धराशाई हो गया तेलंगाना का विकास मॉडल, KCR को चुकानी पड़ सकती है इसकी कीमत

विधानसभा चुनावों की श्रृंखला का आखिरी मतदान 30 नवंबर को तेलंगाना में होने जा रहा है। दक्षिण में कर्नाटक के बाद तेलंगाना वह राज्य था जहां एक समय भाजपा बड़ी दावेदार बनकर उभर रही थी। लेकिन चंद महीने पहले की तुलना में अब मतदान की घड़ी आते-आते तेलंगाना का चुनावी परिदृश्य नाटकीय ढंग से बदल चुका है।

तेलंगाना में भाजपा हाशिये पर खिसक चुकी है और शीर्ष नेताओं द्वारा ध्रुवीकरण और सोशल इंजीनियरिंग की लाख कोशिशों के बावजूद वह मुख्य लड़ाई से बाहर है। भाजपा और ओवैसी के बीच तीसरे-चौथे स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा हो रही है। अंत आते आते मुख्य लड़ाई KCR और कांग्रेस के बीच सिमट गई है।

राजधानी हैदराबाद की उस्मानिया यूनिवर्सिटी, जो कभी तेलंगाना राज्य आंदोलन का केंद्र थी, के छात्रों का मूड अगर कोई पैमाना है तो इस बार KCR की पुनर्वापसी की राह बेहद मुश्किल है। KCR एक समय वहां नायक की तरह उभरे थे, पर आज द इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार वहां उल्टी बयार बह रही है। KCR के बारे में nostalgia खत्म हो चुका है।

छात्र पेपर लीक के कारण सरकारी भर्ती परीक्षाओं के कैंसिल होने, बेरोजगारी, अंधाधुंध फीस वृद्धि, यूनिवर्सिटी के खस्ताहाल इन्फ्रास्ट्रक्चर और आंदोलन पर राज्य-दमन को लेकर सरकार के खिलाफ गुस्से में हैं। वे पूछ रहे हैं कि KCR ने मार्च 2022 में विधानसभा में जिन 90 हजार नौकरियों का वायदा किया था, उनका क्या हुआ?, वे पूछ रहे हैं कि अन्य राज्यों का शिक्षा पर औसत बजट आबंटन 14.8% है, तो वह तेलंगाना में मात्र 7.6% क्यों है?

छात्र पूछ रहे हैं कि बेरोजगारी दर का राष्ट्रीय औसत 10% है तो वह तेलंगाना में 15% क्यों है? ( Periodic Labour Force Survey के अनुसार) विश्वविद्यालय में 1200 permanent फैकल्टी के पदों में मात्र 380 भरे हैं। सोशल साइंस आर्ट्स, कॉमर्स की फीस 2 हजार से बढ़कर 20 हजार हो गयी। आक्रोशित छात्र-युवा KCR की वेलफेयर योजनाओं पर कहते हैं कि इससे हमें क्या मिला।

दरअसल, राज्य आंदोलन के हीरो के बतौर उभरे KCR को 2014 में और उससे बढ़कर 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में इस sentiment का जबर्दस्त लाभ मिला, लेकिन 2023 के चुनाव में वह अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है। लोग अब उन उम्मीदों और आकांक्षाओं की कसौटी पर उनका मूल्यांकन कर रहे हैं जो राज्य-निर्माण ने जगाई थीं, मसलन राज्य का विकास, सरकारी नौकरियां-रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचा, नागरिक सुविधाएं।

KCR ने विभिन्न तबकों को सरकार द्वारा सीधे आर्थिक लाभ पहुंचाने की जो अनेक कल्याणकारी योजनाएं लागू की थीं, उससे उन्हें एक दौर में भारी लोकप्रियता मिली। 2018 के विधानसभा चुनाव में उनकी प्रचण्ड विजय में उसकी भी भूमिका थी। उसी के बल पर उन्होंने गुजरात मॉडल बनाम तेलंगाना मॉडल का विमर्श बनाते हुए एक समय राष्ट्रीय भूमिका में उभरने और विपक्ष की धुरी बनने की भी जीतोड़ कोशिश की।

लेकिन अब 5 वर्ष के बाद उनकी तमाम योजनाओं की सीमाएं सामने आ चुकी हैं।

द हिन्दू में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य के स्तर पर तेलंगाना का आर्थिक विकास सामाजिक indicators में translate नहीं हुआ। अधिकांश social indicators, विशेषकर महिला empowerment और child development में तेलंगाना देश के सबसे फिसड्डी आधे राज्यों में पहुंच गया है। इस मायने में 2015-16 की तुलना में आज उसकी स्थिति बदतर है।

NSDP में देश के ऊपरी 5 राज्यों में होने के बावजूद मानव विकास सूचकांक (HDI) में वह देश के 30 राज्यों में 17वें स्थान पर है। राज्य में कुल GVA में मैन्युफैक्चरिंग के 11.5% हिस्से के साथ वह देश के 30 राज्यों में 17वें स्थान पर है, और कुल रोजगार में मैन्युफैक्चरिंग के हिस्से के लिहाज से 8वें स्थान पर है। शिशु मृत्यु दर में वह 10वें से खिसककर 15वें स्थान पर पहुंच गया है।

