एक साल लंबे चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन की, किसान विरोधी तीन कानूनों को वापस करवाने के साथ दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि थी जनता में सरकार और कॉर्पोरेट के नापाक गठजोड़ को बेनकाब करना। अगर हम याद करें तो किसान नेता और आंदोलनकारी केंद्र में भाजपा नीत मोदी सरकार को ‘अडानी-अंबानी की सरकार’ कहकर बुलाते थे। यहां तक कि कॉर्पोरेट के प्रभाव को इंगित करने के लिए लोकतंत्र को ‘कॉर्पोरेट का राज, कॉर्पोरेट के द्वारा, कॉर्पोरेट के लिए’ परिभाषित किया था। यह खासियत थी किसान आंदोलन की।
किसानों ने कृषि कानूनों के असल मक़सद और उसे लाने वाली मूल ताकतों को भली-भांति पहचाना। जो गलती सामान्यता बड़े-बड़े विद्वान भी कर जाते है कि केवल सतही विश्लेषण करना, उसके शिकार किसान नहीं हुए और उनकी प्रचारित छवि के विपरीत उन्होंने गंभीर राजनीतिक विश्लेषण किया, जिसे केवल भाषणों तक सीमित नहीं रखा बल्कि आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया। इसलिए किसानों ने केंद्र सरकार के खिलाफ तो आंदोलन किया ही, साथ ही अडानी और अंबानी के उत्पादों का भी बहिष्कार किया और उनकी इमारतों के सामने उग्र और लंबे प्रदर्शन भी किये।
यह समझ केवल अडानी और अंबानी तक ही सिमित नहीं थी बल्कि सभी बड़े कॉर्पोरेट के खिलाफ थी। असल में अडानी और अंबानी तो मोदी के नए भारत में कॉर्पोरेट के लिए रूपक बन गए हैं। हालांकि कई राजनीतिक विश्लेषक और वामपंथी लोग तो काफी समय से कॉर्पोरेट घरानों का देश की राजनीति और नीति निर्धारण को नियंत्रण करने की बात कह रहे थे लेकिन किसान आंदोलन ने इस बात को ज्यादा सहज तरीके से आम जनता तक, विशेष तौर पर उत्तर भारत में तो हर घर तक पहुंचा दिया।
यह केवल आंदोलन के लिए कोई बनावटी बात नहीं थी, हमने देखा कि आने वाले दिनों में तो ज्यादा साफ़ हो गई। और हाल ही में हुए खुलासों से तो इस सांप्रदायिक कॉर्पोरेट के नापाक गठजोड़ का चेहरा तो पूरी तरह जनता के सामने बेनक़ाब हो गया है।
हालांकि भारतीय राजनीति में कॉर्पोरेट की दखलंदाजी हमेशा से रही है। पूंजीवाद में सरकार की नीतियों की प्राथमिकत पूंजीपतियों का मुनाफा रहा है लेकिन जनता के सामने सरकारें अपना कल्याणकारी चरित्र बनाए रखती थीं। यह आजादी के आन्दोलन के मूल्यों की ही देन है कि हमारे देश में एक मज़बूत कल्याणकारी राज्य का ढांचा बना। देश में पूंजीपतियों की पसंदीदा कांग्रेस रही है, लेकिन अब भाजपा इस होड़ में आगे निकल गई है। भाजपा तो पूरी तरह कॉर्पोरेट के लिए ही काम कर रही है। इसके लिए लोकतंत्र की सारी परंपराओं और मर्यादाओं की तिलांजलि दे दी गई। इसके चलते भाजपा को भी कॉर्पोरेट का समर्थन बेहताशा चुनावी चंदे के रूप में मिला।
इसका पहला सार्वजानिक उदाहरण और यूं मानिये प्रधानमंत्री जी के द्वारा इसकी स्वीकृति तब मिलती है, जब जिओ दूरसंचार कंपनी के सिम के प्रचार विज्ञापनों में अखबार के मुख्य पृष्ठ पर विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री की तस्वीरों का प्रयोग किया जाता है। प्रधानमंत्री पहली बार किसी निजी कंपनी के उत्पाद का प्रचार करते नजर आते हैं। तब भी इसकी खूब चर्चा हुई थी। हम जानते हैं कि प्रतीक और नाम (अनुचित प्रयोग निवारण) अधिनियम, 1950 के तहत राष्ट्रीय प्रतीकों सहित भारत के प्रधानमंत्री की छवि का उपयोग किसी निजी कंपनी के प्रचार के लिए नहीं किया जा सकता। इसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय से स्वीकृति लेनी होती है। गोया जिओ ने ऐसा किया ही होगा।
