पहले कभी अपवाद स्वरूप ही एकाध बार ऐसा हुआ होगा, लेकिन अब तो मानो परंपरा बन गई है कि चुनाव आयोग किसी भी चुनाव का कार्यक्रम घोषित कर देता है और कुछ ही दिनों बाद उसमें फेरबदल करता है। यह हैरानी की बात है कि पिछले एक साल के भीतर कम से कम तीन जगह चुनाव आयोग को अपने ही द्वारा घोषित चुनाव कार्यक्रम में फेरबदल करना पड़ा है। सवाल है कि ऐसा क्यों हो रहा है?
जब कभी किसी राज्य में विधानसभा के चुनाव होना होते हैं तो चुनाव घोषित होने से पहले मुख्य चुनाव आयुक्त के नेतृत्व में चुनाव आयोग की टीम चुनाव तैयारियों के सिलसिले में संबंधित राज्य का दौरा करती है। वह वहां के प्रशासन और पुलिस के शीर्ष अधिकारियों के साथ बैठक कर चुनाव तैयारियों की समीक्षा करती है। इसके अलावा वह राज्य के राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ भी बैठक करती है, जिसमें मतदान की तारीखों पर विचार विमर्श होता है। इस विचार-विमर्श में मौसम की संभावित स्थिति यानी अत्यधिक गरमी, सर्दी, बारिश, बाढ़, सुखाड़ के अलावा उस राज्य के स्थानीय तीज-त्योहार आदि पर चर्चा होती है। इस पूरी कवायद के बाद चुनाव आयोग चुनाव का कार्यक्रम घोषित करता है।
सवाल है कि जब इतनी सारी कवायद के बाद चुनाव आयोग मतदान और मतगणना की तारीखें घोषित करता है तो फिर उसे उन तारीखों में बदलाव क्यों करना पड़ता है? क्या आयोग की टीम को चुनाव वाले राज्यों के दौरे में यह भी पता नहीं चल पाता है कि वहां की विधानसभा का कार्यकाल कब खत्म होने वाला है या संभावित चुनाव कार्यक्रम के दौरान वहां कोई त्योहार तो नहीं आने वाला है? वह मतदान की तारीख तय करते समय इस बात पर विचार क्यों नहीं करता है कि मतदान की तारीख के आसपास कोई छुट्टियां तो नहीं आ रही हैं? और जब यह सब उसे नहीं पता चल पाता है तो वह राज्य के अधिकारियों और राजनीतिक दलों से किस बात पर विचार-विमर्श करता है? सवाल यह भी है कि चुनाव आयोग मतदान की तारीख तय करते समय इस बात पर विचार क्यों नहीं करता है कि मतदान की तारीख के आसपास कोई छुट्टियां तो नहीं आ रही हैं?
ताजा मामला हरियाणा विधानसभा चुनाव का है। आयोग ने सभी संबंधित पक्षों से बात करके और सारी स्थितियों का आकलन करके एक अक्टूबर को मतदान की तारीख घोषित की थी। लेकिन मतदान की तारीख घोषित होने के करीब एक हफ्ते बाद कहा जाने लगा कि एक अक्टूबर के आस पास बहुत सारी छुट्टियां हैं और उसी दौरान बिश्नोई समाज का बड़ा त्योहार भी है। भाजपा ने चुनाव आयोग को चिट्ठी लिख कर मतदान की तारीख बदलने का अनुरोध किया। चुनाव आयोग ने इस बारे में अन्य राजनीतिक दलों से बात करने की दिखावटी खानापूर्ति की। भाजपा के अलाव सभी दलों ने मतदान की तारीख बदलने का विरोध किया लेकिन चुनाव आयोग ने मतदान की तारीख आगे बढ़ा दी।
सवाल है कि चुनाव की घोषणा से पहले जब भाजपा की टीम जब चुनाव आयोग से मिली थी तो उसने तारीखों के बारे में क्या कोई सुझाव नहीं दिया था? क्या उसने अक्टूबर में आने वाले त्योहारों के बारे में की जानकारी नहीं दी थी? इससे भी बड़ा सवाल आयोग से है कि उसने यह क्यों नहीं सोचा कि दो अक्टूबर को गांधी जयंती की छुट्टी है और बिश्नोई समुदाय का त्योहार है, जिसके लिए लोग राजस्थान जाते हैं या तीन अक्टूबर को महाराजा अग्रसेन जयंती और शारदीय नवरात्र की प्रतिपदा है या 28 और 29 सितंबर को शनिवार और रविवार की छुट्टियां हैं?
दरअसल चुनाव आयोग पिछले कुछ सालों से जिस तरह काम कर रहा है, उसके मद्देनजर यह शंका होना स्वाभाविक है कि उसने जान बूझकर तो मतदान की तारीख एक अक्टूबर घोषित की थी और बाद में भाजपा की मांग पर इसे आगे बढ़ा कर बिश्नोई समुदाय को यह मैसेज देने की कोशिश की कि देखिए आपकी धार्मिक भावनाओं का कितना ध्यान रखा जाता है? चूंकि हरियाणा में मतदान की तारीख एक से बढ़ कर पांच अक्टूबर हो गई है तो इस वजह से जम्मू-कश्मीर के लोगों को भी चुनाव नतीजों के लिए आठ अक्टूबर तक इंतजार करना होगा। पहले चार अक्टूबर को मतगणना होने वाली थी।
इससे ठीक पहले लोकसभा चुनाव के समय आयोग ने ऐतिहासिक गलती की थी। चुनाव आयोग ने लोकसभा और चार राज्यों में वोटों की गिनती का दिन चार जून तय किया था। इसीलिए प्रधानमंत्री नेद्ग मोदी ने ‘चार जून, चार सौ पार’ का नारा दिया। लेकिन बाद में पता चला कि सिक्किम विधानसभा का कार्यकाल तो दो जून को ही खत्म हो रहा है। सो, आनन फानन में तारीख बदली और वहां मतगणना दो जून को कराई गई। इससे पहले पिछले साल दिसंबर में पांच राज्यों के चुनाव के समय वोटों की गिनती तीन दिसंबर को रखी गई थी। लेकिन उस दिन रविवार था और ईसाई बहुल मिजोरम में लोगों ने रविवार को मतगणना रखने का बड़ा विरोध किया था। इस वजह से मतगणना की तारीख बदली गई थी। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में तीन दिसंबर को और मिजोरम में चार दिसंबर को मतगणना हुई थी।
यह चुनाव आयोग की कार्य क्षमता और योग्यता पर बड़ा सवाल है। उसकी निष्पक्षता पर और सरकार के दबाव में काम करने को लेकर तो सवाल उठते ही रहते हैं। लेकिन चुनाव आयोग पूरी तरह शर्मनिरपेक्ष हो चुका है। वह अपनी कार्यशैली सुधारने के बजाय पूरी बेशर्मी के साथ विपक्षी दलों के ऐसे सवालों और आलोचना की पूरी बेशर्मी से खिल्ली उड़ाता है। चुनाव आयोग की कार्यशैली को लेकर अतीत में भी सवाल उठते रहे हैं लेकिन वह इतना अक्षम, इतना बेईमान, इतना पक्षपाती और इतना बेशर्म कभी नहीं रहा।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं)