री श्री जैसे कवि की नहीं थी। ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया’ से जुड़े वे कार्यकर्ता जो गांव में रह गये थे, वे जनता से जुड़े रहे और अपने बच्चों को अपनी विरासत सौंपते रहे।
1970-80 के दशक में एक बार फिर युवा छात्रों की सांस्कृतिक टोलियां गांवों में गई। पी. शंकर जैसे शिक्षित युवा आदिवासियों के बीच ढपली लेकर गीत गाते हुए एक नई रचना की जमीन बना रहे थे। यह आसान नहीं था। पी. शंकर को गांव में गोली मार दी गई। तब वे सिर्फ 23 साल के थे। 1980 की वह जमीन थी जिसमें गांव और संघर्ष की विरासत थी, राजनीतिक चेतना और निर्णय था, गोलबंद होने का आह्वान था, दमन था और उसके खिलाफ प्रतिरोध की चेतना थी; इस सबको जनता के जनवादी स्वप्न के साथ जोड़ देने और जमीन पर उतार लेने की आकांक्षा थी। गदर इस आकांक्षा का लयात्मक स्वर और आह्वान बनकर उभरे।
गदर का जन्म 1949 में आंध्र-प्रदेश के मेडक जिले के तुरपान में हुआ था। उनका मूल नाम गुम्मादि विठ्ठल राव था। यह गांव भी देश के उन हजारों हजार गांवों की तरह था, जिसमें भेदभाव और विभाजन एक गुण की तरह है। खासकर, दलित समुदाय जिसे हिंदू समाज का हिस्सा तो माना जाता है लेकिन धार्मिक अधिकार के नाम पर या तो दिखावा है या कोई अधिकार नहीं है। गदर के गांव का भी यही हाल था। मंदिर का पुजारी उन्हें मंदिर में घुसने नहीं देता था।

गदर के पिता ने अपना शिवालय बनाने का निर्णय लिया। यह धार्मिक चेतना एक सांस्कृतिक चेतना भी थी। दक्षिण में इस तरह के धार्मिक और सांस्कृतिक आंदोलन की बेहद मजबूत जमीन रही है। गदर उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए हैदराबाद आ गये। उन्हें इंजीनियरिंग की पढ़ाई में दाखिला मिला था। जिस समय वह हैदराबाद में थे, उस समय क्रांतिकारी आंदोलन जमीन पकड़ रहा था। गांव चलो अभियान का दौर शुरू हो रहा था। विप्लव रचियतालु संघम की स्थापना हो चुकी थी और साहित्य को लेकर तीखी बहसें चल रही थीं। 1980 में गदर ने क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन का रास्ता पकड़ा। उनके सामने सांस्कृतिक बदलाव वाले आंदोलनों के कई अनुभव सामने थे। उन्होंने सांस्कृतिक मोर्चे का रास्ता पकड़ा। वह पी. शंकर की तरह हाथ में डफली लेकर गये, लेकिन उन्होंने इसे एक जनता के साथ नये रिश्ते में ढालते हुए सांस्कृतिक आंदोलन का एक नया ही आयाम दे दिया।
जब जनता के कदम तेज हों, तब बहुत तेजी से वर्तमान इतिहास में बदलता है। और, जब धीमे हों तब लगता है सब कुछ ठहर गया है। 1980 के दशक में गदर के जीवन का अर्थ ही था गीत। जन्म पर गीत, मौत पर गीत, धर्म में गीत, खेत में गीत, लोहार की धौंकनी और निहाई पर गीत, प्यार में गीत और उसकी टूट पर गीत, …। उन्हीं के शब्दों में, श्रम है तो गीत है। श्रम में लय है। जिसे काम नहीं आता है वह काम बिगाड़ देगा। श्रम संवरता है तो लय संवरता है, गाना संवरता है।
जनता अपने दैनंदिन काम से गानों को संवारती है।’ यह वह बिंदु जहां से गदर गीत को समझते हैं। 1980 के दशक में जब खेतों में दलितों और मजदूरों की जान ली जा रही थी, उनके निवाले छिने जा रहे थे, जमींदारों का आतंक गांव-गांव पसरा हुआ था, गदर ने उन श्रमिकों के लय को पकड़ा, बंदूकों के सामने चलते रहो रे भईया/ गोलियों की माला पहन लो रहे भईया/ अगर तुमने सर झुकाया तो/ वे सर काट लेंगे/ यदि पकड़ छोड़ दोगे तो/ जान निकाल लेंगे/ जाल में फंस बाघ के शिशु हो/ छोड़ने का भ्रम छोड़ मेरे भईया/ आंखों को तरेर कर लाल करते हुए/ आगे की ओर चलते रहो भईया। (असीमित गान खानः गदर, आमुख-अंक 46)। यह करमचेदु से गुंटूर जिले में मारे जा रहे दलित समुदाय के लोगों की वह पृष्ठभूमि थी, जिसमें गदर लिख रहे थे और मौत को ललकार रहे थे। निडर होकर बंदूकों के सामने खड़े होने का साहस देने वाला कवि जनता की धड़कनों के सुर को पकड़ चुका था और वह गायक बन चुका था।
