आजमगढ़। 8 अगस्त को उत्तर प्रदेश के तकरीबन 10,000 निजी स्कूल बंद रखे गए थे। निर्णय ‘अनएडेड प्राइवेट स्कूल एसोसिएशन’ (उपसा) ने लिया था, क्योंकि आजमगढ़ के चिल्ड्रेन गर्ल्स काॅलेज, हरबंशपुर की प्रधानाचार्या और कक्षा 11 के क्लास-टीचर को लापरवाही और साक्ष्य मिटाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था, जब कक्षा 11 की एक बच्ची ने स्कूल की तीसरी मंज़िल से कूदकर 31 जुलाई को अपनी जान दे दी।
उपसा के अध्यक्ष का कहना है कि जांच से पहले गिरफ्तारी की गई, पर ऐसा बिना जांच के नहीं किया जाना चाहिये। उनके अनुसार यदि किसी छात्रा ने गलत किया है तो पूरी जिम्मेदारी स्कूल प्रशासन पर कैसे डाली जा सकती है? क्या इनकी बात से सहमत हुआ जा सकता है?
क्या हुआ था श्रेया तिवारी के साथ?
आइये समझने की कोशिश करें कि पूरा मामला था क्या? 28 जुलाई शुक्रवार को स्कूल की सभी कक्षाओं में चेकिंग चल रही थी। बताया जाता है कि प्रतिदिन छात्राओं के बैग, मोज़े-जूते, जेब आदि को खंगाला जाता था कि कोई अवांछित सामान स्कूल में न लाये। कुछ छात्राओं ने मीडिया को बताया कि श्रेया के बैग से एक मोबाइल फोन और ‘‘प्रोटेक्शन’’ पाया गया था। श्रेया का कहना था कि यह सामान उसका नहीं, किसी और लड़की का था और शायद डरकर उसने श्रेया के बैग में डाल दिया।
कुछ छात्राओं ने बताया कि इसके बाद श्रेया को कक्षा के सामने खड़ा करके ज़लील किया गया। बाद में उसे सभी कक्षाओं में घुमाया गया और छात्राओं को बताया गया- ‘‘देखो, ये कैसी लड़की है स्कूल में क्या-क्या लाती है।’’ शनिवार और रविवार को स्कूल बंद रहा और सोमवार को लंच के बाद प्रधानाचार्या ने श्रेया को कार्यालय में तलब किया। वह दो पीरियड तक क्लास में वापस नहीं आई। बाद में जब स्कूल में अफरा-तफरी मची तो छात्राओं को बताया गया कि कोई लड़की तीसरी मंज़िल से गिर गई है।
एक छात्रा ने देखा कि उसको स्कूटर के पीछे बैठाकर कहीं ले जाया गया। वह खून से लथपथ थी और शरीर एकदम बेजान था। श्रेया के पिता कहते हैं कि उनसे क्लास टीचर ने 12 बजे उनकी बेटी के संबंध में कई सवाल पूछे फिर कहा कि पत्नी का नंबर दे दें। पत्नी ने बताया कि उन्हें भी कुछ न बताकर केवल स्कूल आने को कहा गया। पर जब वह प्रधानाचार्या के ऑफिस पहुंचीं तो उन्हें बताया गया कि बेटी मर गई है।
अभिभावक संघ ने विरोध में निकाले जुलूस
काॅलेज प्रधानाचार्या और श्रेया के क्लास टीचर की गिरफ्तारी होते ही उपसा ने निजी स्कूलों की बंदी का फैसला लिया, जबकि प्रशासन से इस बारे में कोई बात नहीं की गई, न ही उनकी अनुमति ली गई। अभिभावकों का कहना है कि यह अवैध कार्रवाई है और इसके लिये योगी सरकार को सख़्त कार्रवाई करनी चाहिये। उन्होंने तय किया कि 9 तारीख को सभी निजी स्कूलों के बच्चे विद्यालय न जाएं और अभिभावक जिलाधिकारी को ज्ञापन सौंपें कि सभी संबंधित कर्मचारियों की जांच हो और कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए। उन्होंने मुख्यमंत्री को भी पत्र लिखा है।
टीचर-छात्राएं डर कर विद्यालय प्रशासन का दे रहीं हैं साथ
सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि जिन छात्राओं की सुरक्षा के लिये लड़ाई जारी है वे स्वयं अपने विद्यालय के प्रशासन को बचाने में जुट गई हैं। कारण एक ही हो सकता है कि अधिकतर लड़कियां जो कक्षा 11 और 12 में हैं, बोर्ड की परीक्षा के लिए तैयारी में लगी हैं और यदि कुछ भी कहने पर उन्हें निलंबित कर दिया जाता है तो उनके दो साल बर्बाद हो जाएंगे। टीचर भी निकाले जा सकते हैं। उन्हें स्कूल प्रशासन ने पहले ही इस बाबत चेतावनी दी होगी। एक छात्रा ने अपना चेहरा ढककर कहा कि श्रेया बहुत हंसमुख और खुशमिजाज़ लड़की थी। बिना कोई भयंकर टार्चर के वह आत्महत्या नहीं कर सकती।
श्रेया की मां ने बताया कि उनकी बेटी के कपड़े फटे थे और बाल खिंचे हुए थे। वह प्रिंसिपल कार्यालय के बाहर 12 बजे से करीब 1.15 बजे तक खड़ी थी, इस बात की भी पुष्टि सीसीटीवी कैमरा के फुटेज से पुलिस ने की है। क्या ऐसी स्थिति में छात्राओं और अध्यापकों को ब्लैकमेल कर अपने पक्ष में कर लेना खतरनाक नहीं है? कल श्रेया की जगह क्या कोई और लड़की नहीं हो सकती? क्या सभी निजी स्कूलों का एकजुट होकर दबाव बनाना और धमकी देना डरावना नहीं लगता? आखिर बच्चियों की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित होगी?
क्या नियमों को धता बताकर प्राइवेट स्कूल चलाएंगे मनमानी?
सबसे पहले तो सवाल उठता है कि निजी स्कूलों पर किसके नियम-कानून चलेंगे? भारत में तकरीबन 3 लाख 36 हज़ार निजी विद्यालय हैं। इनमें कुछ नामी ग्रुप हैं- दिल्ली पब्लिक स्कूल, सनबीम स्कूल, रायन इंटरनेशनल स्कूल, डाॅन बाॅस्को, सेन्ट जोसेफ, सेन्ट मेरीज़ स्कूल, आदि। इन सभी प्राइवेट विद्यालयों में दिखावा और फीस बहुत अधिक होती है, और सरकार का इस पर कोई नियंत्रण नहीं होता। इनमें अक्सर मानकों का पालन भी नहीं किया जाता है क्योंकि इन विद्यालयों का मकसद बन जाता है लाखों करोड़ों का मुनाफा कमाना और अपने स्कूल की शाखाएं कई शहरों में खोलकर हजारों छात्र-छात्राओं को भर्ती करते जाना। भर्ती भी मेरिट पर कम किसी ‘सोर्स’ के माध्यम से या ‘डोनेशन’ देकर हो जाती है।
2017 में गुरुग्राम के रायन इंटरनेशनल स्कूल में एक 7 वर्षीय बच्चे की हत्या विद्यालय प्रांगण में हुई थी तो काफी हंगामा हुआ था, पर स्कूल प्रशासन ने बस ड्राइवर को फंसाकर बचना चाहा था। अब तक मामला सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है। सीबीएसई के अनुसार स्कूल में बच्चों की सुरक्षा का कोई पुख्ता इंतज़ाम नहीं था और स्कूल प्रशासन की लापरवाही के चलते बच्चे की मौत हुई थी।
इसी तरह मार्च में एरनाकुलम के ज्योतिष सेंट्रल स्कूल से 30 बच्चे सैर पर गए थे, जिनमें से 3 तीन कक्षा 9 के छात्र इडुक्की के तालाब में गिरकर डूब गए थे। स्कूल पर लापराही का चार्ज लगा था। दिसंबर 2022 में बंगलुरु के एक निजी स्कूल में सीबीएसई साउथ ज़ोन की प्रतियोगिता की प्रैक्टिस कर रहे एक 12वीं कक्षा के छात्र को पास में रखे बिजली के तार से करेंट लगा और मौत हो गई। ये बड़े-बड़े विद्यालय हैं जिनका नाम है। ऐसी घटनाएं जब घट जाती हैं तो आनन-फानन में जांच समितियां गठित हो जाती हैं और मामला न्यायालय तक पहुंच जाता है।
