पिछले दिनों जब अचानक संसद का विशेष सत्र बुलाया गया, तो उसके एजेंडा को लेकर देश में तरह तरह की आशंकाएं तैरने लगीं थीं। बहरहाल, इसमें मोदी जी महिला आरक्षण का ‘सरप्राइज’ लेकर आये। डरे हुए देश ने राहत की सांस ली। दरअसल, लोगों के लिए महिला आरक्षण से बड़ा सुखद ‘ सरप्राइज ‘ यह था कि सत्र के दौरान संविधान से छेड़छाड़ की आशंका निर्मूल साबित हुई थी। लेकिन लगता है कि वह राहत स्थायी नहीं साबित होगी।
अनुमान है कि विशेष सत्र के लिए सत्ता के अंतःपुर में कई विकल्पों पर विचार हुआ था। लेकिन अन्य विकल्प ऐसे असाध्य अंतर्विरोधों में लिपटे हैं कि रणनीतिकार उन्हें आजमाने की तब हिम्मत नहीं जुटा पाए, और महिला आरक्षण को तुलनात्मक रूप से सुरक्षित और फायदेमंद मानकर आगे बढ़ा दिया गया।
लेकिन, महिला आरक्षण कानून को लेकर कुल मिलाकर जो नैरेटिव बनता जा रहा है, उससे लगता है कि भाजपा को बड़े फायदे की बात तो दूर, नुकसान हो सकता है। इसके चुनावी potential का ठोस परीक्षण विधानसभा चुनावों में हो जाएगा।
इसीलिए, महिला आरक्षण को लेकर मोदी जी खुद भले अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, लेकिन उत्साहवर्धक फीडबैक न मिलने से चिंतित संघ-भाजपा रणनीतिकार प्लान बी पर काम कर रहे हैं, जिसे विधानसभा चुनावों के नतीजे के बाद मूर्त रूप दिया जा सकता है।
इंडियन एक्सप्रेस में सूत्रों के हवाले से छपी खबर के अनुसार 22वां लॉ कमीशन अपनी रिपोर्ट में “एक राष्ट्र, एक चुनाव” की संस्तुति करते हुए 2024 और 2029 के चुनावचक्र के लिए tentative timeline frame करने वाला है। उधर India Today के अनुसार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस ऋतुराज अवस्थी ने बताया है कि रिपोर्ट को अंतिम रूप देने में कुछ और समय लगेगा। सूत्रों के अनुसार यह संविधान के मौजूदा फ्रेमवर्क में सम्भव नहीं है, रिपोर्ट इसके लिए Representation of People’s Act, 1951 में संशोधन प्रस्तावित करेगी। आयोग के सूत्रों के अनुसार यह सब 2024 चुनाव के पूर्व feasible नहीं लगता। तो क्या इस आधार पर ‘राष्ट्रहित’ में 2024 के चुनाव टाले जाएंगे?
उधर पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता में इसी उद्देश्य के लिए मोदी जी द्वारा बनाई गई उच्च स्तरीय कमेटी ने 23 सितंबर को पहली बैठक करके लॉ कमीशन तथा राजनीतिक दलों की राय मांगी है।
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की क्रोनोलॉजी अपनी कहानी खुद ही कहती है। इस पर गौर करने से इस मुद्दे पर सरकार की बदलती सोच को समझने में मदद मिलेगी।
दरअसल, 2019 चुनाव के पूर्व 2018 में सरकार ने 21वें लॉ कमीशन से वह मसौदा रिपोर्ट हासिल कर ली थी जिसमें ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की संस्तुति की गई थी। लेकिन उस मसौदा रिपोर्ट में मामले की जटिलता के मद्देनजर इस पर सभी stake-holders से राय-मशवरा करके अंतिम रिपोर्ट तैयार करने की बात कही गयी थी। बहरहाल इसी बीच असाधारण परिस्थितियों में कराए गए 2019 के चुनाव में मोदी जी की पुनर्वापसी हो गई। 21वें लॉ कमीशन का टर्म खत्म हो गया और सरकार के लिए फिलहाल ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की जरूरत खत्म हो गई।
फरवरी 2020 में 22वें लॉ कमीशन का गठन हुआ लेकिन ढाई साल तक उसमें कोई अध्यक्ष ही नहीं नियुक्त किया गया था, क्योंकि शायद सरकार को उसकी जरूरत नहीं थी। बहरहाल विपक्ष की बढ़ती गोलबंदी तथा प्रतिकूल होते राजनीतिक माहौल के anticipation में, जब सरकार को फिर ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की जरूरत महसूस हुई, तब नवम्बर 2022 में अध्यक्ष की नियुक्ति हुई, जबकि 3 महीने बाद ही इसका tenure खत्म होने वाला था। अब, सम्भवतः खास एजेंडा के तहत इसका कार्यकाल 2024 तक बढ़ा दिया गया है।
