विश्व मानवाधिकार दिवस: मानवाधिकार आंदोलनों को नए सिरे से एकजुट करने की जरूरत

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10 दिसम्बर को समूचे विश्व में मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। इसी दिन 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ में मानवाधिकारों की घोषणा का एक घोषणापत्र भी ‌जारी किया गया था, जिसमें घोषणा की गई थी- “विश्व का प्रत्येक मानव मानवाधिकार का हकदार है।” इस वर्ष 2023 में उसके 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस वर्ष उसका नारा है- “सभी के लिए स्वतंत्रता, समानता और न्याय।”

द्वितीय महायुद्ध के बाद जब संयुक्त राष्ट्र संघ का‌ गठन किया गया तथा यह महसूस किया गया कि दोनों महायुद्धों में बड़े पैमाने पर आम नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन किया गया, उसी के संरक्षण के लिए मानवाधिकारों का यह घोषणापत्र 1948 में जारी किया गया था। मानवाधिकारों के इस घोषणापत्र पर 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के बाद 1791 में फ्रांस के मनुष्यों और अधिकारों की घोषणा करते हुए जारी किए गए मानवाधिकारों के घोषणापत्र का व्यापक प्रभाव था।

इसमें लागू किए गए बहुत से अनुच्छेद वहीं से लिए गए हैं। सब लोग गरिमा और अधिकार के मामले में स्वतंत्र और बराबर हैं, अर्थात सभी मनुष्यों को गौरव और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतंत्रता और समानता प्राप्त है। प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के सभी प्रकार के अधिकार और स्वतंत्रता दी गई है।

नस्ल, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या अन्य विचार, राष्ट्रीयता या सामाजिक उत्पत्ति, सम्पत्ति, जन्म आदि जैसी बातों पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। चाहे कोई देश या प्रदेश स्वतंत्र हो, संरक्षित हो या स्वशासन रहित हो या परिमित प्रभुसत्ता वाला हो, उस देश या प्रदेश की राजनीतिक, क्षेत्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्थिति के आधार पर वहां के निवासियों पर कोई फर्क नहीं रखा जाएगा।

इस घोषणापत्र पर भारत सहित दुनिया के अधिकांश देशों ने हस्ताक्षर किए हैं। इस घोषणापत्र के 75 वर्ष बीत जाने के बाद आज यह विश्लेषण ज़रूरी है कि समूचे विश्व तथा हमारे देश में मानवाधिकारों की क्या स्थिति है?

द्वितीय महायुद्ध के बाद दुनिया रूस और‌ अमेरिका के नेतृत्व में दो अलग-अलग ख़ेमों में बंट गई थी और शीतयुद्ध की स्थिति पैदा हो गई थी तथा दोनों गुट एक दूसरे पर मानवाधिकारों के हनन का आरोप लगा रहे थे। दोनों ही ख़ेमों में व्यापक हथियारों की होड़ भी चल रही थी, इस कारण से दुनिया भर में व्यापक मानवाधिकारों का‌ हनन हो रहा था।

अमेरिका की कुख्यात संस्था सीआईए ने कई लोकतांत्रिक देशों में चुनाव के बल पर चुनकर आई सरकारों को गिराया तथा अपने पिट्ठू शासकों को वहां पर बैठा दिया। लैटिन अमेरिकी देश चिली इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। शीतयुद्ध के बाद दुनिया अनेक ख़ेमों बंट गई। दुनिया भर में क्षेत्रीय पैमाने पर युद्ध और गृहयुद्ध होने लगे। खाड़ी युद्ध से लेकर रूस-यूक्रेन जैसे युद्धों में बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, जो आज भी जारी है।

हमास और इज़राइल के बीच वर्तमान में हो रहे संघर्ष में बड़े पैमाने पर इज़राइल स्कूलों, अस्पतालों तथा नागरिक ठिकानों पर बमबारी कर रहा है, जिसमें हज़ारों आम नागरिक मारे जा रहे हैं। गाज़ापट्टी में जाने वाली मानवीय सहायता तक को इज़राइल रोक रहा है, इससे पहले हमास ने‌ भी‌ इज़राइल में घुसकर आम नागरिकों की हत्या की थी। इस समूचे इलाक़े में बड़ा मानवीय संकट पैदा हो गया है।

इसके अतिरिक्त रूस-यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध में भी हम यह देख सकते हैं। दुनिया भर में चल रहे युद्धों और गृहयुद्धों के कारण बड़े पैमाने पर आम नागरिकों का‌ विस्थापन हुआ है तथा एक बड़ी शरणार्थी समस्या भी ‌पैदा‌ हो‌ गई है, परन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ इन समस्याओं को रोकने में असफल सिद्ध हुआ है।

