कुछ बीमारियों के चलते दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी प्राध्यापक, सामाजिक कार्यकर्ता, कवि, लेखक, विकलांगता से परेशान प्रोफेसर जीएन साईबाबा का अवसान मात्र 57 वर्ष में हो जाना बेहद ग़मनाक है। जो प्रशासनिक और न्याय प्रणाली के लिए कलंक के मानिंद है।
माओवादियों से कथित लिंक के एक मामले में महज सात महीने पहले अदालत से बरी हुए दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा (गोकरकोंडा नागा साईबाबा ) का बीती रात नौ बजे निधन हो गया।
बताया जाता है, साईबाबा पित्ताशय के संक्रमण से पीड़ित थे। दो सप्ताह पहले उनका ऑपरेशन हुआ था।
याद कीजिए, भारत के एक मशहूर कार्यकर्ता, कवि, शिक्षक और लेखक वरवर राव के साथ भी लगभग यही हुआ। वह 2018 भीमा कोरेगांव हिंसा में आरोपी हैं और उन्हें गैर-जमानती गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया गया।
तेलुगू साहित्य में एमए करने वाले वरवरा राव रामनगर कॉन्सपिरेसी केस में भी एक आरोपी थे, जहां उन पर एक बैठक में भाग लेने का आरोप लगा, जिसमें आंध्र प्रदेश के पुलिस कांस्टेबल सांबैया और इंस्पेक्टर यादगिरी रेड्डी को मारने की योजना बनाई गई थी।
17 साल बाद 80 वर्षीय राव को 2003 में उन्हें आरोपों से बरी कर दिया। अमेरिका के कुछ सिक्योरिटी विशेषज्ञों ने दावा किया था कि उनके हाथ कुछ ऐसे प्रमाण लगे हैं, जिसके आधार पर ये पुष्टि की जा सकती है कि कार्यकर्ता रोना विल्सन, कवि वरवरा राव और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हनी बाबू के ई-मेल अकाउंट को हैक करने में पुणे पुलिस की भूमिका थी।
ये तीनों लोग एल्गार-परिषद मामले में गिरफ्तार किए गए 16 लोगों में शामिल हैं। इनमें से एक 84 वर्षीय फादर स्टेन स्वामी भी थे, जो कि कई सालों से झारखंड में आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, लेकिन पिछले साल जुलाई महीने में उनकी मौत जेल में हो गई थी।
ये तमाम घटना एक जनवरी 1918 महाराष्ट्र-पुणे के भीमागांव में एल्गार परिषद के बैनर तले एक कार्यक्रम में हुई हिंसा से सम्बंधित है जिसमें एक युवक की मौत हुई थी। इसी केस में वरवरा राव, सुधा भारद्वाज, स्टेन स्वामी, वेरनॉन, गौतम नवलखा,अरुण फरेरा सहित सोलह लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।
लगभग इसी तर्ज पर, तथाकथित नक्सलियों से लिंक रखने के शक में 2014 में महाराष्ट्र पुलिस ने साई बाबा को पहली बार गिरफ्तार किया था। पुलिस ने मार्च 2017 में कथित माओवादी संबंधों और राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़ने वाली गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया था।
महाराष्ट्र की गढ़चिरौली कोर्ट ने इस मामले में मार्च 2017 में साईबाबा को दोषी ठहराया था। सत्र न्यायालय ने साईबाबा सहित महेश तिर्की, पांडु नरोटे, हेम मिश्रा, प्रशांत राही और विजय तिर्की सहित पांच अन्य को दोषी करार दिया था। उन्होंने सेशन कोर्ट के फैसले को मुंबई हाई कोर्ट की नागपुर पीठ में चुनौती दी थी।
नागपुर पीठ ने माओवादियों से कथित संबंधों के मामले में वर्षों तक ट्रायल चलने के बाद साईबाबा एवं पांच अन्य को मुंबई पुलिस के आरोपों से बरी कर दिया था।
मुंबई पुलिस व अन्य जांच एजेंसियां इस मामले में वर्षों तक चले कानूनी जंग के दौरान जीएन साईबाबा के खिलाफ मामला साबित करने में विफल रही। उसके बाद अदालत ने न केवल उनकी आजीवन कारावास की सजा रद्द कर दी बल्कि जमानत पर रिहा भी कर दिया।
हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने अभियोजन पक्ष द्वारा आरोपियों पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के प्रावधानों के तहत आरोप लगाने के लिए प्राप्त की गई मंजूरी को गलत करार दिया। अदालत से माओवादियों से संबंध रखने के मामले में बरी होने के बाद साईबाबा व्हीलचेयर पर बैठकर 10 साल बाद नागपुर केंद्रीय कारागार से बाहर आए।
