Sunday, April 28, 2024

गुजरात के मुख्यमंत्री की प्रेम विवाह रोकने के लिए कानून बानने की घोषणा के मायने

गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने यह घोषणा की है कि उनकी सरकार जल्दी ही ऐसा कानून लाने की इच्छुक है कि जो भी लड़का और लड़की प्रेम विवाह करना चाहते हैं, उनको विवाह की स्वीकृति तभी मिलेगी जब उनकी माता-पिता की भी स्वीकृति होगी और यह स्वीकृति अनिवार्य होगी। गुजरात के ही विधायक फतेह सिंह चौहान ने कुछ दिनों पहले यह मांग की थी कि राज्य में प्रेम विवाह की बढ़ती घटनाओं के कारण अपराध भी बढ़ रहे हें इसलिए राज्य सरकार को चाहिए कि प्रेम विवाह को नियंत्रित करने के लिए जरूरी कदम उठाये ताकि अपराधों में कमी आये।

चौहान का दावा था कि अगर राज्य सरकार ऐसा कोई कदम उठाती है तो अपराधों में 50 प्रतिशत तक कमी आ सकती है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि कांग्रेस का एक विधायक इमरान खड़ेवाला ने मुख्यमंत्री के इस प्रस्ताव का यह कहते हुए समर्थन किया कि ऐसा कदम उठाया जाना जरूरी है। 

मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल के इस प्रस्ताव को आरएसएस और भाजपा द्वारा चलाये जा रहे ‘लव जिहाद’ की मुहिम से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए और उस खाप मानसिकता से भी जो अंतर्जातीय विवाह का हिंसक विरोध करता है और अंतर्गोत्रीय विवाह का भी। अगर विवाह में एक पक्ष दलित या मुसलमान हो तो लड़का या लड़की या दोनों की हत्या करने से भी गुरेज नहीं की जाती और मुमकिन है कि दलित समुदाय का गांव में रहना भी दुश्वार हो जाये।

ऐसा हरियाणा में एकाधिक बार हो चुका है। जहां तक लव जिहाद का सवाल है, यह आरएसएस और उनके संगठनों द्वारा फैलाया हुआ ऐसा झूठ है जिसका मकसद हिंदू और मुसलमान के बीच दूरियां बढ़ाना और हिंदुओं का ध्रुवीकरण करना है। अगर दो युवा जो बालिग हैं, जिनमें एक मुसलमान है तो इस पर किसी को भी एतराज करने का क्या अधिकार है जबकि भारतीय संविधान उन्हें आपस में संबंध रखने, एक-दूसरे से प्रेम करने और अपनी मर्जी से विवाह करने की अनुमति देता है।

उनके बालिग होने का मतलब ही है कि वे अपना भला-बुरा समझते हैं और अपने निर्णय के लिए वे ही जिम्मेदार हैं, कोई और नहीं। यह कहना कि हिंदू लड़की को मुसलमान युवक बहकाकर उसे अपने जाल में फंसा लेगा, अपनी ही बेटी और बहन को कमतर समझने का परिणाम है। यह दरअसल एक बार फिर से स्त्रियों को पराधीन बनाने की कोशिश है जिसका हर हाल में विरोध किया जाना चाहिए।

भारत सामाजिक रूप से उन अति पिछड़े देशों में हैं, जहां अब भी प्रेम विवाह आसान नहीं है। अंतर्जातीय विवाह के लिए माता-पिता की स्वीकृति प्राय: नहीं मिलती। अगर लड़का या लड़की मुसलमान और दलित है तो हो सकता है मां-बाप ही अपनी बेटी की हत्या कर डाले। अगर ऐसा कानून बन जाता है, तो अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाह करना बहुत ही मुश्किल हो जायेगा और प्रेम करने वाले जोड़ों के लिए खतरा और बढ़ जायेगा।

अगर देश को जातिवाद और सांप्रदायिकता के जहर से आज़ाद करना है तो यह जरूरी है कि इस तरह के विवाहों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। महात्मा गांधी ने अपने जीवनकाल के अंतिम दिनों में यह शर्त लगा दी थी कि वे केवल उन जोड़ों को आशीर्वाद देंगे जिनमें से एक दलित होगा। 

