Friday, April 19, 2024

एक सच्चे अयोध्यावासी थे शीतला सिंह

शीतला सिंह नहीं रहे। शीतला सिंह अमर हैं। 1947 के भारत विभाजन और फिर 1971 के पाकिस्तान विभाजन (कश्मीर इन्हीं दोनों के भीतर का विवाद है) के बाद इस उपमहाद्वीप के सबसे बड़े विवाद के केंद्र में खड़े होकर उसे देखने, उसके साक्षी और भुक्तभोगी बनने और उसके समाधान के लिए एक सूत्रधार व पंच की भूमिका निभाने वाले शीतला सिंह सिर्फ पत्रकार नहीं थे। वे उससे कहीं ज्यादा थे। वे हमारे समाज के सद्असदविवेक थे। अगर हम उन्हें महज पत्रकार की भूमिका तक सीमित करना चाहेंगे तो फिर वे पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी और गणेश शंकर विद्यार्थी की तरह उन मनीषी पत्रकारों की श्रेणी में पहुंच जाएंगे जिन्होंने आजादी के आंदोलन में कभी क्रांतिकारियों का साथ दिया तो कभी गांधी जी का। कभी जान पर खेलकर अखबार निकाला तो कभी राजनीति में कूद कर अपनी वाणी और कर्म के बीच की दूरी मिटाई।

अयोध्या आंदोलन के समय पत्रकारों ने तमाम भूमिकाएं निभाईं। कुछ तो आंदोलन को भड़काने और बाबरी मस्जिद को गिरवाने में लगे थे। कुछ समाधान के लिए केंद्र सरकार और पक्षकारों से संपर्क में थे और मानते थे कि अगर समय रहते पहल नहीं की गई तो विवादों के चलते संवैधानिक सद्भाव का प्रतीक बन चुका बाबरी मस्जिद का ढांचा कभी भी गिराया जा सकता है। तो कुछ इन सब से अलग धर्मनिरपेक्षता और सद्भाव पर आधारित जनमत के निर्माण में संलग्न थे और भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को लेकर आश्वस्त थे।

शीतला सिंह को समाधान ढूंढने वाले और धर्मनिरपेक्ष व सद्भाव वाले ढांचे को मजबूत करने वाले पत्रकार के रूप में देख सकते हैं। लेकिन वे पत्रकार निखिल चक्रवर्ती और प्रभाष जोशी की तरह राजधानी दिल्ली में बैठकर अपनी भूमिकाएं नहीं निभा रहे थे। बल्कि शीतला सिंह और उनकी सहयोगी सुमन गुप्ता, निर्मला देशपांडे जैसे गांधीवादियों के साथ ग्राउंड जीरो पर सक्रिय रह कर और अपनी जान जोखिम में डालकर उस समस्या और विवाद का समाधान ढूंढ रहे थे। इसी के साथ वे स्थानीय नागरिकों और साधु संतों के विवेक को भी अपना अवलंब बनाए हुए थे।

तात्कालिकता से अलग अयोध्या विवाद के बहाने अस्सी के दशक के मध्य से खड़ी हुई राजनीति को हम तीन श्रेणियों में बांट सकते हैं। एक तो वह चिंतन धारा है जिसका संबंध मार्क्सवाद से है और जो धर्म को राजनीति से दूर रखने की हिमायती है। वह किसी भी तरह से धार्मिक मामलों पर न तो राजनीतिक बात करना पसंद करती है और न ही उसे अपने विमर्श में शामिल करके उससे कुछ सीखना या उस पर किसी को कुछ सिखाना चाहती है। उस धारा के तमाम लोग छह दिसंबर 1992 तक यह मानते रहे कि फैजाबाद और अयोध्या की जनता पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष है। राममंदिर आंदोलन कुछ लोगों का शिगूफा है और उसका कोई असर होने वाला नहीं है। अगर किसी ने ढांचे को तोड़ने की कोशिश की तो लोग उसे स्वयं ही रोक लेंगे।

