मराठवाड़ा में ज़मीन से बेदखली के खिलाफ संघर्ष

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“पिता जी तो ताउम्र ज़मीन के लिए लड़ते रहे और चले गए, शायद हम भी इसी तरह चले जायेंगे।” यह शब्द है महाराष्ट्र के जालना ज़िले के परतूर तालुका में अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हुए हरीभाऊ सीताराम भिसे के। हरीभाऊ सीताराम भिसे अन्य 22 लोगों के साथ अपनी ज़मीन जिस पर वह कई दशकों से रहते और खेती करते है को बचाने के लिए अनिश्चितकाल धरने पर बैठे थे। उनका कहना है कि उनके पिताजी जी का ज़मीन अपने नाम होने का सपना, जो उनकी आंखों ने भी देखा है, अब धीरे धीरे कमजोर होता जा रहा है।

अब तो जिला प्रशासन ने नोटिस भेज कर एक महीने के भीतर तथाकथित पंचायत की ज़मीन को खाली करने का फरमान जारी किया है। इन जैसे हज़ारो लोगों की आंखो से नींद गायब है, इस चिंता में कि आज जिस छत के नीचे वह सोने की कोशिश कर रहे हैं वह भी बचेगी की छिन जाएगी। ऐसे ही आंदोलन पूरे जालना में और पूरे महाराष्ट्र में चल रहे हैं। केवल जालना जिले में ही 22,000 परिवार है जिनको ज़मीन से बेदखली का नोटिस भेजा गया है/भेजा जा रहा है।  

क्या है पूरा मामला

पूरे मराठवाड़ा में एक बड़ा भूमि आंदोलन हो रहा है। भूमिहीन लोगों ने अलग-अलग समय पर आंदोलनों के जरिये या पंचायत की अनुमति से पंचायती ज़मीन जिसे महाराष्ट्र में गैरान ज़मीन कहते हैं, पर अपने घर बना लिए और खेती करनी शुरू कर दी। लेकिन अब जिला प्रशासन ने उच्च न्यायालय के आदेशों के अनुसार इन सब लोगों को बेदखली के नोटिस जारी कर दिए हैं। इन लोगो का जीवन इस ज़मीन पर निर्भर करता है।

दशकों से यह ज़मीन उनकी ज़िन्दगी का सहारा बनी है लेकिन अब उनको अचानक बताया जा रहा है कि यह उनकी नहीं है। गए पांच दशकों में ग़ैरान ज़मीन पर मालकियत नियमित करने के लिए कई बार आंदोलन हुए। कई बार और कई तरह के शासकीय आदेश जारी हुए। जिसके चलते कई लोगों को ज़मीन की मालकियत के कागज भी मिले, लेकिन एक बहुत बड़ा हिस्सा आज भी आस लगाए बैठा है कि उनको ज़मीन की मालकियत मिलेगी और बेदखली की तलबार, जो हमेशा किसी न किसी कारण उनके सर पर लटकती रहती है, के डर से इनके जीवन को मुक्ति मिलेगी। 

बेदखली के नोटिस का आधार

इससे पहले कि महाराष्ट्र में पंचायती सांझी ज़मीन की मालकियत और अनेकों ज़िन्दगियों की कहानी को आगे बढ़ायें, पहले यह समझना जरुरी है कि इस बार जो नोटिस जारी हुए हैं, उनमें न्यायालय के किस निर्णय का सहारा लिया गया है। दरअसल नोटिस में वर्ष 2011 में एक सिविल अपील को ख़ारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की दो सदस्य खंडपीठ के निर्णय का हवाला दिया गया है।

‘जगपाल सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य व अन्य’ शीर्षक की सिविल अपील में सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश एम काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की खंडपीठ ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय दिया था। इसमें उन्होंने अपील को ख़ारिज करते हुए निचली अदालत के निर्णय को सही ठहराया और अपीलकर्ता को तुरंत पंचायती ज़मीन (तालाब) से अपना निर्माण हटाने के लिए आदेश पारित किया।

