एक साहसी अधिवक्ता, शिक्षक और कानून के ध्रुवतारे का जाना

Estimated read time 1 min read

कानूनी बिरादरी हाल के वर्षों में वंचित से और अधिक वंचित हो गई, एक के बाद एक महान अधिवक्ताओं को खो दिया है। अब उसने अपना ध्रुवतारा खो दिया है।

गांधीजी ने एक बार कहा था, “जीवन और मृत्यु एक ही चीज के चरण हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू। मनुष्य के विकास के लिए जीवन की भांति मृत्यु भी आवश्यक है। टैगोर के अनुसार यह यात्रा ऐसी थी “गर्मियों के फूलों की तरह जीवन को सुंदर होने दो और शरद ऋतु के पत्तों की तरह मृत्यु”।

शांति भूषण, जिन्हें प्यार से ‘शांतिजी’ नाम से पुकारा जाता है, स्वतंत्र भारत के सबसे साहसी वकील थे। वे हमेशा एक उच्च पायदान पर विराजमान रहे और न्यायिक जीवन में ईमानदारी का समर्थन करते रहे। उन्होंने सिर्फ वक्तव्य ही नहीं दिये, बल्कि सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई भी लड़ी; इंदिरा गांधी या पीवी नरसिम्हा राव, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों को भी बेनकाब किया।

एक उत्कृष्ट और बेहद सफल अधिवक्ता, यूपी के एक सम्मानित महाधिवक्ता, एक सक्रिय कानून मंत्री, बड़े महत्व के सार्वजनिक मुद्दों पर लड़ने वाले एक योद्धा, शांतिजी ने सबसे अधिक संतोषप्रद जीवन व्यतीत किया। एक वकील के रूप में, वह पूरी तरह से स्व-निर्मित थे। इलाहाबाद में अपनी प्रैक्टिस शुरू करते हुए, उन्होंने थोड़े समय में एक सम्मानजनक नाम हासिल कर लिया और फिर 1980 के बाद सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस शुरू करने के बाद वे एक प्रमुख अधिवक्ता बन गए। विभिन्न विषयों पर सफल प्रैक्टिस की कमान संभालते हुए, उन्होंने फीस में भी बहुत उच्च स्तर हासिल किया।

लेकिन वह सबसे मेहनती अधिक्ताओं में से एक थे, जिनसे कोई भी मिल सकता था। उनके ब्रीफ के हर पन्ने को ध्यान से पढ़ा जाता था और लगन से मार्क किया जाता था। बिना पूरी तैयारी के उन्होंने कभी भी अदालत कक्ष में प्रवेश नहीं किया। अदालत के बाहर बेहद मृदुभाषी, पर अंदर दबंग और गूंजने वाली आवाज से सम्पन्न, वे प्रभावशाली थे। उनकी उपस्थिति का सभी पर प्रभाव पड़ता था- न्यायाधीश, वकील और वादी। वह कभी-कभी न्यायाधीशों के साथ सख्त हो जाते, तो प्रतिवादी वकीलों के साथ वह हमेशा विनम्र और शांत रहते थे।

अदालत कक्षों के बाहर, वह अत्यन्त उल्लसित रहते, बहुत ही मज़ेदार चुटकुलों और अदालत कक्ष की कहानियों से सभी का मनोरंजन करते। कोई यह स्वीकार नहीं कर सकता था कि ये शांति भूषण ही थे। वह न्यायपालिका को अपने तरीके से प्यार करते थे और उसकी स्वतंत्रता में दृढ़ विश्वास रखते थे। संस्था में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के खिलाफ उनका यह धर्मयुद्ध उसी प्रेम के कारण था।

वह ईमानदार और तेज़-तर्राक न्यायाधीशों के सबसे प्रबल प्रशंसक थे और भ्रष्ट व अक्षम लोगों के सबसे भयंकर आलोचक थे। संभावित अवमानना कार्यवाही का सामना करते हुए, शांतिजी ने सर्वोच्च न्यायालय से एक बार कहा, “आवेदक भारत के लोगों के लिए एक ईमानदार और स्वच्छ न्यायपालिका प्राप्त करने के प्रयास हेतु जेल में समय बिताने को एक बड़ा सम्मान मानेगा।”

जीवन में उनकी कई रुचियां थीं। वह एक उत्साही पाठक, एक जुनूनी क्रिकेट प्रशंसक और एक उत्साही गोल्फर थे। उन्होंने लगातार सार्वजनिक मंचों पर भारत के लोकतंत्र, उसकी चुनौतियों और कमज़ोरियों के बारे में बात की और इसके लिए देश भर में यात्रा भी की। वह युवा भारतीयों, विशेषकर वकीलों के लिए निरंतर एक शिक्षक थे, जो उन्हें सच्चे व साहस के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते थे।

उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सिन्हा के समक्ष इंदिरा गांधी के खिलाफ राजनारायण के चुनाव वाले मामले में सफलतापूर्वक बहस की। सुनवाई के दौरान, उन्होंने प्रसिद्ध केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर तत्कालीन अटॉर्नी जनरल के उस आकस्मिक हमले की कड़ी निंदा की, जिसमें कहा गया था कि संसद संविधान के मूल ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती है।

उन्होंने तर्क दिया, “यदि मैं अपने विद्वान मित्र के संबंध में कहूं, तो सर्वोच्च न्यायालय के इस ऐतिहासिक फैसले के प्रति उनका रवैया उनके पद के अनुरूप न था। जब तक निर्णय बाध्यकारी बना रहता है, तब तक अटॉर्नी जनरल द्वारा उस निर्णय को महत्व देना बंद करने की क्या प्रासंगिकता हो सकती है? 1975 में बोले गए ऐसे शक्तिशाली शब्द आज भी गूंज रहे हैं।

शांतिजी का मानना था कि “कोई भी देश तब महान होता है जब वह सिद्धांतों की पूजा करता है, न कि पुरुषों की”। उन्होंने यह भी महसूस किया कि “न्याय की महिमा, किसी भी अन्य तुच्छ विचारों की तुलना में, सिद्धांतों पर आधारित होने में निहित है”।

वह एक ऐसे सच्चे भारतीय थे, जिन्हें साहिर लुधियानवी अपने प्रसिद्ध गीत “जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं, कहां हैं, कहां हैं” में खोज रहे थे।

शांतिजी की जीवन यात्रा आनंद, कड़ी मेहनत, साहस, जुनून, हास्य और सफलता से भरी एक महान यात्रा थी। और सबसे बढ़कर, भारत के संविधान और उसके तहत बनाई गई संस्थाओं की रक्षा के लिए खड़ा होना। सम्राट नीरो द्वारा निर्देशित आत्महत्या करने से पहले, उनके शिक्षक सेनेका ने कहा था, “मैं आपके लिये सांसारिक धन की तुलना में कहीं अधिक मूल्यवान वस्तु छोड़ रहा हूं, एक पुण्य जीवन की मिसाल।” शांतिजी एक वास्तविक मिसाल रहे हैं।

कानूनी बिरादरी हाल के वर्षों में वंचित से और अधिक वंचित हो गई है, एक के बाद एक महान वकीलों को खो दिया है। आज, उसने अपना ध्रुवतारा खो दिया है। हम आशा करते हैं कि उनका जीवन वकीलों की भावी पीढ़ियों के पथ को प्रकाशित करता रहेगा। बिना इसके लोकतंत्र नष्ट हो जाएगा।

(लेखक दुष्यंत दवे वरिष्ठ अधिवक्ता और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष हैं। यह लेख इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ था, लेख का अनुवाद कुमुदिनी पति ने किया है)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author