Tuesday, March 19, 2024

तो लोकसभा राहुल मुक्त हो गई है

कांग्रेस नेता राहुल गांधी को मानहानि मामले में गुरुवार को सूरत की एक अदालत ने दोषी ठहराया और उन्हें अपील करने के लिए 30 दिन का समय दिया। तब एक समझ यह थी कि अपील की अवधि में दो साल कैद की सुनाई गई सजा निलंबित रहेगी। लेकिन अब यह साफ है कि लोकसभा सचिवालय ने सदस्यता रद्द होने संबंधी कानूनी प्रावधान की अलग ढंग से व्याख्या की है। उसने शुक्रवार दोपहर राहुल गांधी की संसद सदस्यता रद्द करने की अधिसूचना जारी कर दी।

दरअसल, इस मामले में जिस ढंग का अभियोग लगाया गया और अदालत ने उस पर जिस तरह का फैसला दिया, उसे खुद एक बड़े कानूनी दायरे में विवादास्पद माना गया है। मुकदमा चलने का जो सारा संदर्भ है, वह कम विवादास्पद नहीं है। यहां इस तथ्य का उल्लेख भी जरूरी है कि 2019 के इस मामले में निर्णय ठीक उस समय सुनाया गया, जब सत्ता पक्ष तमाम विपक्ष को लेकर बेहद आक्रामक हो गया दिख रहा है।

इसलिए इस मामले को सिर्फ कानून और वैधानिक प्रावधानों के दायरे में रख कर नहीं देखा जाएगा। इसे अवश्य ही इसके राजनीतिक संदर्भ में देखा जाएगा। इसे गहराती गई इस धारणा के संदर्भ में देखा जाएगा कि शासन-तंत्र के हर अंग और संस्था पर एक खास राजनीतिक विचारधारा ने अपना शिकंजा कस लिया है। इस वजह से वह विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं से अपने राजनीतिक हितों के मुताबिक ऐसे निर्णय करवाने में सक्षम हो गई है, जिनका तर्क और विवेक की कसौटी पर गले उतारना मुश्किल मालूम पड़ता है।

बेशक वर्तमान सत्ता पक्ष की यह एक कामयाबी है कि ऐसे निर्णयों के पक्ष में अपने समर्थक तबकों को टॉकिंग प्वाइंट्स (बहस के तर्क) देने में वह अभी तक सफल बनी हुई है। इस कारण उसका समर्थन आधार अक्षुण्ण बना हुआ है। लेकिन प्रक्रिया में लोकतंत्र की सामान्य अपेक्षाओं और भारतीय संविधान की भावना की बलि चढ़ा दी गई है।

एक न्यूनतम आम सहमति और व्यवहार की मर्यादा लोकतंत्र की सामान्य अपेक्षाओं में शामिल है। जबकि सत्ता पक्ष की सारी ताकत परस्पर विरोधी भावनाओं को भड़काते हुए ध्रुवीकरण करने पर टिकी हुई है। इस क्रम में अक्सर हर तरह की मर्यादा की भी बलि चढ़ा दी जाती है।

ऐसे ही ध्रुवीकरण का नतीजा है कि राहुल गांधी को सुनाई गई सजा पर देश में तीखा मत-विभाजन उभरा है। अगर अरविंद केजरीवाल राहुल गांधी के समर्थन में बयान देने लगें, तो उसे इसी बात का संकेत समझा जाना चाहिए कि मत-विभाजन या ध्रुवीकरण की यह प्रक्रिया अपने चरम बिंदु तक पहुंच गई है। इसके निहितार्थ क्या हैं, इस पर गौर कीजिए।

एक महत्त्वपूर्ण निहितार्थ यह है कि राहुल गांधी को सुनाई गई सजा को लेकर न्यायपालिका के बारे में जनता के बीच राय बंट गई है। न सिर्फ कांग्रेस, बल्कि ज्यादातर विपक्षी दल भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि कोर्ट साक्ष्य और अकाट्य दलीलों के आधार पर अपने निष्कर्ष तक पहुंचा।

दूसरी तरफ भाजपा समर्थक दायरों में इस फैसले को लेकर उल्लास का माहौल है। लेकिन वह प्रतिक्रिया भी न्यायिक तर्कों पर आधारित नहीं है। बल्कि भाजपा और उसके समर्थकों ने इसमें अपनी राजनीतिक जीत देखी है।

किसी समाज में अगर न्याय को लेकर इस तरह की परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएं आने लगें, तो उसका सीधा मतलब यह होगा कि न्याय प्रक्रिया विवाद और संदेह से परे नहीं रह गई है। विपक्षी नेताओं की प्रतिक्रिया से साफ है कि उनकी राय में राहुल गांधी को उनके दोष के आधार पर दंडित नही किया गया है, बल्कि इसके पीछे ‘सियासी वजहें’ हैं।

इस तरह विपक्षी खेमे में यह भाव और गहराया है कि न्याय प्रक्रिया को विपक्षी नेताओं और मौजूदा सरकार से असहमत लोगों को प्रताड़ित करने का हथियार बनाया जा रहा है।