अविकसित बच्चों (उम्र के हिसाब से कम height ) की दृष्टि से वह 8वें से खिसककर 19 वें स्थान पर, लंबाई के अनुपात में कम वजन के बच्चों में 16वें से 26वें स्थान पर, अंडर वेट बच्चों में 15वें से 21वें स्थान पर, स्वास्थ्य बीमा/किसी वित्तीय योजना में परिवार के एक सदस्य के coverage की दृष्टि से तीसरे से 8वें स्थान पर, कभी स्कूल गयी लड़कियों की संख्या की दृष्टि से 26वें से आखिरी 30वें पायदान पर, सेकेंडरी लेवल पर ड्राप आउट रेट में तेलंगाना 12वें स्थान पर है।

दरअसल, नवउदारवादी नीतिगत ढांचे के दायरे में लागू की जाने लोकलुभावन कल्याणकारी योजनाओं की यही सीमा है। जनोन्मुखी दृष्टि से कृषि, उद्योग, रोजगार, बुनियादी ढांचे, नागरिक सुविधाओं, शिक्षा-स्वास्थ्य के समग्र विकास मॉडल के अभाव में यही होना है।  इसके अलावा वे योजनाएं misgovernance, भ्रष्टाचार और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण पूरी तरह जमीन पर उतर ही नहीं सकीं।

जाहिर है समाज के तमाम aspirational तबकों, छात्रों-युवाओं आदि की बेहतर शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं, बुनियादी ढांचे आदि आकांक्षाओं को पूरा करने में KCR सरकार विफल रही है और अब उनके मोहभंग और आक्रोश के निशाने पर है।

इन सबको लेकर उभरते आंदोलनों से सरकार ने जिस तरह दमन के सहारे निपटने की कोशिश की, वहां डेमिक्रेटिक स्पेस curb किया गया, उससे KCR उन तमाम जनान्दोलन की ताकतों और नागरिक समाज से भी अलगाव में पड़े हैं, जो राज्य आंदोलन के समय मजबूती से उनके साथ थीं। अब ऐसी तमाम शक्तियां कांग्रेस की ओर inclined हैं।

विश्लेषकों का यह मानना है कि तेलंगाना में मुख्य लड़ाई से बाहर हो जाने के बाद अब भाजपा की पूरी रणनीति इस बात पर केंद्रित हो गयी है कि वहां कांग्रेस को कैसे रोका जाए। मोदी जी प्रचार के आखिरी क्षणों में KCR पर ताबड़तोड़ हमले करके जैसे यह सफाई देने में लगे रहे कि भाजपा और BRS के बीच कोई गुप्त समझौता नहीं है।

दरअसल यह impression कि कांग्रेस को रोकने के लिए भाजपा-KCR साथ हैं, कांग्रेस को फायदा पहुंचाने वाला है। तेलंगाना के 13% मुस्लिम मतदाताओं का कांग्रेस के प्रति बढ़ता रुझान इससे और ठोस हो जाएगा।

माना जा रहा है कि कांग्रेस के खिलाफ मतदान के समय भाजपा, जहां जरूरत होगी, अपना वोट BRS को ट्रांसफर करवा सकती है। Hung assembly की स्थिति में भाजपा और ओवैसी दोनों KCR की मदद में आ सकते हैं। जाहिर है अगर ऐसा arrangement होता है तो यह लोकसभा चुनाव तक जाएगा।

तेलंगाना के चुनाव-नतीजे लोकसभा चुनाव में political realignment की दृष्टि से बेहद अहम हैं। यह देखना रोचक होगा कि तेलंगाना के अंदर कांग्रेस के मुख्य प्रतिद्वंद्वी के बतौर उभर जाने के बाद KCR, विधानसभा चुनाव के उपरांत (जीत-हार दोनों ही स्थितियों में) INDIA गठबंधन के साथ आते हैं अथवा जगन रेड्डी/ नवीन पटनायक की तरह घोषित/अघोषित रूप से भाजपा के साथ रहते है, या फिर कुछ अन्य दलों के साथ कोई 3rd front आदि की खिचड़ी पकती है।

उधर, तेलंगाना में अगर कांग्रेस जीतती है, तो दशकों बाद कर्नाटक के साथ दक्षिण के एक और राज्य में उसकी जीत का बड़ा राजनीतिक सन्देश पूरे देश में जाएगा और विपक्षी गठबंधन INDIA के अंदरूनी समीकरण भी इससे प्रभावित होंगे।

तेलंगाना समेत 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव का 4 महीने बाद होने जा रहे 2024 के फैसलाकुन आम चुनाव पर गहरा मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक असर पड़ना तय है।

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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Sushil Sharma
Sushil Sharma
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5 months ago

बढ़िया विश्लेषण रिपोर्ट है।
सलाम साथी।