विडंबना यह है कि आज देश की सत्ता एक ऐसी राजनीतिक पार्टी के हाथ में है जिसका पितृ संगठन घनघोर ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक फासीवादी है। वह अपने जन्म से ही हर उन विचारों का विरोध करता रहा है जिनकी बुनियाद में स्वतंत्रता, समानता और धर्मनिरपेक्षता के मानवीय मूल्य हैं। इसलिए गुजरात के मुख्यमंत्री भुपेंद्र बघेल द्वारा रखा गया प्रस्ताव उनके इसी प्रतिगामी सोच का परिणाम है।

उनका यह प्रस्ताव भारतीय संविधान के विपरीत है और उसे कानूनी जामा पहनाना आसान नहीं है। लेकिन पिछले नौ साल का इतिहास यह बताता है कि उन्हें संविधान की कतई परवाह नहीं है और अपने बहुमत के बल पर वे संविधान विरोधी और जनविरोधी कदमों को भी कानूनी जामा पहना सकते हैं।

भारतीय संविधान में जो सात मूल अधिकार प्रत्येक भारतीय नागरिक को दिये गये हैं उनमें सबसे पहले समानता और स्वतंत्रता के अधिकारों का उल्लेख हैं। समानता और स्वतंत्रता के अधिकारों की व्याख्या अनुच्छेद 14 से 22 द्वारा की गयी है। अनुच्छेद 14 के अनुसार कानून के समक्ष प्रत्येक नागरिक समान है और उसे समान संरक्षण प्राप्त है। अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं करेगा।

अगर इन दोनों अनुच्छेदों को सामने रखें तो इस बात को समझा जा सकता है कि मूल अधिकारों के इन प्रावधानों के अनुरूप ही विशेष विवाह अधिनियम 1954 का संविधान में प्रावधान रखा गया है जिसके अनुसार कोई भी दो व्यक्ति जिसकी जाति या धर्म भिन्न हों, वे आपस में विवाह कर सकते हैं। इस अधिनियम के अंतर्गत विवाह के लिए किसी धार्मिक या जातीय परंपरा का पालन करना आवश्यक नहीं है बल्कि विवाह कराने के लिए नियुक्ति सरकारी अधिकारी के समक्ष विवाह के इच्छुक स्त्री और पुरुष को उपस्थित होना जरूरी है।

विवाह के समय उनकी आयु पुरुष की 21 वर्ष और स्त्री की 18 वर्ष होना जरूरी है और उनकी पहले से पति या पत्नी नहीं होने चाहिए। उन्हें विवाह के लिए एक माह पूर्व मैरिज रजिस्ट्रार के कार्यालय में लिखित सूचना देनी होती है ताकि यदि किसी को इस अवधि के दौरान इस विवाह से आपत्ति हो तो वह अपनी आपत्ति प्रमाणों के आधार पर मैरिज रजिस्ट्रार के कार्यालय में दर्ज करा सकता है।

यदि किसी तरह की आपत्ति दर्ज नहीं होती है तो एक महीने बाद के किसी भी समय में मैरिज रजिस्ट्रार के कार्यालय में तीन गवाहों के साथ उपस्थित होकर उनका विवाह संपन्न हो जाता है। विवाह संपन्न होने का अर्थ सिर्फ यह है कि मैरिज रजिस्ट्रार के कार्यालय से विवाह का प्रमाणपत्र जारी किया जाता है और यह प्रमाणपत्र ही उनके विवाहित होने का प्रमाण होता है। 

मूल रूप में यह कानून 1872 में बनाया गया था जिसे संविधान बनने के बाद संशोधनों के साथ एक नया रूप दिया गया और इसे विशेष विवाह अधिनियम 1954 नाम दिया गया। फिलहाल विवाह के तीन प्रावधानों को संविधान में स्वीकृति दी गयी है। हिंदू विवाह अधिनियम इसके अंतर्गत हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख आदि धार्मिक विधि-विधान से विवाह कर सकते हैं। मुस्लिम समुदाय मुस्लिम पर्सनल लॉ के अंतर्गत विवाह कर सकते हैं और संविधान उनके विवाह को भी स्वीकृति देता है।

