Saturday, April 20, 2024

द हिंदू की रिपोर्ट: हसदेव अरण्य में अडानी के कोयला खनन ने कैसे जन-जीवन और पर्यावरण को तबाह किया

द हिंदू की रिपोर्ट: हसदेव अरण्य में अडानी के कोयला खनन ने कैसे जन-जीवन और पर्यावरण को तबाह किया

2016 की चिलचिलाती गर्मी के मौसम में छत्तीसगढ़ के मोहर साई को कंपनी से नौकरी का प्रस्ताव मिला। जिन्होंने अपने 43 साल की जिंदगी में समूचा जीवन ही सरजुगा जिले के सल्ही पंचायत में पड़ने वाले हरिहरपुर गांव में बिता दिया था। 9,000 प्रतिमाह के बदले में उन्हें उन कोयला साइटों का हिसाब रखना था, जहां पर ब्लास्टिंग का काम चल रहा होता है। यहां पर कंपनी से आशय ‘अडानी इंटरप्राइजेज लिमिटेड’ से है। जो पिछले एक दशक से ‘परसा ईस्ट’ और ‘केंटे बासन कोल ब्लॉक्स’ में खनन के काम में जुटी हुई है।

पिछले एक वर्ष से भी अधिक समय से स्थानीय लोगों द्वारा खनन के खिलाफ हरिहरपुर के प्रवेशद्वार पर धरना प्रदर्शन आयोजित किया जा रहा है। जिसमें आमतौर पर गोंड जनजाति के के हरिहरपुर, घाटबर्रा और फत्तेहपुर गांव के लोग हैं।

मार्च 2022 में छत्तीसगढ़ सरकार ने परसा कोल ब्लॉक के विस्तार के लिए प्रोजेक्ट की मंजूरी प्रदान कर दी थी। जो हरिहरपुर के अंदर तक खनन करेगी। यहां पर करीब 2 लाख पेड़ों को कटाई के लिए चिन्हित किया गया है। ये खदानें फत्तेहपुर से लेकर घटबर्रा तक जाने वाली हैं। 

2007 में ‘अडानी इंटरप्राइजेज लिमिटेड’ (74%) और ‘राजस्थान राज्य विद्युत् उत्पादन निगम लिमिटेड’ (आरआरवीयूएनएल) के एक संयुक्त उपक्रम के रूप में ‘परसा केंटे कोयलरी लिमिटेड’ (पीकेसीएल) का गठन किया गया था। इसके अगले वर्ष ‘अडानी माइनिंग प्राइवेट लिमिटेड’ (अडानी इंटरप्राइजेज लिमिटेड के संपूर्ण स्वामित्व) को खनन कार्य एवं संचालन का ठेका दिया गया। यह काम वित्त वर्ष 2013-14 में शुरू हुआ, और यह अनुबंध 30 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया। जिसमें प्रति वर्ष 1.5 करोड़ टन कोयला खनन की अनुमति प्राप्त है।

ये गांव एक तरफ कोयला खदानों तो दूसरी तरफ हसदेव अरण्य के घने जंगल के बीच में स्थित हैं। पिछले एक दशक से भी अधिक समय से खनन का विरोध कर रहे छत्तीसगढ़ के पर्यावरण कार्यकर्त्ता अलोक शुक्ला का कहना है, “खनन से हसदेव अरण्य में करीब 8 लाख साल के जंगल पूरी तरह से नष्ट हो जायेंगे, जिसके चलते हसदेव नदी के आसपास का इलाका बुरी तरह से प्रभावित होगा।” द हिंदू अखबार ने जब यह प्रश्न अडानी समूह के सामने रखा तो उनकी ओर से इसका कोई जवाब नहीं आया। 

कोयले से उपजा संघर्ष 

साईं ने इस कंपनी में नौकरी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और आज वे प्रतिमाह 15,000 रूपये कमा रहे हैं और खदान में काम से पदोन्नत होकर ऑफिस वाले काम पर तैनाती हो गई है। इससे पहले उनके पास 67 एकड़ की खेती थी और 23 एकड़ से जंगल के उत्पाद इकट्ठा किया करते थे। जिसके लिए उनके पास व्यक्तिगत वनाधिकार मिला हुआ है। इतना उनके परिवार के भरण-पोषण के लिए काफी था।  