यह एक बेहतरीन केस इसलिए भी था कि आदेश पारित करते हुए कोर्ट ने इस मुद्दे को गंभीरता से लिया और पंचायती सांझी भूमि के महत्व को समझते हुए इस पर हो रहे अतिक्रमण को हटाने के लिए देश के सभी राज्यों को आदेश दिए थे। उन्ही आदेशों का सहारा लेकर महाराष्ट्र सहित देश के अन्य राज्यों से भूमिहीन गरीबो को ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है। हालांकि बारीकी से जांच करने पर पता चलेगा कि किस तरह हमारी व्यवस्था एक बेहतरीन निर्णय जो जनता के पक्ष में है, का इस्तेमाल उनके खिलाफ करती है। 

क्या था यह केस

मामला बहुत सीधा था जिसका जिक्र तफ्सील से उच्चतम न्यायालय के निर्णय में किया गया है। दरअसल पंजाब के पटियाला जिले के रोहर पंचायत के तालाब, जिसका उपयोग ग्रामीणों द्वारा सामूहिक तौर पर होता था, पर एक दबंग ने जबरन कब्ज़ा कर लिया था और उस पर निर्माण कर दिया था। पंचायत ने इस कब्जे को हटाने के लिए उपायुक्त कार्यालय में एक अर्जी दाखिल की। उपायुक्त साहब ने कब्ज़ा हटाने के निर्देश देने के बजाय पंचायत को सर्किल रेट पर पैसे लेकर ज़मीन आरोपी के नाम कर देने के ही आदेश कर डाले।

इसके खिलाफ कुछ लोगो ने आयुक्त के पास अपील की। आयुक्त ने यह माना कि आरोपी ने गैर क़ानूनी तरीके से गांव के तालाब पर कब्ज़ा किया है और तुरंत इसको हटाने के आदेश दिए। आरोपी रसूखदार और पैसे वाला था तो हर बार हारने के बाद भी क़ानूनी लड़ाई में ऊपर से ऊपर की कोर्ट में अपील करता रहा। कुल मिलाकर मामला सर्वोच्च न्यायालय के पास पहुंच गया जिस पर न्यायालय ने न केवल अपील खारिज की बल्कि इस पूरे प्रकरण पर कड़ी टिपण्णी भी की। 

शीर्ष अदालत की पंचायती सांझी ज़मीन पर जायज चिंता

न्यायालय के आदेश में गांव की सांझी भूमि जिसे, पंचायती ज़मीन, ग्राम सभा की भूमि, पंजाब में शामलात देह, दक्षिण भारत में सामन्यता मन्दवेली और पोरंबोक, कलम या मैदान आदि कहा जाता है, के महत्व पर विस्तार में चर्चा की गई है। यहां तक कहा गया है कि यह ज़मीन पंचायत की है और इस पर राज्य सरकार भी दावा नहीं कर सकती है। इसका उपयोग गांव के लोग सामूहिक तौर पर करते है।

लगातार कम होती ज़मीन के चलते इस भूमि का महत्व और भी बढ़ गया है। आदेश में यह भी कहा गया है कि कानून के खिलाफ ज्यादार राज्यों में इस ज़मीनों पर रसूखदार लोगों ने अपनी ताकत और धनबल का प्रयोग करते हुए कब्ज़ा कर लिया है। स्थानीय पंचायतें और जिला प्रशासन भी प्रभावशाली अतिक्रमणकारियों का साथ देता है।

इसी चिंता के चलते अदालत ने राज्य सरकारों को इसके लिए फटकार लगाई और आदेश भेजे कि पूरे देश से इन ज़मीनों से अतिक्रमण को हटाया जाए। अपील ख़ारिज करने के बावजूद इस मामले में अगली सुनवाई जारी रखी गई ताकि इस आदेश की तामील की रिपोर्ट राज्यों से ली जा सके। इसी आधार पर ज्यादातर राज्य सरकारों ने पंचायती ज़मीन से बेदखली के प्रयास पिछले दस सालो में किये हैं।