जब प्रचार प्रधानमंत्री जी करेंगे तो कंपनी का व्यापार तो बढ़ेगा ही और ऊपर से बड़ी कंपनी जिसका प्रयास बाज़ार पर एकाधिकार करने का हो। ऐसा ही हुआ भी। जिओ ने शुरआती दौर में ग्राहकों को लगभग मुफ्त या बेहद ही सस्ती दरों में सेवाएं देकर, बाकी कंपनियों के ग्राहकों को छीन लिया। लेकिन बाद में जिओ की सेवाओं के दाम भी बाजार की दरों से ज्यादा ही हो गए। यह एक बेहतरीन उदाहरण है कि कैसे राज्य की मदद से बाजार के स्थापित नियमों को धता बताते हुए कॉर्पोरेट अपना एकाधिकार स्थापित करते हैं।
हालांकि जिओ की कहानी ही एक ऐसा उदाहरण था जिसे किसानों को खुद समझने और बाकियों को समझाने में बहुत मदद मिली। एक किस्से का जिक्र करने का लोभ नहीं छोड़ पा रहा हूं। किसान आंदोलन के दौरान मीडिया वाले अपने जटिल प्रश्नों से भोले-भाले किसानों को भ्रमित कर कुछ न कुछ चटपटी खबर निकालने की फ़िराक में रहते थे ताकि कृषि बिलों के पक्ष में कुछ तो दिखाया जा सके।
ऐसे ही एक शाम सिंघु बॉर्डर पर एक मीडियाकर्मी अपने बड़े दल के साथ एक उम्रदराज महिला किसान से अपनी दलीलों के साथ प्रश्न पूछने लगे। प्रश्न लक्षित था कि मंडी निजी (प्राइवेट मंडी) हो जाने से तो किसानो को ज्यादा दाम मिलेगा। हम भी इस चर्चा को पास खड़े सुन रहे थे और सच मानिए तो कुछ चिंतित भी थे कि यह बुजुर्ग महिला क्या जवाब देगी?
लेकिन महिला किसान ने सीधा जवाब दिया कि “बेटा पता नहीं क्या होगा, ज्यादा पड़े लिखे नहीं हैं। लेकिन कोई एक वर्ष पहले जिओ आया था काफी सस्ता। फ्री इंटरनेट। हमारे घरों में भी सबने बीएसएनएल छोड़ जिओ ले लिया। कुछ महीने खूब मजे। लेकिन आज जिओ कितना महंगा हो गया है और बीएसएनएल तो मानों इससे ख़त्म हो गया है। कहां जाएं। यह तो सिम है बदल भी लेंगे लेकिन अगर एक बार मंडी ख़त्म हो गई तो कहां जाएंगे। आंदोलन को ख़त्म करने और किसानों को भरमाने के लिए शायद प्राइवेट कंपनी वाले कुछ ज्यादा दाम दे दें। लेकिन जब सरकारी मंडी ख़त्म हो जाएंगी तो असली कहानी शुरू होगी।” महिला किसान के जवाब में शब्द सीधे लेकिन गहरी राजनीतिक समझ लिए थे।
चलिए वापस आते हैं असल मुद्दे पर कि किस तरह भाजपा सरकार ने कॉर्पोरेट के साथ गठजोड़ करके उनके मुनाफे बढ़ाने के लिए ही काम किया है और आम जनता को इसका ख़मियाजा भुगतना पड़ा है। मोदी सरकार ने देश की सम्पति को खुले तौर पर कौड़ियों के दाम कॉर्पोरेट को बेचा है। पिछले पांच वर्षो में 13 लाख करोड़ रुपये के बैंक के कर्जे बट्टे खाते में डाल दिए गए हैं जिनका नाम मात्र हिस्सा ही वापस आता है। रिज़र्व बैंक ने एक सर्कुलर जारी किया है कि बड़े कॉर्पोरेट बैंकों के साथ अपने ऋण का निपटारा कर सकते हैं। इसके अनुसार जानबूझकर कर्ज न चुकाने वाले बैंक से बड़ी छूट ले सकते हैं। और भी कई ऐसे ही कानून बने हैं जो सीधे कॉर्पोरेट को फायदा पहुंचाते हैं।
देश ही नहीं देश के बाहर भी नरेंद्र मोदी जी ने अपने कॉर्पोरेट मित्रों को फायदा पहुंचाने के लिए लाखों-करोड़ों डालर का व्यापार विदेशी सरकारों से दिलाया है। 2019 में सूचना के अधिकार के तहत एक सूचना में प्रधानमंत्री कार्यालय ने बताया कि अबतक मोदी ने 52 देशों का दौरा किया। 41 बार अडानी और अबानी उनके साथ थे। इन दौरों पर सरकारी खजाने से 355 करोड़ रुपये खर्च किये गए थे। इन विदेशी दौरों से अडानी और अंबानी की कंपनियों को 18 सौदे हासिल हुए। विदेशी सरकारों के साथ 13 सौदे अडानी और 5 अंबानी को मिले।