लेकिन कोई भी भारतीय नागरिक जो भारत में रहता हो या विदेश में या जिसकी कोई भी धर्म या जाति हो वह विशेष विवाह अधिनियम के अंतर्गत विवाह कर सकता है। शर्त सिर्फ यह है कि पुरुष की आयु 21 वर्ष या उससे अधिक हो और स्त्री की 18 वर्ष या उससे अधिक हो। इन अधिनियमों में यह कहीं नहीं लिखा है कि विवाह से पूर्व उनके माता-पिता की अनुमति आवश्यक है। विशेष विवाह अधिनियम जिसमें तीन गवाहों की मौजूदगी को जरूरी माना गया है वहां यह नहीं लिखा गया है कि उनमें माता-पिता या नजदीकी रिश्तेदार का होना जरूरी है।

जरूरी विवाह करने वाले दोनों वर और वधु की आपसी सहमति और स्वीकृति की है। तीन गवाह इस बात के प्रमाण है कि उनका विवाह उनकी मौजूदगी में हुआ है। यह अवश्य है कि उन रिश्तेदारियों में विवाह नहीं हो सकता जिन्हें कानून में निषेधात्मक माना गया है। लेकिन उसके अंतर्गत न जाति का उल्लेख है और न ही गोत्र का। 

अगर हम भारतीय संविधान के मूल अधिकारों को देखें तो इस बात को आसानी से समझ सकते हैं कि भारतीय संविधान विवाह को वयस्क लोगों के परस्पर स्वीकृति और सहमति से विवाह की अनुमति देता है। भारतीय संविधान के अनुसार कोई भी व्यक्ति स्त्री हो या पुरुष 18 वर्ष की आयु में वयस्क माना जाता है। वयस्क होने का अर्थ केवल विवाह करने और परिवार चलाने के योग्य होना ही नहीं है बल्कि इस उम्र तक आते-आते स्त्री और पुरुष दोनों शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से इतना परिपक्व हो जाता है कि वह अपने संबंध में निर्णय स्वयं ले सकता है।

जीवन संबंधी निर्णयों के लिए उसे अपने माता-पिता पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है। यही वजह है कि 18 वर्ष की आयु में प्रत्येक नागरिक को वोट देने का अधिकार दिया गया है। 18 वर्ष में वे ऐसी कोई भी फ़िल्म देख सकते हैं जो केवल वयस्क ही देख सकते हैं। इसी वयस्कता के कारण ही विवाह की आयु भी 18-21 वर्ष रखी गयी है। 

विवाह के लिए परिवार की सहमति और स्वीकृति का प्रावधान कानून में इसलिए नहीं रखा गया कि भारतीय संविधान इस आधुनिक धारणा को स्वीकार करता है कि प्रत्येक बालिग व्यक्ति को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष उसे अपने जीवन के बारे में फैसला लेने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। जीवन के बारे में फैसले में बहुत-सी बातें शामिल हैं। वह किस तरह की शिक्षा प्राप्त करना चाहता है, किस तरह का रोज़गार करना चाहता है और किनसे संबंध बनाना चाहता है।

अगर दो बालिग स्त्री या पुरुष आपस में प्रेम करते हैं और विवाह कर अपना परिवार बनाना चाहता है तो क्यों कोई कानून उनकी इस इच्छा के मार्ग में अवरोध बनकर खड़ा हो। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि भारतीय संविधान में जब बालिग लोगों को स्वतंत्रता और समानता के मूल अधिकारों के अंतर्गत अपने जीवन के फैसले खुद लेने का अधिकार देने की बात आयी तो दक्षिणपंथी, रूढ़िवादी, परंपरावादी और सांप्रदायिक मानसिकता के लोगों ने इसका विरोध किया।

उन्नीसवीं सदी के मध्य से समाज सुधार का जो आंदोलन चला था, उस आंदोलन ने ऐसे कई रीति-रिवाजों और परंपराओं को खत्म करने की मांग उठायी जो स्त्री-पुरुष की स्वतंत्रता और समानता की विरोधी थीं। पति के मर जाने के बाद पति के शव के साथ स्त्री को ज़िंदा जला देने का बर्बर रिवाज जिसे सती प्रथा नाम दिया गया राजा राम मोहन राय द्वारा उसके विरुद्ध आवाज़ उठाना स्त्री स्वतंत्रता की दिशा में ही एक बड़ा कदम था।