पूरी picture complete तब होती है, जब इसके साथ जनसंख्या आधारित जिस परिसीमन (delimitation ) पर सरकार की निगाह है उसे साथ मिलाकर देखा जाय। दरअसल जनसंख्या आधारित परिसीमन से उत्तर भारत के राज्यों की सीटें दक्षिण के राज्यों की तुलना में काफी बढ़ जाएंगी।
एक गणना के अनुसार 20 लाख प्रति सांसद सीट के आधार पर UP और उत्तराखंड मिलाकर सीटें 85 से बढ़कर 126 पहुंच जाएगी तो बिहार और झारखंड की 54 से बढ़कर 85, राजस्थान की 25 से बढ़कर 41 ही जाएंगी, वहीं केरल की 20 से घटकर 18 रह जाएंगी तथा तमिलनाडु की 39 की 39 ही रहेंगी। दक्षिण भारत के राज्यों को अपने घटे प्रतिनिधित्व का ” ईनाम ” इसलिये मिलेगा क्योंकि उन्होंने बेहतर आर्थिक-शैक्षणिक विकास के माध्यम से अपनी जनसंख्या वृद्धि को बेहतर ढंग से नियंत्रित किया है।
दरअसल, दक्षिण भारतीय दलों के भारी विरोध के कारण परिसीमन प्रक्रिया पिछले 50 वर्ष से फ्रीज है, पहले 1971 में 30 वर्ष और फिर 2001 में 25 वर्ष के लिए टाले जाने के बाद अब वह 2026 तक नहीं होनी है, उसके बाद अगर यह और टाली नहीं जाती तो 2026 के बाद होने वाली नई जनगणना के आधार पर परिसीमन हो सकता है।
साफ है कि उत्तर भारत के राज्यों में अगर भाजपा का प्रभुत्व और विपक्ष की कमजोरी आगे भी बनी रहती है तो परिसीमन से भाजपा को जबरदस्त फायदा होगा, जबकि दक्षिण भारत के दलों तथा विपक्ष को भारी नुकसान होगा।
इसी बीच आनन फानन में संसद से पास हुए महिला आरक्षण को परिसीमन से नत्थी करके भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश की है।
सच यह है कि महिला आरक्षण के लिए जनगणना और परिसीमन की शर्त का कोई औचित्य/ तर्क नहीं था। लेकिन वह सरकार जो जाति-जनगणना से बचने के लिये जनगणना ही नहीं करवा रही है, वह महिला आरक्षण के लिए जनगणना और परिसीमन की शर्त लेकर आ गई।
वह इसके माध्यम से परिसीमन के लिए, जो उसके अपने लिए बेहद फायदेमंद है, विपक्षी दलों पर राजी होने के लिए दबाव बनाना चाहती है। वरना उनके ऊपर तोहमत मढ़ेगी कि वे परिसीमन का विरोध करके महिला आरक्षण को लागू नहीं होने देना चाहते!
अभी जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं, वहां से आने वाले चिंताजनक संकेतों ने भाजपा के लिए खतरे की घण्टी बजा दी है।
5 राज्यों के विधानसभा चुनाव में, जिन्हें आम चुनाव के पहले सेमी फाइनल माना जा रहा है, यदि निराशाजनक परिणाम आता है तो क्या मोदी-शाह 4 महीने बाद लोकसभा चुनाव में उतरना afford कर पाएंगे?
क्या तब चुनाव टालने के प्रयास होंगे?
क्या उसके लिए ‘राष्ट्रीय हित’ में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की परियोजना का बहाना बनाया जाएगा? उसके लिए संविधान से छेड़छाड़ की जाएगी?
क्या चुनाव अंततः तब करवाया जाएगा जब परिसीमन के माध्यम से भाजपा अपने मजबूत उत्तर भारतीय राज्यों की सीटें बढ़वा लेगी, साथ ही उसके आधार पर महिला आरक्षण लागू करवाने का श्रेय लूट लेगी?
क्या कोई ऐसी असाधारण परिस्थिति पैदा की जाएगी जिसमें भाजपा समय पर चुनाव करवा कर जीत के प्रति आश्वस्त हो सकेगी, अथवा ऐसा न होने पर किसी बहाने चुनाव टाल दिए जाएंगे?
इन सारे सवालों का जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है। पर यह साफ है कि संसद का विशेष सत्र सुरक्षित बीत जाने से यह निष्कर्ष निकालना कि संविधान के लिए खतरा टल गया है, मासूमियत होगी।
आने वाले दिन हमारे लोकतन्त्र के लिए बेहद चुनौती पूर्ण होने वाले हैं, भारतीय जनगण, नागरिक समाज तथा विपक्ष को लोकतन्त्र की रक्षा के लिए निर्णायक लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष रहे हैं।)
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