1990 के बाद दुनिया भर में लागू नव उदारवादी नीतियों के कारण बड़े पैमाने पर आर्थिक और सामाजिक संकट बढ़ रहा है। साम्राज्यवादियों द्वारा मुनाफ़े की‌ होड़ के कारण श्रम कानून असफल हो गए हैं। मज़दूरों को कम पैसे में अधिक समय तक काम करना पड़ रहा है। दुनिया भर में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैल रही है। एक रोज़गारविहीन विकास की अवधारणा पैदा हुई है, ये चीज़ें भी व्यापक रूप से मानवाधिकारों के उल्लंघन के अंतर्गत ही आती हैं।

भारत में मानवाधिकारों के हनन का प्रश्न

भारत में मानवाधिकारों के हालात और ज़्यादा जटिल हैं। आर्थिक कट्टरपंथ की नीतियों ने धार्मिक, नस्लीय और जातीय कट्टरपंथ के लिए उपजाऊ ज़मीन तैयार की है। समाज का रहा-सहा जनवादी स्पेस भी विगत दो दशकों के‌ दौरान तेज़ी से सिकुड़ा है और कमज़ोर तबकों पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है।

पिछले क़रीब ढाई दशकों का समय अनेक भीषण जातीय-धार्मिक जनसंहारों का गवाह रहा है। सामाजिक ताने-बाने में जाति और लिंग के आधार पर मौजूद रही निरंकुश उत्पीड़क प्रवृत्तियों को नयी मानवद्रोही संस्कृति ने नयी ताक़त और नया रूप देने का काम किया है।

भारतीय समाज में जनवादी चेतना का अभाव है लोकतंत्र में उनको दिए गए हक़ चाहे वह रोटी-रोज़गार का सवाल हो या मौलिक अधिकारों की रक्षा का सवाल हो, लोग इसके लिए इसलिए संघर्ष नहीं कर पाते क्योंकि निरंकुशता के मूल्य हमारे समाज में पहले ही से रग-रग में भरे हुए हैं।

भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन 12 अक्टूबर 1993 में हुआ था। राज्यों में भी सरकार द्वारा मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई है, इसके बावज़ूद भारत में नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन आज़ादी के बाद से ही जारी है।

हमारे यहां जनतंत्र लगातार सिकुड़ता गया। रोटी, कपड़ा, मकान की मूलभूत समस्याएं हल न होने के कारण अनेक बड़े आंदोलन हुए, जिसका सरकारों ने निर्ममतापूर्वक दमन भी किया। पूर्वोत्तर भारत तथा कश्मीर में आंदोलनों को कुचलने के लिए अनेक काले कानून बनाए गए। 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद मानवाधिकार हनन की‌ घटनाएं बहुत‌ तेज़ी से बढ़ीं।

दलित, पिछड़े, आदिवासी तथा अल्पसंख्यकों के ऊपर राज्य प्रायोजित हिंसा बहुत तेज़ी से‌ बढ़ी है। यूएपीए जैसे काले कानूनों के अंतर्गत लेखकों, पत्रकारों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं को बिना मुकदमा चलाए आतंकवाद के झूठे आरोप में जेलों में बंद रखा जा रहा है।

दूसरी ओर कुछ पूंजीपतियों को‌ फायदा पहुंचाने के लिए आदिवासियों को जल, जंगल और ज़मीन से महरूम किया जा रहा है। उन्हें माओवादी बताकर जेलों में बंद किया जा रहा है या हत्याएं की जा रही हैं। स्थिति यहां तक बिगड़ गई है कि ढेरों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तक की हत्याएं की गई हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्था तक ने इन सबकी आलोचना की है।

हमारे देश में सिविल सोसायटी की अनेक मानवाधिकार संस्थाएं मौजूद हैं, परन्तु उनका क्षेत्र सीमित है तथा आपस में बहुत वैचारिक मतभेद भी हैं, इसी कारण से वे देश में मानवाधिकारों के‌ हनन पर व्यापक संघर्ष की रणनीति नहीं बना पाती हैं। भारत में जनवादी अधिकार आंदोलन अपने सामाजिक अधिकार को व्यापक बनाने और ‌अपने को सशक्त बनाने के बारे में गहराई से सोचे। यह आत्ममंथन और विचार-विमर्श का समय है।

एक बुनियादी सवाल यह है कि मानवाधिकार आंदोलन को व्यापक जनभागीदारी और व्यापक सामाजिक आधार वाले एक आंदोलन के रूप में ढालने के ज़रूरत नहीं है? 

दूसरा सवाल यह है कि क्या कम से कम कुछ ज्वलंत मुद्दों पर देश भर के मानवाधिकार संगठनों को एकजुट होकर आवाज़ उठाने और दबाव बनाने की ज़रूरत नहीं है?

तीसरी बात मानवाधिकारों का सवाल केवल राजसत्ता के दमनकारी व्यवहार और काले कानूनों से ही नहीं जुड़ा है। धार्मिक कट्टरपंथ की राजनीति, धार्मिक अल्पसंख्यकों के अलगाव, दलितों और स्त्रियों के उत्पीड़न जैसे मुद्दे भी मनवाधिकार और ‌नागरिक आज़ादी के‌ सवाल‌ से जुड़े हुए हैं।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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