जिस वर्ष उनके नौकरी का प्रस्ताव दिया गया था, उन्हें यह भी अहसास हुआ था कि खदान ने उनकी वन भूमि निगल ली है। साईं ने बताया, “मुझे इस बारे में जिला प्रशासन द्वारा कभी भी अधिसूचित नहीं किया गया कि मेरा ‘ऍफ़आरए पट्टा’ निरस्त या इस पर रोक लगा दी गई है।” साथ ही वे कहते हैं कि उन्हें अब लगता है कि कंपनी वाले उस समय जो भी पैसा दे रहे थे (6 लाख रूपये) यदि उस पर राजी हो जाता तो यह बेहतर होता। साईं को अपनी नौकरी जाने का भय सताता रहता है और वे हड़ताल में हिस्सा नहीं लेते।

अपने साप्ताहिक अवकाश के दिन वे एक सफेद कमीज और नीली जींस की पैंट पहने अपने घर के बारामदे पर बैठे हैं, जबकि उनकी पत्नी मयूरी अपने घर के पीछे महुआ बीन रही होतीं हैं। इसके आगे के हिस्से की जमीन ‘कोल माइंस’ के हिस्से में आती है। वे बताती हैं, “इस बार फल पहले की तुलना में कम हैं।” महुआ को उबालकर चुलाया जाता है। 

साईं के अनुसार, जब इसकी शुरुआत हुई तो ब्लास्टिंग का काम कुछ एकड़ दूर होता था। 2018 के बाद से धीरे-धीरे यह पास आने लगा। 2020 से तो घर के चारों तरफ पत्थर और कोयले के टुकड़े ही आ टपकते हैं। जब कभी भी हम कपड़े सुखाने के लिए बाहर डालते हैं, तो उनमें कोयले की धूल की परत जमी होती है। आज के दिन खदान की दूरी उनके आंगन से 100 मीटर से भी कम रह गई है। 

अब जब कभी भी साईं अपने पशुओं को घास चराने के लिए ले जाते हैं तो चाहे कोई भी जंगल हो, वहां उन्हें पेड़ों के ठूंठ पर ताजा काले रंग की पुताई नुमाया होती है। उनके काटे जाने के चिन्ह के तौर पर 1507, 1509…” जैसी श्रृंखला अंकित होती है।   

जिस दौरान खनन कार्य शुरू हो रहा था, तब पेड़ों को बचाने की एक कोशिश की गई थी। छत्तीसगढ़ के कार्यकर्त्ता सुदीप श्रीवास्तव द्वारा दाखिल की गई एक याचिका के आधार पर, 2014 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने खनन लाइसेंस पर रोक लगा दी थी और खनन से होने वाले पर्यावरणीय प्रभाव के अध्ययन करने का आदेश जारी किया था। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने एनजीटी के आदेश को दरकिनार कर दिया था, और खनन का काम शुरू हो गया। 

आज हालत यह है कि पशुओं के लिए चारागाह की कमी हो गई है, भूजल स्तर गिर गया है और ब्लास्टिंग की वजह से बोरवेल एवं ट्यूबवेल के आसपास की मिट्टी कमजोर पड़ गई है, जिसका इस्तेमाल लोगों के द्वारा खेती में किया जाता था। शुक्ल के अनुसार, इसके अलावा हरिहरपुर के पास से एक जल स्रोत निकलता था, जिसके बारे में स्थानीय लोग बताते हैं कि इसमें पानी होता था और सालभर मछली मिलती थी। लेकिन जब से खनन कार्य शुरू हुआ है, आसपास का इलाका प्रभावित हुआ है और जल स्रोत एक मटमैले गंदे नाले में तब्दील हो चुका है। 

साई परिवार का एक बच्चा अडानी फाउंडेशन द्वारा निर्मित आधुनिकतम स्कूल अडानी विद्या मंदिर में कक्षा 7 में पढ़ता है, जिसमें इस क्षेत्र आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के होनहार बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान की जाती है। यद्यपि साईं अपने बेटे की शिक्षा से संतुष्ट नहीं हैं क्योंकि इसमें सारी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से होती है, और उसके पल्ले यह नहीं पड़ता है उनके बेटे का कहना है कि उसे स्कूल अच्छा लगता है। उनके बेटे का कहना था, “मुझे स्कूल में फुटबाल ग्राउंड सबसे पसंद है। अंग्रेजी माध्यम के चलते कुछ कठिनाई तो होती है । साथ ही उसका कहना था कि हिंदी उसका पसंदीदा विषय है।”