बात यहां तक पहुंचने के पीछे एक लंबी पृष्ठभूमि है। इस घटनाक्रम में ताजा पहलू सिर्फ यह है कि इस वर्ष आकर ऐसी ‘प्रताड़ना’ का दायरा अधिक फैल गया है और इसकी रफ्तार बहुत तेज हो गई है। राहुल गांधी की सांसदी खारिज किए जाने से पहले हाल में दिल्ली में मनीष सिसोदिया को जेल भेजना, भारत राष्ट्र कांग्रेस की नेता के कविता के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई, लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव के घर पर हुई केंद्रीय एजेंसियों की पूछताछ आदि जैसी घटनाएं लगभग साथ-साथ हुई हैं।

इसी दौरान दिल्ली में प्रधानमंत्री विरोधी पोस्टर लगाने पर गिरफ्तारियां हुई हैं और एक कन्नड़ अभिनेता को सिर्फ यह ट्विट करने के कारण 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है कि “हिंदुत्व झूठ पर आधारित” विचारधारा है।

तो अब यह सवाल उठा है कि क्या इस तेजी और तीक्ष्णता की वजह अडानी प्रकरण में केंद्र सरकार का घिरना है। यह तो निर्विवाद है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीतिक करियर में हिंडनबर्ग खुलासे के बाद पैदा हुए अडानी संकट से बड़ी चुनौती पहले कभी नहीं आई। इस प्रकरण में उनसे गंभीर सवाल पुछे गए हैं। ये सवाल संभवतः सर्वाधिक प्रखरता से राहुल गांधी और आम आदमी पार्टी के नेताओं ने पूछे हैं।

इस सिलसिले में यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि अडानी मामले में राहुल गांधी ने लोकसभा में जो बहुचर्चित भाषण दिया था, उसे ना सिर्फ संसद की कार्यवाही से हटा दिया गया, बल्कि उनकी टिप्पणियों के आधार पर एक भाजपा सांसद ने उनके खिलाफ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव भी लोकसभा में पेश कर दिया।

इस प्रस्ताव के सिलसिले में भी राहुल गांधी की सदस्यता खारिज करने की चर्चा पिछले एक महीने से सियासी और मीडिया हलकों में रही है। बहरहाल, अगर इस माध्यम से गांधी की सदस्यता खारिज की जाती, तो उसका राजनीतिक पहलू सबके सामने होता। अब जिस माध्यम से यह किया गया है, उसे एक न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा बताना आसान है। 

इसीलिए सूरत की अदालत पर विपक्षी हलकों से उठे प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। इन प्रश्नों का संदेश यही है कि विपक्ष ने राहुल गांधी को सजा सुनाने और उनकी सांसदी रद्द किए जाने को विशुद्ध न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा मानने से इनकार कर दिया है।

विपक्षी हलकों में इस अदालती कार्रवाई के पीछे सियासी कोण (angle) होने की धारणा बनी है। समझा यह गया है कि सत्ता पक्ष की प्राथमिकता ऐसी आवाज को लोकसभा से बाहर करना था, जो उसकी ताकत का आधार बनी राजनीतिक अर्थव्यवस्था (political economy) और उसकी विचारधारा पर स्पष्टता, निर्भयता और प्रखरता के साथ सदन में हमले कर रहा था।

दरअसल, वर्तमान राजनीतिक माहौल में प्रताड़ित होने वाले राहुल गांधी कोई पहले नेता नहीं हैं। ना ही उन्हें (अभी तक) सबसे गंभीर रूप से प्रताड़ित किया गया है। इसके बावजूद उन पर हुई कार्रवाई से देश के जनमत का एक बड़ा हिस्सा अगर खुद को आहत और आक्रोश में महसूस कर रहा है, तो उसकी वजह यह है कि हाल के वर्षों में राहुल गांधी वर्तमान सरकार की political economy और उसकी मूलभूत विचारधारा के सबसे चर्चित आलोचक के रूप में उभरे हैं। इस तरह वे मौजूदा सरकार से असहमत जनमत की भावनाओं के प्रतीक बन गए हैं।

राहुल गांधी का आरोप था कि अक्सर संसद में वे जब बोलते हैं, तो उनके माइक को म्यूट (बंद) कर दिया जाता है। अब सदन को उनसे मुक्त कर दिया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर उभरे थे, तब उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया था। बाद में कुछ भाजपा नेताओं ने विपक्ष मुक्त भारत की बात की थी। संभवतः अब जाकर इसका असली अर्थ लोगों को समझ में आना शुरू हुआ है। इसका अर्थ वे पार्टियां भी समझने लगी हैं, जो अपनी राजनीति में कांग्रेस विरोधी रही हैं।

इसीलिए राहुल गांधी की सासंदी रद्द करना वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्त्वपूर्ण मुकाम है। यहां से मौजूदा भारतीय राजनीति की सूरत बिल्कुल अलग-सी दिखने लगी है।   

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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