दूसरी धारा अयोध्यावादियों की है। जिसने योजनाबद्ध तरीके से अयोध्या विवाद को भारतीय राजनीति का केंद्रीय एजेंडा बनाया और पूरे समाज को हिंदू-मुस्लिम, उदार और कट्टर, इतिहास और मिथक के आधार पर विभाजित कर दिया। उसके लिए अयोध्या विवाद पूरी इतिहास दृष्टि का विवाद है, राजनीतिक दृष्टि का विवाद है, राष्ट्रवाद का विवाद है और इसके माध्यम से उस हिंदू राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है जो 1947 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद जागृत लोकविवेक के कारण बनने से रह गया था।

तीसरी धारा अयोध्यावासियों की है। यह धारा पत्रकारिता से लेकर राजनीति तक सभी को स्थानीय आधार पर निर्धारित करने और उससे विकास और समाज नीति तैयार करने के पक्ष में रहती है। यह ग्राम स्वराज की धारा है, यह विकेंद्रीकरण की धारा है और यह राष्ट्रीय विवेक को क्षेत्रीय विवेक का विस्तार ही मानती है न कि क्षेत्रीय विवेक को राष्ट्रीय विवेक का मातहत कारकून। किसी ने ठीक ही कहा है कि ‘न्यूज इज लोको लोको लोको।’ इसी के तहत शीतला सिंह मानते थे कि खबर स्थानीय ही होती है। बाद में उसके राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आयाम विकसित होते हैं।

फैजाबाद जिले में महात्मा हरगोविंद जी द्वारा 5 दिसंबर 1958 को सहकारिता के आधार पर शुरू किए गए पत्रकारीय प्रयोग की स्थानीय शक्ति को वे पहचानते थे क्योंकि वे उससे शुरू से ही जुड़े थे। वे यह भी जानते थे कि यह स्थानीयता अपने में राष्ट्रीयता की संभावना रखती है। वे आए थे धर्मनिरपेक्षता की वामपंथी धारा से लेकिन अयोध्या में रहते हुए और भांति-भांति के सामाजिक सांस्कृतिक अनुभवों से गुजरते हुए धर्म और धार्मिक संस्थाओं के महत्त्व को समझते थे।

वे अयोध्यावासी इस मायने में थे कि वे चाहते थे कि अयोध्या विवाद का समाधान स्थानीय स्तर पर सामुदायिक नेतृत्व के सहयोग से हो जाए और इसके लिए राष्ट्रीय नेताओं और शक्तियों की आवश्यकता ही न पड़े, न ही राष्ट्रीय वातावरण विषाक्त हो। लेकिन अयोध्यावादियों की शक्ति उन पर भारी पड़ी और अयोध्यावासी हार गए।

एक अयोध्यावासी के रूप में शीतला सिंह के प्रयासों का साक्षी उनका अपना ग्रंथ ‘अयोध्याः रामजन्मभूमि-बाबरी-मस्जिद का सच’ तो है ही साथ ही अयोध्या के निवासी और उनका अपना अखबार जनमोर्चा भी है। वे लिखते हैं-`रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को निपटाने के लिए बनी समिति की पहली बैठक जनमोर्चा कार्यालय के सभाकक्ष में 26 फरवरी 1986 को हुई। उसमें लगभग पचास लोगों ने उपस्थिति रजिस्टर पर दस्तखत किए।’ इसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों पक्षों के लोग थे। इस बैठक में तमाम बातों के अलावा जो आदर्श उभर रहा था वह था वर्धा के सत्यार मंदिर का आदर्श।

वर्धा के सत्यार मंदिर के लिए भूमि गांधी के सहयोगी जमनालाल बजाज ने दी थी। उसमें एक ही मंच पर राम, सीता, कृष्ण, ईसा मसीह, जरथुस्र, शिव-पार्वती और लक्ष्मी विराजमान हैं। इसी मंच पर मक्का मदीना की तस्वीरें भी लगी हैं। गौतम बुद्ध और मार्क्स को भी स्थान दिया गया है। इसकी एक अनुकृति अयोध्या के गुजरात भवन में बनाई गई थी। उसका अयोध्यावासियों ने स्वागत किया था। लगता है शीतला सिंह के मन में कुछ ऐसा ही था।