इसी गांव में 40 वर्षीय मंगल साई भी रहते हैं। वे याद करते हैं कि कैसे पांच साल पहले वे सरना स्थल (प्रकृति पूजा के रूप में जंगल में साल के वृक्षों के एक झुंड) की स्थिति की पड़ताल करने जंगल में गये थे। उनका परिवार कम से कम पांच पीढ़ियों से वहां पर जा रहा है। एक साल पहले उसने एक साल का पौधा वहां पर रोपा था, लेकिन अब वहां पर सिर्फ ठूंठ बचा है। ‘पीकेसीएल’ साईट के लिए इसे काट दिया गया था। मंगल साईं ने भी अपनी जमीन बेच दी थी और खदान में काम पकड़ा था। लेकिन मोहन साई के विपरीत वह विरोध में धरने में जाता है। उसके पास जमीन के मुआवजे का पैसा भी नहीं बचा है।  

इतिहास की निशानियों को नष्ट किये जाने की प्रक्रिया  

पिछले एक दशक से इस क्षेत्र में खनन के साथ ही इन गांवों के निवासियों के बीच में विभाजन भी शुरू हुआ है। एक तरफ वे परिवार हैं जो अपनी भूमि को नहीं बेचना चाहते हैं और न ही उन्हें कोयला खदान में नौकरी में कोई रूचि है। उनका विश्वास है कि “कंपनी” उनमें से कुछ लोगों को पैसे का लालच देकर आपस में बांट रही है ताकि बाकियों की अपनी जमीनों के बारे में क्या योजना है के बारे में जासूसी की जा सके। वहीं दूसरी तरफ वे लोग हैं जो इस स्थिति का लाभ उठाना चाहते हैं, और उनका मानना है कि धरना प्रदर्शन करने वाले लोग उनकी तरक्की में अड़ंगा डाल रहे हैं। 

उनमें से एक मुनेश्वर सिंह पोर्टे का कहना है, “वे लोग कंपनी के लिए काम करने वाले लोग हैं। गांव में जब कभी भी जमीन को लेकर संघर्ष छिड़ता है, ये नौजवान हर बार भीड़ को उकसाने का काम करते हैं और हमेशा की तरह हर बार पुलिस उनके पक्ष में नजर आती है।” फत्तेहपुर निवासी पोर्टे हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति (एचएबीएसएस) के सदस्य हैं, एक समूह जो 2 मार्च 2022 से हरिहरपुर में धरने का नेतृत्व कर रही है। 

हसदेव अरण्य क्षेत्र में खनन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन 2010 से जारी है जब छत्तीसगढ़ सरकार के द्वारा इस उद्येश्य के लिए इसकी पहली स्वीकृति प्रदान की गई थी। गांवों ने इस मुद्दे को तूल देना शुरू किया कि कैसे उनसे वन भूमि हड़प कर ली जायेगी और जो लोग अपनी जमीनों से अलग नहीं होना चाहते थे ने विरोध करना शुरू कर दिया था, जिनमें से एक पोर्टे भी थे।  

इन पिछले 10 वर्षों में फत्तेहपुर, घटबर्रा और हरिहरपुर के ग्रामीणों  के संगठन ‘एसएबीएसएस’ के साथ पोर्ट ने समय-समय पर विरोध में रैलियां निकाली। 2019 में 75 दिन का एक धरना किया जिसका समापन 300 किमी का पैदल मार्च निकालकर रायपुर में किया गया। मुख्यमंत्री सहित दिल्ली में विपक्षी नेताओं से मुलाकात कर उनकी मांगों का प्रतिनधित्व करने की मांग की गई। राज्य के भीतर विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के द्वारा भी उनका समर्थन किया गया।   