समझना यह है कि जब प्रधानमंत्री बोलते हैं कि उनके विदेश दौरों से करोड़ों डालर का व्यापार भारत को मिला तो उनका मतलब होता है अडानी और अंबानी को। इन्हीं में से एक व्यापारिक सौदा था राफेल का। इस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है हालांकि जितना लोगों ने लिखा है उससे कई गुना ज्यादा देश की सरकार ने छुपाया है। देश में तो इन पर सवाल उठते रहे हैं जिसे सरकार ने अनदेखा कर दिया परन्तु विदेश में तो इसके पक्के सबूत सामने आये हैं कि मोदी सरकार ने इन दो कॉर्पोरेट को फायदा पहुंचाने और उनके साथ व्यापार करने के लिए दवाब बनाया।
श्रीलंका में संसदीय समिति के सामने वहां के एक उच्च अधिकारी ने आरोप लगाया था कि मन्नार में नवीनीकरण ऊर्जा का एक प्रोजेक्ट अडानी को देने के लिए मोदी की तरफ से बहुत दबाव था। इसी तरह फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने भी 2018 के एक साक्षात्कार में खुलासा किया कि मोदी सरकार के जोर देने पर ही राफेल डील के साझेदार के तौर अंबानी को सौदे में लाया गया। हालांकि डसॉल्ट एविएशन और रिलायंस ने इससे इनकार किया था। मुनाफा कमाने के लिए सरकार ने रक्षा क्षेत्र को भी कॉर्पोरेट के लिए खोल दिया है और राफेल समेत कई रक्षा सौदे अडानी और अंबानी की कंपनियों के साथ हुए हैं।
यहां तक तो ठीक है लेकिन अब तो सरकार पूरे के पूरे कानून और नीतियां ही कॉर्पोरेट के कहे अनुसार बना रही है। पिछले दिनों रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने दो हिस्सों की रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसने केंद्र सरकार, नीति आयोग और अडानी के नेतृत्व वाले प्रमुख कॉरपोरेट्स की भयावह सांठगांठ को उजागर किया है। इस गठजोड़ का मकसद था भारतीय कृषि का कॉर्पोरेटीकरण करके भारतीय किसानों और उपभोक्ताओं को लूटना।
दो-भागों की खोजी रिपोर्ट का शीर्षक है “कृषि कानूनों से आगे, कृषि को कॉर्पोरेट बनाने का एक एनआरआई बीजित विचार” और “अडानी समूह ने कृषि कानून के खिलाफ शिकायत की”। इस रिपोर्ट में कॉर्पोरेट-मोदी शासन की मिलीभगत के बारे में पुख्ता दस्तावेजी साक्ष्य हैं। रिपोर्ट के अनुसार हुआ इस तरह कि शरद मराठे नाम के भाजपा हितैषी एक एनआरआई व्यवसायी ने कृषि कानूनों को बदलने के लिए आधार विचार शुरू किया।
मजेदार बात तो यह है कि शरद मराठे साहब का कृषि या इससे जुड़े किसी भी संबद्ध विषय में कोई विशेषज्ञता नहीं है बल्कि वह एक सॉफ्टवेयर व्यवसायी हैं। इनके विचार का मूल मंत्र था भारतीय कृषि का कॉरपोरेटाइज करना। इन्होंने देश के भविष्य के लिए सपना बुना जहां किसान कॉरपोरेट-शैली की कृषि व्यवसाय कंपनियों को अपनी ज़मीन पट्टे पर देंगे और फिर खुद उनके लिए काम करेंगे। मराठे साहब ने अक्टूबर 2017 में तत्कालीन नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार और प्रधानमंत्री कार्यालय को किसानों की आय को दोगुना करने के लिए एक अवधारणा नोट प्रस्तुत किया था।
इस आधार पर, नीति आयोग ने जनवरी 2018 तक एक विशेष कार्य बल (एसटीएफ) का गठन किया, जिसके प्रमुख अशोक दलवई थे। शरद मराठे और उनके द्वारा चुने गए अन्य “विशेषज्ञ” बड़े पैमाने पर टास्क फोर्स सदस्य थे। यह दिलचस्प है कि वही अशोक दलवई किसानों की आय दोगुनी करने पर एक अधिक औपचारिक अंतर-मंत्रालयी समिति (आईएमसी) के अध्यक्ष थे, जिसका गठन 13 अप्रैल 2016 को प्रधानमंत्री द्वारा किया गया था। कुल मिलाकर रिपोर्टर्स कलेक्टिव की रिपोर्ट खुलासा करती है कि इस विशेष कार्य बल (एसटीएफ) की शिफारिशों ने तीन कृषि कानून बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