कोर्ट के फैसले का गलत कार्यान्वयन

न्यायालय के आदेशों को भी किस तरह हमारा वर्गीय समाज अपने वर्ग के हित साधने के लिए उपयोग करता है यह इस मामले में काफी साफ़ हो जाता है। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जाहिर की थी कि गांव की सांझा ज़मीन पर दबंग और प्रभावशाली लोग जबरन और स्थानीय पंचायत और प्रशासन की मिलीभगत से कब्ज़ा कर लेते हैं और साफ आदेश दिए कि इनको हटाना है।

वहीं सुप्रीम कोर्ट के आदेश में अदालत ने माना है कि भूमिहीन मज़दूरों, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों को लीज पर दी पंचायती ज़मीन उचित है। अदालत ने भूमिहीन मज़दूरों, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों द्वारा पंचायती ज़मीन का इस्तेमाल एक अपवाद के तौर पर देखा है। जब राज्यों को इन ज़मीनो से दबंगो का अतिक्रमण और कब्ज़ा हटाने के आदेश दिया गया तो इसमें भी अदालत ने बिल्कुल साफ़ किया।

अदालत के फैसले के अंतिम हिस्से का अनुवाद इसे समझने में मददगार होगा। फैसले के पैरा 22 में लिखा है, “इस मामले से अलग होने से पहले हम देश की सभी राज्य सरकारों को निर्देश देते हैं कि वे ग्राम सभा/ग्राम पंचायत/पोरम्बोक/शामलात भूमि पर अवैध/अनधिकृत कब्जाधारियों को बेदखल करने के लिए योजनाएं तैयार करें और इन्हें गांव के ग्रामीणों के सामान्य उपयोग के लिए ग्राम सभा/ग्राम पंचायत को वापस लौटाया जाए। इस प्रयोजन के लिए भारत में सभी राज्य सरकारों/केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को सरकार के अन्य वरिष्ठ अधिकारियों की मदद लेते हुए आवश्यक कार्य करने का निर्देश दिया गया है।

उक्त योजना में ऐसे अवैध कब्जेदार को कारण बताओ नोटिस और एक संक्षिप्त सुनवाई के बाद शीघ्र बेदखल करने का प्रावधान होना चाहिए। ऐसे अवैध कब्जे की लंबी अवधि तक कब्ज़ा या उस पर निर्माण कराने में भारी खर्च या राजनीतिक कनेक्शनों को इस अवैध कार्य को माफ करने या नियमित करने के औचित्य के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। नियमितीकरण की अनुमति केवल असाधारण मामलों में ही दी जानी चाहिए जैसे सरकारी अधिसूचना के तहत भूमिहीन मजदूरों या अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को पट्टा (लीज) दिया गया हो या यहां ज़मीन पर स्कूल, औषधालय या कोई अन्य सार्वजनिक उपयोगिता हो।”

इस स्पष्टता के बावजूद, शीर्ष अदालत के निर्णय का उपयोग करते हुए ज्यादातर राज्यों से भूमिहीनों जिनमें ज्यादातर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्य हैं, को बड़े स्तर पर बेदखल किया जा रहा है। बिहार में भी इसी तरह की एक बड़ी मुहीम पिछले वर्ष और इस साल के शुरुआत में चली थी जब नोटिस देकर गांव के तालाब के किनारों पर बसने वाले भूमिहीन लोगो के आशियाने उजाड़े जा रहे थे।

 बिहार में जनवादी आंदोलन के दबाव के चलते मुख्यमंत्री को हस्तक्षेप करते हुए यहां तक कहना पड़ा कि प्रदेश के अधिकारी अदालत में सही स्थिति पेश नहीं कर रहे हैं। परिणामस्वरूप अस्थाई तौर पर यह बेदखली रूक गई। लेकिन जब-जब कोई सामंती अधिकारी आएगा जो अपने वर्ग हितों के प्रति समर्पित होगा, इस आदेश का उपयोग एक बार फिर ग्रामीण सर्वहारा के खिलाफ करता रहेगा।

