इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज डीयू की डॉ. ऋतु सिंह का संघर्ष

दिल्ली विश्वविद्यालय की एक भूतपूर्व प्रोफेसर डॉ. ऋतु सिंह के संघर्ष की कहानी वर्तमान दौर के लिए एक जिंदा मिसाल है। 9 जनवरी की सर्द सुबह जब वे फ्रेश होने के बाद उस धरना स्थल पर लौटती हैं, जहां से वे पिछले 137 दिनों से दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन की निगाह में कांटे की तरह चुभ रही थीं, तो पता चलता है कि उनके साथियों हटाते हुए वहां पर रखे गये सामान को दिल्ली पुलिस द्वारा नष्ट कर दिया गया है। आज जब डॉ. ऋतु सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में धरना-स्थल पर पहुंची तो प्रशासन उस स्थान को धुलवा रहा था, मानो दलितों के कारण परिसर अपवित्र हो गया था।

“नहीं जाउंगी मैं। ये मेरी यूनिवर्सिटी है।”  यह कहना था डॉ. ऋतु सिंह का, जब उन्हें दिल्ली पुलिस के द्वारा जबरन हिरासत में लिया जा रहा था। पिछले दो दिनों से सोशल मीडिया पर छाई हुई इस अस्सिस्टेंट प्रोफेसर की कहानी को देश की सभी महिलाओं को एक सबक के तौर पर लेना चाहिए। बता दें कि दिल्ली विश्विद्यालय में सहायक प्रोफेसर के तौर पर कार्यरत डॉ ऋतु सिंह दलित समाज से आती हैं, जो मूलतः पंजाब की रहने वाली हैं। 

दिल्ली विश्वविद्यालय में पिछले कुछ वर्षों से नियोजित ढंग से ओबीसी एवं दलित वर्ग के प्राध्यापकों के साथ भेदभाव और नौकरी से निष्कासन की घटना लगातार प्रकाश में आ रही हैं। प्रोफेसर रतन लाल, डॉ. लक्षमण यादव जैसे नाम तो वैसे भी अपनी शक्सियत के कारण मशहूर हैं, लेकिन हिंदीभाषियों के लिए संभवतः ऋतु सिंह और उनसे भी कम सार्वजनिक चर्चा में आये लोगों से वास्ता कम ही पड़ा हो। पिछले 137 दिनों से विश्वविद्यालय द्वारा अपने निलंबन के खिलाफ धरने पर बैठी हुई डॉ ऋतु सिंह को जब पुलिस ने दल-बल के साथ जबरन हिरासत में लिया था, तो उससे पहले ही उनके कुछ साथियों दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर गुप्त स्थान पर ले जाया गया था। बाद में ऋतु सिंह को भी परिसर में धारा 144 का हवाला देते हुए हिरासत में ले लिया गया।

लेकिन इस लेख को लिखने का मकसद डॉ ऋतु सिंह की अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ जंग को लेकर नहीं है। न ही यह दौलत राम कालेज की प्रिंसिपल सविता रॉय की कारगुजारियों को लेकर है, जिनके खिलाफ ऋतु सिंह पहले दिन से जातिवादी होने का आरोप लगा रही हैं, और 2 साल पहले कालेज से उनके निष्कासन की सबसे बड़ी वजह करार दे रही हैं। इस लेख का मकसद पंजाब से आई एक लड़की की कहानी है, जो पिछले दो वर्ष से भी अधिक समय से अपने साथ हो रहे सांस्थानिक भेदभाव और अत्याचार को लगातार एक सामाजिक-राजनैतिक जागरूकता के औजार के तौर पर धार देने में लगी हुई हैं। 

इससे पहले भी डॉ. ऋतु सिंह से संबंधित सोशल मीडिया पोस्ट लगातार हजारों लोगों का ध्यान खींच रही थी। अपने हावभाव, हिंदी-अंग्रेजी और पंजाबी में फर्राटेदार जवाब देने वाली एक आधुनिक महिला का दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस में लगातार धरने पर बैठना अपने आप में एक अजूबा था। डॉ. लक्षमण यादव जैसे मशहूर हस्ती ने अपने साथ हुए प्रशासनिक भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए ऐसे विकल्प का चुनाव क्यों नहीं किया, या किसी अन्य ने भी इतनी हिम्मत क्यों नहीं जुटाई, यह सवाल उठना स्वाभाविक है।  

आखिर किस मिट्टी की बनी हैं डॉ. ऋतु सिंह? 