शीतला सिंह ने अपनी इस पुस्तक में मंदिर निर्माण के लिए होने वाली कई महत्त्वपूर्ण पहल का जिक्र किया है। उसमें उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह और नारायण दत्त तिवारी से वार्ता का जिक्र है तो प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और अर्जुन सिंह से हुई वार्ताओं का वर्णन है। वे बताते हैं कि किस प्रकार तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की पहल पर दोनों पक्षों में बात बन गई थी और विहिप नेता अशोक सिंघल भी तैयार हो गए थे, लेकिन दिल्ली से भाजपा के बड़े नेताओं ने कहा कि हमें मंदिर थोड़े ही बनाना है। वह तो कभी भी और कहीं भी बन जाएगा। हमें तो दिल्ली में सरकार बनानी है।

इस तरह एक बार फिर अयोध्यावासी हार गए और वहां की शांति और सद्भाव को भंग करने का मार्ग तथाकथित राष्ट्रवाद की संकीर्ण राजनीति ने प्रशस्त कर दिया। इसी के साथ वे यह भी लिखते हैं कि पत्रकारिता का काम आग लगाना नहीं बल्कि समाज की रचना और मानवतावादी स्वरूप का निर्माण करना है।

वास्तव में जब लोग यह कहते हैं कि पत्रकार लोकतंत्र का पहरेदार है तो वे उसकी भूमिका को कम करके आंकते हैं। पत्रकार तो सामाजिक ताने-बाने को रोज बुनने वाला एक जुलाहा है। जो जानता है कि कौन सा धागा किस धागे के साथ बुनना है और कौन सा रंग कहां चढ़ाना है। वह इंगला, पिंगला ताना भरनी और सुषमन तार को भी चीन्हता है। इस तरह शीतला बाबू सद्भावपूर्ण समाज के एक जुलाहे थे जो अपने सहकारी संस्थान के करघे पर रोज एक सद्भावपूर्ण समाज की चादर बुनते थे। यह बात अलग है कि अयोध्यावादियों की हिंसा और घृणा की राजनीति ने अयोध्या के इस जुलाहे की बुनाई को अप्रासंगिक कर दिया। उसकी चादर को चीर डाला।

ऊंची-ऊंची काटन मिलों के पॉलियस्टर के कपड़ों के आगे मेहनत और ईमानदारी से बुने गए सहकारिता के वस्त्रों की कीमत इस समाज में निरंतर घटने लगी। पत्रकारों के पैकेज बढ़ने लगे, गाड़ियां लंबी होने लगीं। वे सत्ता के उच्च पदों पर बैठे पदाधिकारियों (तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव) से शीतला बाबू की तरह यह कहने के लिए नहीं मिलते कि अयोध्या में उन लोगों को क्यों गिरफ्तार किया गया जो विहिप के विरोधी थे? या जिन लोगों ने मुस्लिम घरों को तहस नहस किया और उसमें रह रहे लोगों को जिंदा जलाया वे खुले आम क्यों घूम रहे हैं?

बाजारवादी पत्रकार इसलिए मिलते हैं कि उनके समूह का विज्ञापन औरों से कम क्यों है। ऐसे ही लोगों के कारण आज नवीकरण के नाम पर अयोध्या और फैजाबाद जैसी नगरी ध्वस्त हो जाती है और कोई बोलने वाला नहीं रहता। अयोध्यावासियों की यह हार देश की स्थानीयता की हार है। न्याय और विवेक की हार है। यह पराड़कर जी के 1925 में वृंदावन में दिए गए मसीहाई वक्तव्य का सच होना है। लेकिन शीतला बाबू जब तक रहे एक सच्चे अयोध्यावासी की तरह स्थानीयता, मानवीय संवेदना, सद्भाव और सत्य के लिए लड़ते रहे। उनकी पत्रकारिता हर गाढ़े समय में समाज को प्रेरणा देती रहेगी।

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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