जब ईश्वचंद विद्यासागर ने विधवाओं के पुनर्विवाह का कानून बनाने की मांग की तो दरअसल वे उन हजारों-हजार बाल विधवाओं को नया जीवन-दान देने की मांग कर रहे थे, जो अन्यथा ज़िंदगी भर नारकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त रहती थीं। बाल विवाह, अनमेल विवाह जैसे अभिशापों से मुक्ति जरूरी थी क्योंकि इन सभी प्रतिगामी रिवाजों ने औरतों के जीवन को नरक बना रखा था।

लेकिन इससे कम अभिशाप नहीं था जातिवाद और छुआछूत की परंपरा। अपने ही समाज के एक बड़े हिस्से को मनुष्य मानने से भी इन्कार करना और उनके साथ किसी भी तरह का संबंध न रखना कोई कम बर्बर प्रथा नहीं थी। दलित समझी जाने वाली जातियों का स्पर्श भी पाप समझा जाता था। हिंदू समाज जहां एक ओर गाय की पूजा करता था लेकिन दूसरी ओर अछूत समझी जाने वाली जातियों को इंसान मानने से भी इन्कार करता था।

जोतिबा फुले, नारायण गुरु, रामास्वामी नायकर, बाबा साहब आंबेडकर जैसे महापुरुषों ने जातिवाद के लिए जो संघर्ष किया उसीका नतीजा था कि संविधान ने छुआछूत और जातिवाद को अपराध घोषित किया और इसी संविधान ने कानूनी तौर पर हर भारतीय को चाहे वह ब्राह्मण हो या दलित, हिंदू या मुसलमान, स्त्री हो या पुरुष वह भारतीय संविधान के अनुसार समान है और सभी को एक सी स्वतंत्रता और अधिकार प्राप्त हैं। लेकिन जब संविधान में यह सब कुछ लिखा जा रहा था, इन प्रगतिशील विचारों यानी स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय को कानूनी जामा पहनाया जा रहा था, ठीक उसी समय भारतीय समाज का एक बड़ा और शक्तिशाली हिस्सा इन कानूनों का विरोध भी कर रहा था।

इन विरोध करने वालों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) सबसे आगे था जिसकी 1925 में स्थापना ही इसलिए हुई थी ताकि वह उन प्रगतिशील विचारों का विरोध कर सके जो ब्राह्मणवाद और वर्ण व्यवस्था पर कुठाराघात करते हों। दरअसल, आज़ादी के 75 सालों में प्रगतिशीलता को मजबूत बनाने और आगे बढ़ाने की लड़ाई न केवल कमजोर हो गयी बल्कि आरएसएस के राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी के हाथों में राष्ट्रवाद के नाम पर देश की सत्ता सौंप दी गयी जो न केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों (विशेष रूप से मुसलमान और ईसाई) के समान अधिकारों का विरोधी है बल्कि जो चाहता है कि एक बार फिर से देश की बागडोर उन ब्राह्मणवादियों के हाथों में आ जायें जिनके लिए मनुस्मृति ही आदर्श है।

अभी कुछ अर्सा पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समान नागरिक संहिता का जो राग अलापना शुरू किया है, उस पर लिखे आलेख में मैंने इस बात की आशंका प्रकट की थी कि समान नागरिक संहिता के नाम पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार उन कानूनों को लागू नहीं करेगी जो जवाहरलाल नेहरू ने हिंदू कोड बिल के तौर पर व्यापक विरोध के बावजूद संसद से पास करवाया था और उन्हें कानूनी जामा पहनाया था।

नागरिक संहिता का अर्थ आरएसएस और भाजपा के लिए वही नहीं है जो आधुनिक, प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष भारतीयों के लिए है। अभी कुछ दिनों पहले ही प्रधानमंत्री का गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित करना इस बात का प्रमाण था कि उनके लिए आज भी धार्मिक और सामाजिक प्रतिगामिता ही हिंदू जीवन मूल्य है और अब एक बार फिर इसका प्रमाण नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात के मुख्यमंत्री ने इसी दिशा में एक और कदम पीछे ले जाते हुए दिया है। 

(जवरीमल्ल पारख सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)

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