इसे समझने के लिए आपको डॉ. ऋतु सिंह की लड़ाई को गहराई से समझने की जरूरत पड़ेगी। विभिन्न सोशल मीडिया पोस्ट्स और वीडियोज में इस मनोविज्ञान से डॉक्टरेट हासिल महिला की चारित्रिक दृढ़ता, पारिवारिक पृष्ठभूमि और उस मानसिक बुनावट को समझने में मदद मिल सकती है। इस लड़ाई से पहले की ऋतु को जाने बिना इस फौलादी इरादे को समझना जरा मुश्किल तो अवश्य है। 

इस संबंध में 1 मार्च 2021 को teenvogue नामक अंग्रेजी वेब पोर्टल पर डॉ. ऋतु सिंह को लेकर एक स्टोरी लखप्रीत कौर और सिमरन जीत सिंह ने प्रकाशित की थी। दिल्ली की सीमाओं पर तब पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी और राजस्थान के किसानों का जमावड़ा लगा हुआ था। दिल्ली विश्वविद्यालय की सहायक प्रोफेसर ऋतु सिंह भी उन सैकड़ों दिल्ली के युवाओं में से एक थी, जिन्हें किसानों की यह लड़ाई बहुत कुछ सिखा रही थी। जल्द ही अपने धारदार बयानों और देश की सत्ता से तीखे सवाल पूछती एक बेहद आकर्षक महिला के रूप में ऋतु सिंह सुर्ख़ियों में आ चुकी थीं।

धरना स्थल पर डॉ. ऋतु सिंह

किसानों के इस जबर्दस्त आंदोलन से प्रेरित ऋतु सिंह का कहना था कि, “इस परिघटना ने हममें से कई लोगों को नींद से जगा दिया है। इसने उन्हें जगा दिया है, जिन्होंने आजतक इस बारे में विचार तक नहीं किया था कि उनकी प्लेटों में उन्हें जो कुछ भी खाने को मिल रहा है, वह इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि देश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो दिन-रात पाने खेतों में खुद के लिए और हम सभी के लिए खाने का इतंजाम करने के लिए खटते रहते हैं।” 

डॉ. ऋतु भले ही वर्तमान में दिल्ली जैसे महानगर में रह रही हैं, लेकिन उनकी जड़ें पंजाब के तरन तारण जिले के एक खेतिहर परिवार से हैं। यही वह मजबूत रिश्ता था, जो उन्हें नवंबर 2020 से चल रहे किसान आंदोलन की ओर बरबस खींचता चला गया। घर में दूसरी बार भी जब बेटी के रूप में ऋतु जन्मी थी, तो पित्रसत्तात्मक समाज की रुढ़िवादी मान्यताओं का हवाला देते हुए उनके रिश्तेदारों ने जब निराशा जताई थी, तब उनके पिता ने उनकी बातों को दरकिनार कहते हुए कहा था कि “मेरी बेटियां भले ही लडकियाँ हैं, लेकिन वे उन्हें लडकों के रूप में समझते हैं।” यही वजह है कि ऋतु के साथ उपनाम “सिंह” जुड़ा हुआ है, जो आमतौर पर सिख पुरुष के लिए इस्तेमाल किया जाता है।  अपने इंटरव्यू में ऋतु कहती हैं, “इस प्रकार मेरा नाम ऋतु सिंह गिल है। मेरे पिता कहा करते थे, ‘वह एक लड़की और लड़का दोनों है। वो मेरी बेटी और बेटा दोनों है।’”