ठीक इसी तरह अडानी समूह ने अप्रैल 2018 में किसानों की आय दोगुनी करने पर नीति आयोग विशेष कार्य बल के माध्यम से कृषि वस्तुओं की जमाखोरी पर प्रतिबंध हटाने के लिए सरकार के साथ सावधानी पूर्वक पैरवी की। रिपोर्टर्स कलेक्टिव के अनुसार, कृषि अध्यादेश लागू होने से ढाई साल पहले, 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के उद्देश्य से नीति आयोग द्वारा गठित टास्क फोर्स की एक बैठक में अडानी समूह के प्रतिनिधि ने कहा था, “आवश्यक वस्तु अधिनियम उद्योगों/उद्यमियों के लिए एक निवारक साबित हो रहा है”।
इसका मतलब है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम को बदलना। यह एक बड़ा सबूत है जहां कॉर्पोरेट कानून बदलने की मांग कर रहा है। ज़ाहिर सी बात है अपने मुनाफे की सीमा पर सभी प्रतिबंध हटाने के लिए और सरकार ठीक उनके कहे अनुसार कानून में बदलाव कर रही है। यह तो हम सब भली-भांति जानते हैं कि आवश्यक वस्तु अधिनियम देश की जनता के लिए कितना महतवपूर्ण है, कैसे यह महंगाई को नियंत्रित कर आवश्यक वस्तुएं सबकी पहुंच में रखता है। लेकिन मोदी सरकार के लिए तो कॉर्पोरेट हित सर्वोपरि है।
यह इन नीतियों का ही फल है कि देश की जनता बदहाली में है, सबसे ज्यादा भूखे और अल्प भूखे हमारे देश में हैं, बच्चों और महिलाओं की आधी आबादी कुपोषित है। उनमें खून की कमी है। लोग अपना इलाज करवाने के खर्च के चलते गरीब होते जा रहे हैं, बेरोजगारी चरम पर है, मनरेगा के लिए सरकार के पास बजट नहीं है। लगभग सभी मानव विकास सूचकांक देश की जनता की बिगड़ती हालत को बयां कर रहे हैं लेकिन उसी भारत में खरबपति बढ़ रहें हैं।
अडानी समूह की सम्पति में सेकड़ों गुना की बढ़ोतरी हो रही है। दुनिया में अमीरों की सूची में अडानी दूसरे नंबर पर पहुंच जाते हैं। हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद भी देश की सरकार ने पूरी ताकत के साथ इनका बचाव ही किया है। यहां तक की संसद में चर्चा से बचने के लिए इसके सत्र चलने ही नहीं दिए।
यह है कॉर्पोरेट और भाजपा का नापाक गठबंधन। यहां सरकार कॉर्पोरेट की मदद नहीं करती बल्कि कॉर्पोरेट सीधे सीधे सरकार के जरिये अपने लिए कानून और नीतियां बनाते हैं। यह लोकतंत्र के लिए कदापि अच्छा नहीं है। ऐसी व्यवस्था में मतदाताओं की आकांक्षाएं और जरुरतें कोई मायने नहीं रखतीं। कॉर्पोरेट के अथाह पैसे से लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करते हुए भाजपा के पक्ष में चुनाव जीते जाते हैं और फिर वही कुचक्र शुरू हो जाता है। ऊपर से भाजपा का साम्प्रदायिक एजेंडा जनता की एकता को तोड़ने का ही काम करता है।
जनता मुद्दों पर नहीं बल्कि सांप्रदायिक भावनाओं पर लामबंद होती है। फिर क्या यह कभी नहीं रुकेगा? ऐसा नहीं है इसका जवाब वही है जो किसान आंदोलन ने किया। जनता को असली दुश्मन की पहचान करनी है। मुद्दों पर आंदोलन भी केवल सतही तौर पर सरकार के खिलाफ नहीं होंगे बल्कि सरकार और कॉर्पोरेट गठजोड़ के खिलाफ होंगे। चुनाव में भी यही करना होगा। जनता को चुनाव में कॉर्पोरेट घरानों की भूमिका को चिन्हित करना होगा। देश की जनता और देश की सम्पदा बचाने के लिए संघर्ष भाजपा-कॉर्पोरेट गठजोड़ के खिलाफ और लोकतंत्र को बचाने के चुनावी संघर्ष भी इन्हीं के खिलाफ करने होंगे।
(विक्रम सिंह, अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव हैं।)
+ There are no comments
Add yours