पर स्कूल प्रशासन के पास न तो पैसे की कमी होती है न ही उच्च पदों पर बैठे लोगों के समर्थन की, क्योंकि अधिकतर विद्यालय नेताओं व उद्योपतियों द्वारा चलाए जाते हैं। तो प्रबंधन का बाल-बांका नहीं होता। दूसरे, बड़े पदों पर आसीन लोगों के बच्चे भी ऐसे ही स्कूलों में पढ़ते हैं क्योंकि उन पर ‘एलीट’ होने का टैग लगा होता हैं। तीसरे, सरकारी विद्यालयों का स्तर इतना गिरा हुआ होता है कि आम मध्यम वर्गीय, यहां तक कि निम्न मध्यम वर्गीय परिवार भी अपने बच्चों को वहां भेजना नहीं चाहते। और तो और, सरकारी अफसर कभी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजना नहीं चाहते।
बच्चों के मनोविज्ञान को समझें, उनको अवसाद में न ढकेलें
इलाहाबाद के एक सरकारी कन्या विद्यालय की अध्यापिका और शिक्षक संघ की नेता शिवानी भनोट ने कहा, ‘‘जो कुछ हुआ वह गलत था क्योंकि बिना पहले अभिभावकों से बात किये बच्चों को बेइज्ज़त करना, उन्हें 1 घंटे बाहर खड़ा करके सज़ा देना अवसाद पैदा कर सकता है और आत्महत्या के लिए उत्प्रेरित कर सकता है। बच्ची को गाड़ी से अच्छे अस्पताल भेजा जा सकता था। शायद वह बच भी जाती’’। उन्होंने बताया कि उनके विद्यालय में भी बच्चे बहुत कुछ गलत करते हैं, पर माता-पिता, क्लास टीचर और प्रधानाचार्य के अलावा किसी को भनक तक नहीं लगती।
मऊ में एक इंटर काॅलेज की अध्यापिका ऊषा सिंह कहती हैं, ‘‘समय तेज़ी से बदल रहा है। बच्चे मोबाइल के बिना एक घंटे भी नहीं रह पाते क्योंकि कोविड-19 महामारी के समय क्लास मोबाइल पर ही अटेंड किए जाते थे। 2 सालों में आदत बन गई हर कुछ मोबाइल पर करने की। इस पर अभिभावकों और बच्चों के साथ चर्चा होनी चाहिये ताकि बच्चों की मोबाइल पर निर्भरता कम हो सके। यह तो एक विश्व व्यापी समस्या बन चुकी है।’’
सभी स्कूलों के लिए एक ही मानक हों, उनका कड़ाई से पालन हो
अभी तो जिले के पुलिस प्रशासन ने एक 4 सदस्यीय जांच टीम का गठन कर दिया है, जिसने विद्यालय में घटनास्थल का मुआयना किया और प्रांगण को सील कर दिया। पर प्रधानाचार्या और अध्यापक जमानत पर बाहर आ गए। उनके लिए जांच को प्रभावित करना बेहद आसान है और टीचर व छात्राएं तो पहले से ही डरकर प्रशासन के पक्ष में बोल रही हैं। कुछ गिनी-चुनी छात्राओं ने पहले यह बात बताई थी कि उनकी सहपाठी को बहुत ज़लील किया गया था।
एक वीडियो भी वायरल हुआ है जिसमें एक लड़की पूरी कहानी किसी दूसरे को फोन पर बता रही है। सीसीटीवी तो हर कमरे और बाहर भी लगे थे। इन साक्ष्यों के आधार पर जांच को 15 दिन की अवधि में टाइम-बाउंड तरीके से पूरा किया जाना चाहिये। उपसा द्वारा जबरन सभी स्कूल बंद कराने पर कड़ी चेतावनी दी जानी चाहिये व इस चेतावनी को सभी अख़बारों में प्रकाशित किया जाना चाहिये।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के अनुच्छेद 17 (1) व 17 (2) के तहत बच्चों को शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना देना दंडनीय अपराध है- इसका पालन हो। स्कूलों में अनुशासन कायम करने के लिए नियम बनाए जाएं। बच्ची के परिवार को 10 लाख मुआवज़ा दिया जाना चाहिये।
आश्चर्य की बात है कि अब तक प्रमुख छात्र-युवा संगठन चुप्पी साधे हुए हैं, जबकि उन्हें अन्दोलन की अगुआई करनी चाहिये और प्रशासन पर दबाव बनाना चाहिये ताकि त्वरित व निष्पक्ष जांच हो और श्रेया के परिवार को न्याय मिले। साथ ही आगे ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।
(कुमुदिनी पति, सामाजिक कार्यकर्ता हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ की उपाध्यक्ष रही हैं।)