ज़मीन के मुद्दे का वर्गीय चरित्र

महाराष्ट्र में जिन लोगों को नोटिस भेजे गए हैं और जो आंदोलन में हैं वह ज्यादातर अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से हैं। उल्लेखनीय है कि ज़मीन का मसला जितना सीधा दिखाई देता है उतना होता नहीं है। ऊपर से सीधे तौर पर पेश करने की कोशिश की जा रही है कि यह सब तो अदालत के आदेशों के चलते हो रहा है। उच्चतम न्यायालय के आदेशों को लागू करने के लिए महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने संज्ञान लिया और प्रशासन को मज़बूरी में लोगो को नोटिस भेजने पड़ रहे हैं।

ज़मीन किसी अन्य आर्थिक संसाधन की तरह नहीं है। ज़मीन का ग्रामीण भारत में उत्पादन की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका है। ज़मीन पर ही कृषि के जरिये उत्पादन होता है। इसलिए ज़मीन का अधिकार ही तय करता है कि उत्पादन की प्रक्रिया में किस वर्ग की क्या भूमिका होगी। ग्रामीण भारत में भूमिहीनता का मतलब ही है कि श्रम के लिए भूमि मालिकों पर आश्रित हो जाना। यहां तक कि आश्रय (घर) के लिए भी मोहताज हो जाना।

शासक वर्ग यह जानता है कि अगर ज़मीन का अधिकार भूमिहीनों को मिलेगा तो ग्रामीण भारत में वर्गीय व शक्तियों का संतुलन बदलेगा। इसलिए कई तरह के कानून होने के बावजूद भूमिहीनों को ज़मीन नहीं मिलती है। जहां कब्ज़ा कर भी लिया जाता है तो ज़मीन की मालकियत के दस्तावेज नहीं मिलते है। चाहे जमीन आप जोत रहे हैं परन्तु अगर आपके पास मालकियत के कागज नहीं है तो आप पर बेदखली का डर हमेशा बना रहता है। परिणामस्वरूप आबादी का बड़ा हिस्सा कभी इनके सामने सिर नहीं उठाता है। 

महाराष्ट्र के अनुभव

महाराष्ट्र के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। जैसा कि शुरुआत में ही कहा गया था कि महाराष्ट्र में ज़मीन को लेकर कई आंदोलन रहे हैं। जिनमें मुख्य रूप से अनुसूचित जातियों के लिए ज़मीन के आंदोलन रहे हैं। इसके चलते लोगो ने ज़मीन पर कब्ज़ा भी किया। इसमें से एक बड़ा हिस्सा पंचायती ज़मीन (ग़ैरान) का भी है। ज़मीन के कब्जे को नियमित करने के लिए सरकार ने कई तरह के आदेश भी निकाले। उन पर तो कभी पूरी शिद्धत से अमल नहीं हुआ लेकिन वर्तमान में अदालत के आदेश को पूरी तरह लागू करने की कोशिश है। 

2011 में परभणी जिलाधीश ने आदेश जारी कर तहसीलदारों को ज़मीन की नियमतिकरण (रेगुलारिसेशन) की प्रक्रिया शुरू करने को कहा था। इसके अनुसार जिनके पास 14 अप्रैल 1990 या उससे पहले ज़मीन का कब्ज़ा है उसका मालिकाना हक़ नियमित किया जायेगा। इस आदेश का आधार महाराष्ट्र भूमि और राजस्व अधिनियम, 1966 के खंड का हवाला दिया गया था।

ग़ैरान ज़मीन पर कब्ज़ा नियमित करने की जिम्मेवारी तहसीलदार को दी गई थी। व्यक्तिगत नोटिस दिए गए थे और जो भी दस्तावेज सबूत के तौर पर हो उनको प्रस्तुत करने के लिए कहा गया था जैसे पंचनामा, उस (ज़मीन के) आंदोलन में गिरफ़्तारी के सबूत या फिर रिहाई के दस्तावेज आदि। यह लोगों ने एक खजाने की तरह बहुत ही संभाल कर रखे हैं। उनको लगता है कि यह कागज़ ही ज़मीन उनके नाम होने की कुंजी है इसलिए कई दशकों बाद भी यह दस्तावेज सुरक्षित है।   