साईबाबा ने अगस्त 2024 में आरोप लगाया था कि उनके शरीर के बाएं हिस्से के लकवाग्रस्त हो जाने के बावजूद प्राधिकारी नौ महीने तक जेल अधिकारी और वहां पुलिस अफसर अस्पताल नहीं ले गए। उन्हें नागपुर केंद्रीय कारागार में केवल दर्द निवारक दवाएं दी गईं, जहां वह 2014 में इस मामले में गिरफ्तार किए जाने के बाद से बंद थे।
अंग्रेजी के पूर्व प्रोफेसर ने दावा किया था कि उनकी आवाज दबाने के लिए उनका अपहरण किया गया और फिर महाराष्ट्र पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया। गिरफ्तारी के बाद महाराष्ट्र पुलिस के वरिष्ठ जांच अधिकारी मेरे साथ घर गए और परिवार के लोगों को धमकाया।
महाराष्ट्र पुलिस ने उन्हें व्हीलचेयर से घसीटा और इसके परिणामस्वरूप उनके हाथ में गंभीर चोट लग गई, जिससे उनके तंत्रिका तंत्र पर भी असर पड़ा। आंध्र प्रदेश के मूल निवासी साईबाबा ने आरोप लगाया था कि जांच अफसरों ने उन्हें चेतावनी दी थी कि अगर उन्होंने बात करना बंद नहीं किया तो उन्हें किसी झूठे मामले में गिरफ्तार कर लिया जाएगा।
जीएन साईबाबा साल 2003 से दिल्ली विश्वविद्यालय के राम लाल आनंद कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। उन्हें तथाकथित माओवादियों से लिंक की वजह से महाराष्ट्र पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया था। उसके बाद 2014 में उन्हें कॉलेज से निलंबित कर दिया गया था।
दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा माओवादियों से संबंध रखने के आरोप में इसी वर्ष मार्च में बरी हुए थे। बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा बरी किए जाने के बाद जेल से रिहा होकर 8 मार्च को वह दिल्ली आए थे।
उन्होंने अपने सभी शुभचिंतकों, यूनाइटेड नेशन, ह्यूमन राइट कमीशन को भी धन्यवाद दिया था। साईबाबा ने कहा था उन्हें यकीन नहीं हो रहा कि वे जेल से बाहर आ गए हैं।
जेल से रिहा होने के बाद पत्नी वसंता के साथ दिल्ली के सुरजीत भवन पहुंचे प्रो जीएन साईंबाबा ने भावुक मन से अपनी बात रखते हुए कहा था कि जिस तरह माता सीता ने भावुक मन से अपनी बात रखते हुए कहा था कि उनको अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा, उसकी तरह वे भी गुजरे।
शक के आधार पर अपनी गिरफ्तारी को लेकर साईंबाबा ने कहा था कि लोगों ने तो भगवान राम पर भी शक किया था। शक बिल्कुल बेबुनियाद था। गिरफ्तारी के बाद 10 साल जिस प्रताड़ना से गुजरा हूं, उस दौरान हुई क्रूरता को कभी नहीं भूल सकता मेरे साथ क्रूरता की गई।
उन्हें अपनी मां की अन्त्येष्टि में शामिल होने की अनुमति भी नहीं दी गई। इस दुख को उन्होंने अपनी कविता में बड़ी दर्दनाक अंदाज में बयां किया है। जो शख्स उत्पीड़न सहन के बावजूद पुनः पढ़ाने के दम-ख़म के साथ जेल से बाहर आया हो उसके इरादे ही सामाजिक नेक भावना को दर्शाते हैं।
इस मनगढ़ंत दास्तान ने देश के दूरदर्शी सोच रखने वाले साई बाबा के साथ जो ज़ुल्म किए वह नए नहीं हैं। ऐसे सैकड़ों सामाजिक कार्यकर्ताओं को अर्बन नक्सली के नाम पर जेल में डाला गया है, वे अदालत के चक्कर और जेल में पिसते हुए अपनी जीवन के महत्वपूर्ण क्षण होम कर चुके हैं।
सवाल इस बात का है कि निचली अदालतें क्या बेकसूरों को इसी तरह परेशान कर सत्ता को ख़ुश करती रहेंगी। बेकसूरी को सज़ा देने वाली ऐसी अदालतों के ख़िलाफ़ क्या कोई सज़ा का प्रावधान नहीं होना चाहिए।
कितने युवा छात्र आज भी इस अंधे कानून और न्याय की उम्मीद में जेल में पड़े हुए हैं। वहीं सजा प्राप्त बलात्कारियों को पैरोल, बलात्कारियों की सज़ा में कमी कर रिहाई करना, हत्यारों, लुटेरों को सहयोग क्या दर्शाता है।
साईबाबा की मौत अनेक प्रश्न उठाती है हमारी न्यायपालिका पर। जेल में उनके साथ हुए अमानवीय व्यवहार और राजनैतिक लोगों की मनोदशाओं पर, जो अमानवीयता के साथ खड़ा होकर देश को बर्बाद करने पर तुली हुई है।
(सुसंस्कृति परिहार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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