1985 में उनका करमचेदु में दलित समुदाय की हुई हत्या के खिलाफ लिखा गया गीत आग की तरह फैल गया थाः ‘हम दलित बाघ हैं/ हम लड़ेंगे और/ करमचेदु के जमींदारों के खिलाफ डटेंगे’। वह ललकारते हुए गा रहे थेः ‘यह मेहनत किसका/ यह बीज किसका/ आसमान के नीचे/ पसीना टप-टप गिरता है/ वह किसका है।’ वह जनता को गान-खान कहते थे। वे जनता के गीतों को वापस जनता के पास ले जाते थे। इसलिए नहीं कि यह उनकी ही थाती है। इसलिए कि यह उनकी आवाज थी जो बदलाव की मांग कर रही थी। गदर इस मांग को एक नये सिरे सजा कर उस आवाज को एक समूह की आवाज में बदल देते थे, एकजुटता के आह्वान में एक ऐसी लय बना लाते थे जिसमें पैर थिरक उठते थे और जज्बा मजबूत होने लगता था। यह भविष्य के स्वप्न में ढलने लगता था।
1997 में उन पर जानलेवा हमला किया गया। पांच गोलियां उन्हें लगीं। वे बच गये। लेकिन, कुछ गोलियां शरीर में रह गईं। खासकर, रीढ़ के पास में लगी गोली को निकाला नहीं जा सका। इन गोलियां का असर बना रहा और उन्हें सामान्य जीवन जीने में तकलीफ का एक कारण बन गया। जिन ‘अनजान’ हाथों ने गोलियां चलाई थीं, वे उतनी अनजान नहीं थीं। उन्होंने अपना नाम ग्रीन टाईगर बताया था। इस तरह के नामों से ऐसी हत्याएं आंध्र-प्रदेश में हो रही थीं। गदर ने इन हालातों में तेलगांना राज्य की मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया।
उन्होंने तेलंगाना को मां कहते हुए गीत लिखा और उस पर प्रस्तुतियां दीं। यह एक तरह का आंध्र-महासभा जैसी गोलबंदी में बदला लेकिन उसी रूप में आगे नहीं बढ़ सका। तेलंगाना राज्य तो बना लेकिन राज्य की बागडोर इसकी नींव रखने वालों के हाथ में नहीं थी। 2010 तक वह क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन से दूर होने लगे थे। 2017 में जिस येदाद्री मंदिर के पुजारी ने उन्हें अपना आशीर्वाद देने और पूजा करने के लिए आमंत्रित करने के लिए बुलाया। गदर वहां गये और आशिर्वाद लिया।
वह अंबेडकरवादी संविधानवाद की तरफ बढ़ते गये। उन्होंने एक से अधिक पार्टी और संगठन बनाये। लेकिन, वह जो चाह रहे थे उन्हें वह नहीं मिल पा रहा था। कांग्रेस द्वारा आयोजित भारत जोड़ो यात्रा में वह राहुल गांधी से मिले। राहुल गांधी के साथ उनके फोटो की काफी चर्चा रही। और, उनके जाने के बाद भी हो रही है। इस चर्चा के पीछे का कारण साफ है कि गदर सिर्फ एक नाम नहीं है। यह बात राहुल गांधी को भी अच्छी तरह पता है। लेकिन, गदर को पता था उनके पीछे जो विरासत है, जो जनता है, …काफी पीछे छूट चुकी है।
गदर बेहद गंभीर रूप से बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हुए थे। शायद उन्हें इसकी गंभीरता का अहसास था। उन्होंने इस दुनिया से जाने के चार दिन पहले एक पत्र लिखा था। 6 अगस्त, 2023 को टाइम्स आफ इंडिया के डिजिटल पेज पर यह छपा है। इसे हिंदी में पेश कर रहा हूंः ‘मेरा नाम गुम्मादि विठ्ठल है। गदर मेरे गीतों का नाम है। मेरा जीवन न्याय के लिए निरंतर लड़ते हुए बीता। मैं 76 साल का हो गया हूं। मेरी रीढ़ में गोली को फंसे हुए 25 साल गुजर गये। मैंने हाल ही में जनता की पदयात्रा मार्च में शामिल हुआ। इसमें नारा था ‘हमारी जमीन अपनी हो’। मेरा नाम जनता की धड़कन है।
मेरा दिल धड़कना बंद नहीं करेगा। लेकिन, कुछ कारणों से दिल को तकलीफ होती है। मैं हाल ही में अपोलो स्पेक्ट्रा हाॅस्पिटल, श्यामकरण रोड, आमीरपेट में भर्ती हुआ। कुछ चोट थी। मैं 20 जुलाई से आज तक कई तरह के टेस्ट और उपचार से गुजरा। दिल के विशेषज्ञ मेरे उपचार में लगे हुए हैं। मैं जनता को साक्षी बनाकर वादा कर रहा हूं मैं पूरी तरह से स्वस्थ होकर आपके बीच आऊंगा, सांस्कृतिक आंदोलन को एक बार फिर से शुरू करूंगा और जनता के ऋण उतारूंगा।’
गदर वापसी नहीं कर सके। बहुत देर हो चुकी थी। वह अभी अलविदा नहीं कहना चाहते थे। वह एक बार गीतों को अपने भीतर उतारते हुए वापस अपने खास अंदाज एक पुकारती ही आवाज आह्वान करना चाहते थेः ‘रेला रे, रेला रे, रेला रे, …।’ मैं अभी भी पसीने से भीगे शरीर को हथेली से पोछते हुए अपने पसीने की गंध को सूंघते हुए उनके सवाल को याद करता हूंः ‘क्या आप मेहनत की गंध को पहचानते हैं?’ इसे सुनकर मैं खूब हंसा था। गदर के गीतों की यही गंध भरी खुशबू है। यह मेरे पास अब भी बची हुई है। उन्होंने ऐसे सैकड़ों कलाकार बनाये जो इस गंध की खुशबू को गीतों और प्रस्तुतियों में ढाला। यह विरासत नहीं है। यह हमारे समय का सबसे जिंदा गीत है। गीत का नाम ही है गदर। जब भी गीत गाये जाएंगे, गदर का नाम जरूर आयेगा।
(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)