2014 में भी एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने परभणी ज़िलाधीश को आदेश दिए थे कि ज़िले में ग़ैरान ज़मीन धारकों की सूची बनाई जाए और जरुरी दस्तावेज मांगे जाएं। इसके लिए प्रत्येक पंचायत में एक नोटिस लगाया जाये। इसके लिए उप प्रभागीय न्यायाधीश (SDM) और तहसीलदार को जिम्मेवारी दी गई थी।

इस आदेश में अदालत ने कहा था कि जनहित याचिका में जिन लोगों का नाम है उनसे दस्तावेज लिए जाएं, इनसे दस्तावेज मांगे जाएं, इसके लिए 6 महीने का समय दिया गया, इसके आलावा जिन लोगों के नाम इस जनहित याचिका में नहीं हैं उनकी भी सूचि तैयार की जाये और दस्तावेज मांगे जाएं। इस दौरान कोई भी अपनी ज़मीन से बेदखल नहीं किया जायेगा।  

इसी के तहत सेलु तालुका के देबुल गांव में भी ग़ैरान ज़मीन पर कब्जाधारियों की सूची बनाई गई थी और स्टेटस रिपोर्ट भी तैयार की गई थी। जरुरी दस्तावेज सहित यह फाइल तहसील कार्यालय में जमा करवा दी गई थी लेकिन फाइल उससे आगे कभी बढ़ी ही नहीं। ग्रामीण वर्गीय समाज में प्रभावशाली लोगों ने, जिसमें अफसरशाही भी शामिल है इसे कभी आगे बढ़ने ही नहीं दिया।

जिन लोगों को कानून और उनके हक़ के अनुसार जो ज़मीन उनके नाम आज तक हो जानी चाहिए थी वह आज फिर अनिश्चिता से घिर गए हैं। उनको भी नोटिस मिल रहे हैं। अब सुप्रीम कोर्ट का नाम लेकर अफसरशाही से लेकर स्थानीय और राज्य का नेतृत्व अपनी जिम्मेवारी से पीछे छुड़ा रहा है। यह केवल परभणी या जालना जिले की कहानी नहीं है बल्कि महाराष्ट्र विशेष तौर पर मराठवाड़ा क्षेत्र के ज्यादातर जिलों की कहानी है।

सरकार/जिला प्रशासन के कई आदेश निकलते रहे/प्रक्रिया शुरू होती रही, कुछ को राहत मिली लेकिन ज्यादातर लड़ाई लड़ते रहे। बिना राजनीतिक इच्छा शक्ति के इन्हें लागू करना कहां संभव होता है। लागू करे भी कौन? सरकार और प्रशासन के वर्ग हितों के खिलाफ जाकर क्या लागू होता है। लेकिन अब ज़मीन खाली करने का सरकारी नोटिस आ धमका। अगर खाली नहीं करेंगे, तो सरकार खाली करायेगी पूरा खर्चा भी आपसे लेगी। मराठवाड़ा के भूमिहीन दलित और आदिवासी इसके खिलाफ आंदोलित हैं। 

आंदोलन जारी है

इस आंदोलन में मानवत की गंगू बाई भी शामिल हैं जिसके पति दशरथ राघोजी 1986 में तीन महीने इसी ज़मीन को लेकर जेल में रहे थे, आशा थी की जिस ज़मीन पर आंदोलन से उन्होंने अपनी उम्मीदों की फसल बोई थी, जिसके लिए जेल में रहे, आज तक जेल में रहने के सबूत और छूटने के प्रमाण किसी अनमोल खजाने की तरह संभाल कर रखे,उनके नाम हो जाएगी लेकिन वह ज़मीन आज उनकी पत्नी से छिनती नज़र आ रही है।

दशरथ राघोजी आज इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनकी पत्नी दस्तावेजों के साथ आंदोलन में शामिल है। दुखी है कि सारी ज़िन्दगी ज़मीन उनके नाम नहीं हो सकी, कई सरकारें आई, कई विधायक और सांसद इनके मतों से जीते लेकिन इनका हक़ नहीं मिला। लेकिन साथ ही हिम्मत और विश्वास है, दृढ़ संकल्प झलकता है, बूढ़ी आंखों में।