धरना स्थल पर कुछ घंटों के लिए हर रोज सिर्फ 20-25 स्थानीय लोग ही जमा होते हैं, हालांकि हर सोमवार आसपास के गांवों से 250-300 की संख्या में शक्ति प्रदर्शन के लिए लोग आ जाते हैं। आज धरना स्थल पर सिर्फ पोर्टे और छह सात लोग ही जुटे हैं। 

इस पर पोर्टे का कहना था, “इस समय महुआ का सीजन चल रहा है। इसके चलते महिलाएं थोड़ा देरी से जुटेंगी।” साथ ही अपनी बात में जोड़ते हुए वे कहते हैं कि यह विरोध प्रदर्शन तब तक जारी रहेगा जब तक उन्हें खनन के लिए अब और भूमि न हथियाए जाने का आश्वासन नहीं दिया जाता है”।

पोर्टे के अनुसार, “कल्पना कीजिये, जिस साल अच्छा सीजन होता है, प्रत्येक परिवार कम से कम 1,500 से 2,000 किलो सिर्फ महुआ ही बीन लेता है। एक किलो महुआ से करीब एक लीटर अर्क तैयार हो जाता है, जो करीब 80 रूपये का बिकता है। सिर्फ इस एक चीज से हर महीने की 13,000 रूपये की कमाई हो जाती है।

इतना ही नहीं, जंगल से हम लकड़ी बीनने के साथ-साथ तेंदू पत्ता इकट्ठा कर लेते हैं। जब हम जंगल से इतना कुछ पा लेते हैं तो भला हम क्यों किसी खनन कंपनी में नौकरी पाने के लिए अपनी किस्मत से समझौता करेंगे?” खदान में कम से कम आठ घंटे की शिफ्ट और हफ्ते में छह दिन खटाने पड़ते हैं। वे एक सीधा प्रश्न सामने रखते हैं, “जब कोयला खत्म हो जायेगा तब हम क्या करेंगे?” 

वृहत्तर संघर्ष 

मोहर साई की तरह छत्तीसगढ़ के सभी गांवों में सभी के पास सामुदायिक वनाधिकार (सीऍफ़आर) के रूप में व्यक्तिगत अधिकार हासिल है, जो इसके सदस्यों को इस बात की अनुमति देता है कि भूमि और इसके संसाधनों को किस प्रकार से इस्तेमाल किया जाए। जिस प्रकार से साई को एक दिन अपनी जमीन खो देने का पता चला, कुछ ऐसा ही हाल घटबर्रा और फत्तेहपुर गांवों का भी रहा।    

घटबर्रा के सरपंच जयनंदन सिंह कहते हैं “उन्होंने 2012 में सीएफआर के लिए आवेदन किया था, और 2013 में उन्हें पट्टा मिल गया था। लेकिन 2015 में हमें मौखिक रूप से बताया गया कि 810 हेक्टेयर वन भूमि इसमें से काटी जायेगी क्योंकि खनन का अनुमोदन इससे पहले का है।”

2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘आरआरवीयूएनएल’ को हसदेव अरण्य में ‘परसा कोल ब्लॉक’ के लिए खनन को चुनौती देने वाली जनहित याचिका को स्वीकृति दी थी। इसमें ‘एचएबीएसएस’ सहित कई संगठनों की ओर से अपील की गई थी। अदालत में यह याचिका अभी भी लंबित है। 

छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से मार्च 2022 को खनन के दूसरे चरण की मंजूरी राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों के बीच हुई बैठक के कुछ घंटे के भीतर ही कर दिया गया था। संयोग से दोनों राज्य कांग्रेस शासित हैं। इस वर्ष के अंत तक इन दोनों राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं।  

नवंबर 2022 में छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से केंद्र सरकार को पत्र लिखकर हसदेव में खनन के लिए जंगल की कटाई के आदेश को निरस्त किये जाने का निवेदन किया गया। इस बीच व्यक्तिगत एवं समूहों के बीच का संघर्ष अपनी जगह पर मौजूद है, जहां ‘पुरानी’ दुनिया और ‘नई’ दुनिया का यथार्थ एक-दूसरे से टकराता है। 

( द हिंदू में प्रकाशित रिपोर्ट का साभार प्रकाशन। अनुवाद- रविंद्र पटवाल)

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