यह माइंडसेट देश की कितनी लड़कियों को मिलता है? यही वजह है कि डॉ ऋतु सिंह एक नारीवादी, दलित अस्मिता की लड़ाई के साथ-साथ एक ऐसी दृढ-इच्छाशक्ति की मालिक नजर आती हैं, जिसे दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन और देश के हुक्मरानों की रत्तीभर भी परवाह नहीं है। ऐसा साहस आमतौर पर हमारे समाज में पुरुषों में भी मुश्किल से मिलता है। जी बेबाकी और बेतकल्लुफ होकर ऋतु अपने संघर्ष के साथ जुड़े युवाओं के साथ घुलीमिली नजर आती हैं, वैसा बनने के लिए न जाने देश की सवर्ण महिलाओं को भी किन-किन वर्जनाओं की बेड़ियों को पार करना होगा? सितंबर माह में धरनास्थल पर जब भारी बारिश की वजह से कीचड़ ही कीचड़ जमा हो गया था, तो अपने हाथों से झाड़ू बुहारती डॉ ऋतु सिंह की तस्वीर दिल्ली विश्वविद्यालय को लाखों लानतें भेज रही थी। 25 सितंबर को दलित युवा नेता और कांग्रेस विधायक जिग्नेश मेवानी ने उनके समर्थन में ट्वीट करते हुए इस वीडियो को जारी किया था।

डॉ. ऋतु सिंह के समर्थन में अब तक उत्तर भारत की लगभग सभी संघर्षशील ताकतों ने धरनास्थल पर पहुंचकर अपने समर्थन का इजहार किया है। किसान नेता राकेश टिकैत सहित जिग्नेश मेवानी धरनास्थल पर आ चुके हैं। डॉ. ऋतु सिंह की जिद क्या दिल्ली विश्वविद्यालय के उन अयोग्य प्रशासकों के लिए आये दिन शर्मिंदगी का बायस बना हुआ है, जो अपने वैचारिक संघी पितामहों की कृपा के कारण ही आज इस प्रतिष्ठित संस्थान की जड़ खोदने में लगे हुए हैं? असल में यही वह मुख्य रस्साकशी है जिसके एक सिरे को डॉ ऋतु सिंह ने पूरी दृढ़ता से थामे रखा है। ऐसा लगता है कि डॉ ऋतु सिंह को अपने कैरियर, आराम की जरा भी परवाह नहीं है। अपने खिलाफ हुए अन्याय को उन्होंने अब असल में दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों के मान-सम्मान की लड़ाई बना दिया है।  

कोविड-19 महामारी के दौरान पिछले 7 वर्षों से दौलत राम कालेज की प्राध्यापिका रही ऋतु सिंह को अचानक बताया जाता है कि अब कालेज को उनकी सेवाएं नहीं चाहिये। इसके खिलाफ सबसे पहले उनकी लड़ाई 10 सितंबर 2021 को ट्विटर पर देखने को मिलती है। कालेज प्रिंसिपल सविता रॉय को इसके लिए सीधे जिम्मेदार ठहराते हुए डॉ। ऋतु सिंह उनपर जातिवादी होने का आरोप लगाती हैं। अपने निलंबन के खिलाफ डॉ। ऋतु ने पहले अदालत का दरवाजा खटखटाया, लेकिन तकनीकी कारणों की वजह से वे अपने पक्ष को मजबूती से नहीं रख पाई। आज उनकी इस लड़ाई में मशहूर वकील महमूद प्राचा एक मजबूत स्तंभ बने हुए हैं, और उन्होंने ही इस लड़ाई को विस्तार देने की जरूरत के बारे में बताते हुए इसे अदालत के साथ-साथ सड़क तक ले जाने की राह सुझाई। 

9 जनवरी 2024 से लड़ाई एक नए मुकाम पर पहुँच गई है। शांतिपूर्ण धरने को 136 दिन हो चुके थे, जिसे दिल्ली पुलिस की मदद से जबरन हटा दिया गया। यह लड़ाई अब किसी एक अध्यापिका के बजाय देश के दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदाय की अस्मिता से जुड़ गई है। डॉ. ऋतु सिंह के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय ने एक नायाब हीरा तराशा है। ऐसी हजारों-हजार दबंग ऋतु सिंह की जरूरत देश के शिक्षा परिसरों को है, जिनके होसलों से देश की तकदीर चमत्कारिक रूप से बदल सकती है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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