Friday, April 26, 2024

आरक्षण पर सु्प्रीम कोर्ट के अजीबोगरीब रुख पर विपक्षी दलों ने जताया कड़ा एतराज, कहा- सरकार करे मामले को दुरुस्त

नई दिल्ली। आरक्षण संबंधी सुप्रीम कोर्ट के बयान को लेकर पूरे देश में बवाल उठ खड़ा हुआ है। कोर्ट ने अपने बयान में कहा है कि राज्य सरकारें नियुक्तियों और प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं हैं। इसके साथ ही उसने कहा है कि प्रमोशन में आरक्षण मुहैया कराना मूल अधिकार का हिस्सा नहीं है।

जस्टिस एल नागेश्वर राव और जस्टिस हेमंत गुप्ता की एक बेंच ने इस मसले पर एक पुराने फैसले का हवाला देते हुए कहा कि ‘ आर्टिकिल 16(4) और 16 (4-A) इस तरह के स्वभाव वाले प्रावधान हैं जिनमें आरक्षण मुहैया कराने का फैसला राज्यों के विवेधिकार में निहित है। और यह सब कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यह पहले से निश्चित कानून है कि राज्यों को सरकारी नियुक्तियों में आरक्षण देने के लिए निर्देशित नहीं किया जा सकता है। उसी तरह से राज्य प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं हैं।’

बेंच ने आगे कहा कि अगर फिर भी कोई राज्य सरकार अपने विवेकाधिकार का प्रयोग कर उसे लागू करना चाहती है तो सबसे पहले उसे प्रतिनिधित्व की कमी का डेटा इकट्ठा करना होगा।

इसके साथ ही कोर्ट ने कहा कि अगर प्रमोशन में आरक्षण देने के राज्य के फैसले को कहीं चुनौती दी जाती है तो संबंधित राज्य को उस डाटा को दिखाना होगा जिसको उसने प्रतिनिधित्व की कमी के मामले में इकट्ठा किया है। और उसे कोर्ट को इस बात के लिए निश्चिंत करना होगा कि किसी खास वर्ग के पदों पर प्रतिनिधित्व की कमी को देखते हुए अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति का आरक्षण बहुत जरूरी है और इससे प्रशासन की सामान्य क्षमता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

सु्प्रीम कोर्ट ने यह फैसला उत्तराखंड में पीडब्ल्यूडी के एक असिस्टेंट इंजीनियर की पोस्ट पर प्रमोशन के मामले की सुनवाई करने के बाद दिया।

कोर्ट का कहना था कि आर्टिकिल 16 और 16 (4-A) राज्य सरकारों को इस बात के लिए अधिकृत करता है कि राज्य की सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने पर वह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को नियुक्तियों और प्रमोशन में आरक्षण दे सकता है।

फैसले में कहा गया है कि आरक्षण देने या फिर न देने का निर्णय राज्य सरकार के ऊपर है।

कोर्ट का कहना है कि राज्य का इस पर अपना विचार हो सकता है। और इस विचार के निर्माण के पीछे उसके कोई तर्क हो सकते हैं जो किसी आयोग, कमेटी या फिर व्यक्ति की रिपोर्ट पर आधारित होंगे। इस मामले में एक बात निश्चित है कि इस तरह के किसी भी विचार के पीछे उसके कोई ठोस कारण होंगे। लिहाजा अदालतों को उस विचार को पर्याप्त तवज्जो देना होगा। लेकिन कोर्ट ने साथ ही ये भी कहा कि इस तरह की कोई राय न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं हो सकती है।

डाटा को इकट्ठा करने की जरूरत के मामले में कोर्ट का कहना था कि यह केवल अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति की नियुक्तियों और प्रमोशन के मामले में ही जरूरी होगा। और यह उस स्थिति में जरूरी नहीं होगा जब राज्य सरकारों ने आरक्षण नहीं देने का फैसला कर लिया है।

राजनीतिक खेमे में इस को लेकर तीखी प्रतिक्रिया हुई है। कांग्रेस और लेफ्ट ने इसका तीखा विरोध किया है। साथ ही आरजेडी और सपा ने भी इस पर गहरा एतराज जाहिर किया है। यहां तक कि एलजेपी के सांसद चिराग पासवान ने भी इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जतायी है।

कांग्रेस ने कहा कि वह इस मामले को संसद में उठाएगी। और बाहर सड़क पर इसके लिए आंदोलन करेगी। साथ ही उसने कहा कि केंद्र सरकार को इस पर सुप्रीम कोर्ट से बातचीत करनी चाहिए। एक प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए कांग्रेस नेता मुकुल वासनिक ने कहा कि पार्टी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सहमत नहीं है। उन्होंने कहा कि बीजेपी के शासन में दलितों के अधिकारों पर हमला हो रहा है।

जबकि सीपीएम ने कहा कि केंद्र सरकार को संविधान में इस तरह की रह गयी कमी को दूर करना चाहिए जिससे कोई उसके प्रावधानों की ऐसी गलत व्याख्या नहीं कर सके। उसने कहा कि इस व्याख्या को दुरुस्त करने के लिए सभी कानूनी प्रावधानों को आजमाया जाना चाहिए।

एलजेपी सांसद चिराग पासवान ने केंद्र सरकार से अनसूचित जाति-जनजाति को आरक्षण मिले इसको सुनिश्चित करने के लिए हर तरह का उपाय करने की मांग की।

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