साफगोई से कहती हैं आंदोलन से ज़मीन पर कब्ज़ा किया था, खून पसीने से सींचा है और संघर्ष से ही न केवल बचाया जायेगा बल्कि कानूनी हक़ भी हासिल किया जायेगा। कानून इंसानी ज़िन्दगी से बड़े नहीं हो सकते।   

यह इतना बड़ा मुद्दा है जिससे पूरे देश में लाखो लोग प्रभावित हो रहे हैं, कुछ अभी और कुछ बाद में। लेकिन किसी भी सरकार या राजनीतिक पार्टी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। किसी ने प्रयास नहीं किया कि उच्चतम न्यायालय के आदेश पर स्पष्टीकरण दिया जाये। पिछले आदेशों को इस तरह से लागू करने से पैदा हुई स्थिति में ताजा निर्देश देने के लिए शीर्ष अदालत से अपील की जाए।

उल्टा न्यायालय का डर दिखाकर लोगो को मज़बूर किया जा रहा है, आन्दोलनकारियो को प्रताड़ित किया जा रहा है, राजनेता आसानी से अपनी जिम्मेवारी से बच रहे हैं। केंद्र सरकार ने वैसे तो दिल्ली में राज्य के अफसरों के नियंत्रण के अधिकार के मामले में अदालत के फैसले को पार पाने के लिए केंद्रीय अध्यादेश लाया लेकिन जब बात गरीब भूमिहीन जनता की हो तो अदालत का फैसला बड़ा हो जाता है।

संघर्ष से ही ज़मीन की मालकियत मिलेगी

बात सीधी है, ज़मीन वर्ग हितों से जुड़ी है। देश की आज़ादी ने जो सपना दिखाया था कि सबको अपने हिस्से की ज़मीन मिलेगी वह भी सरकारों ने नहीं दी। जनता को दिखावे के लिए केवल कुछ भूमि सुधारों के कानून बनाये जो कभी सही से लागू नहीं किये। लागू केवल वहीं हुए जहां मेहनतकश की ताकत सरकारों में थी मसलन केरल, बंगाल, त्रिपुरा और जम्मू और कश्मीर।

बाकी पूरे देश में ग्रामीण सर्वहारा ने अपने आंदोलनों से ज़मीन पर कब्ज़ा भी किया और इसका क़ानूनी हक़ और कागज भी लिए। लेकिन राज करने वाला वर्ग भी कहां पीछे हटता है। उसके पास तो राज्य शासन के हथियार हैं। दशकों बीत जाने पर भी जब मौका मिलता है आम भूमिहीनों को बेदखल करता है। यह बताने की जरुरत नहीं कि भूमिहीनों में आदिवासी और दलित सबसे ज्यादा है।

इसी तरह का मौका मिला है शासक वर्ग को शीर्ष न्यायालय के आदेश से, जिसको अपने वर्ग हितों के अनुसार वह परिभाषित कर रह है। लेकिन ग्रामीण सर्वहारा वर्ग को भी अपने हितों के लिए लड़ना होगा। एक पीढ़ी ने 1970 से 1980 के दशक में ज़मीन पर खेती शुरू की थी। आंदोलन से अपने हिस्से के ज़मीन ली थी। महाराष्ट्र सरकार ने आदेश के जरिये 14 अप्रैल 1990 से पहले के कब्जों को नियमित करने की बात कही।

लेकिन हमें याद करना होगा जब विधानसभाओं द्वारा पारित भूमि सुधार कानून लागू नहीं हुए थे, इसके लिए आंदोलन ही सहारा था। अभी भी हमारी पिछली पीढ़ी जिनमें से कई हमारे बीच नहीं है, के आंदालनों को हमें आगे बढ़ाना होगा। उन्होंने ज़मीन पर कब्ज़ा लिया था, इस पीढ़ी को आंदोलन के जरिये उसकी कानूनी मालकियत लेनी होगी। और यह किसी की दया से नहीं बल्कि ग्रामीण सर्वहारा की एकता और संघर्ष से होगा। मराठवाड़ा में यह आंदोलन इसी दिशा में आगे बाद रहा है।

( विक्रम सिंह विक्रम सिंह, अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव हैं।

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