कॉरपोरेट साम्प्रदायिक फ़ासीवाद, कट्टरपन्थ और पुनरुत्थानवाद को निर्णायक शिकस्त ही शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि

सबसे ख़तरनाक होता है 

मुर्दा शांति से भर जाना 

न होना तड़प का

सब कुछ सहन कर जाना 

घर से निकलना काम पर 

और काम से लौटकर घर आना 

सबसे ख़तरनाक होता है 

हमारे सपनों का मर जाना

…….

सबसे खतरनाक वह दिशा होती है

जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाय !

-पाश

क्रांतिकारी कवि पाश की भी शहीदे-आज़म भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शहादत दिवस के दिन ही 23 मार्च को पंजाब में अलगाववादी कट्टरपंथियों ने हत्या कर दी थी।

आज एक बार फिर पंजाब में ऐसी नफरती ताकतों को पाल-पोस कर खड़ा और बड़ा किया जा रहा है जो अलग धर्म-आधारित राज्य की वकालत कर रही हैं, दूसरे धर्मों के खिलाफ भड़काऊ बातें कर रही हैं, भगत सिंह और पाश की विरासत को नकार रही हैं और किसान आंदोलन को भी खारिज कर रही हैं।

क्या यह महज संयोग है कि किसान आंदोलन जब जब उरूज पर होता है और  सत्ता से टकराने की ओर बढ़ता है, तब तब पंजाब में कट्टरपंथ और अलगाववाद की यह परिघटना सामने आती है। 80 के दशक में ठीक इसी तरह एक भष्मासुर खड़ा किया गया था। क्या आज फिर उसी इतिहास की पुनरावृत्ति की कोशिश है ?

आखिर पंजाब की जनता के जो genuine, लोकतान्त्रिक सवाल हैं, उन्हें भारतीय राज्य समय रहते हल क्यों नहीं करता-चाहे वह संघीय अधिकारों का सवाल हो, पानी का बंटवारा हो, बन्दियों की रिहाई का सवाल हो, भयावह बेरोजगारी और युवाओं की नशे से हो रही तबाही हो या फिर किसानी के संकट का सवाल हो?

इन सवालों को हल न करके, इनके लिए उठने वाले लोकतान्त्रिक आंदोलन की उपेक्षा करके किसी कट्टरपंथी ‘हीरो’ के लिए जगह तैयार की जाती है, हताश-निराश जनता को उसके बताए रास्ते की ओर ठेला जाता है, और फिर वह पूरे मामले को धार्मिक-साम्प्रदायिक रंग देकर पूरे समुदाय को अपने साथ बहा ले जाता है।

नतीजतन लोकतान्त्रिक आंदोलन पीछे चला जाता है और साम्प्रदायिक विभाजन और अंधराष्ट्रवाद की आग पर चुनावी रोटी सेंकी जाती है। एक संवेदनशील, अल्पसंख्यक बहुल आबादी वाले सीमावर्ती राज्य में इस खतरनाक खेल की बड़ी कीमत 80 के दशक में देश को चुकानी पड़ी थी। 

वैसे तो तब से सतलज और व्यास में बहुत पानी बह चुका है। दिल्ली के हुक्मरानों के खिलाफ बड़े लोकतान्त्रिक संग्राम में लगे 

पंजाब के किसान अपनी विकसित चेतना के साथ इन कोशिशों को कभी कामयाब नहीं होने देंगे।

पर, यह साफ है कि हिन्दू राष्ट्रवाद के रहनुमाओं के हाथों सारी सत्ता का चरम केंद्रीकरण भारत जैसे बहु-धार्मिक, बहु-सांस्कृतिक विविधता पूर्ण समाज के राष्ट्रीय विखंडन और लोकतन्त्र के खात्मे का सबसे पक्का नुस्खा ( surest recipe ) है। आज पंजाब में यह तर्क दिया जा रहा है कि अगर दिल्ली में सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों द्वारा हिन्दू राष्ट्र का उद्घोष जायज है तो सिख राष्ट्र क्यों नहीं ?

जाहिर है, भारत की एकता को बचाने का एक ही रास्ता है- हर हाल में धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र की हिफाज़त, विविधता के सम्मान, बराबरी व हिस्सेदारी पर आधारित राष्ट्रीय एकता, न की ऊपर से थोपी गयी एक राष्ट्र, एक धर्म, एक संस्कृति, एक पार्टी, एक नेता की तानाशाही !

आखिर क्यों, 2021-22 में ऐतिहासिक किसान-आंदोलन जब अपने शबाब पर था, तब उसमें खालिस्तानी तलाशने और ठप्पा लगाने की कोशिश शुरू हुई, देश की संसद के अंदर सत्तापक्ष के शीर्ष नेताओं द्वारा इस आशय के आरोप लगाए गए। Planted तत्वों द्वारा 26 जनवरी प्रकरण के माध्यम से इस आरोप को सच साबित करने और आंदोलन को बदनाम कर कुचल देने की बेहद खतरनाक साजिश रची गयी। वह साजिश कामयाब नहीं हुई, आंदोलन और ताकत के साथ उठ खड़ा हुआ और अंततः सरकार को किसान-आंदोलन के आगे को घुटने टेकने पड़े।

अब जब एक बार फिर से किसान-आंदोलन के पुनरुत्थान की कोशिशें जोर पकड़ रही हैं, तो  फिर ऐसी ताकतों को खाद पानी दिया जा रहा है, जो किसान आंदोलन और भगत सिंह की विरासत पर सीधा हमला कर रही हैं और किसानों तथा पूरे समाज को साम्प्रदायिक  जहर फैलाकर बाँटने में लगी हैं।

लोग चकित हैं कि यह संयोग था या प्रयोग कि ठीक उस समय जब आंदोलन के सबसे मजबूत गढ़ पंजाब के किसान दिल्ली महापंचायत पहुंचने की तैयारियों में लगे हुए थे, ऐन उसी वक्त पंजाब में इंटरनेट बंद हो गए और अमृतपाल सिंह की गिरफ्तारी के लिए पूरे पंजाब में केंद्र व राज्य के बलों का अभियान शुरू हो गया, जगह जगह बैरिकेडिंग और धर-पकड़ शुरू हो गयी, पूरे पंजाब में दहशत और सनसनी का एक अलग ही माहौल बन गया। 

यह कार्रवाई पहले क्यों नहीं हुई ?

ठीक किसानों के कार्यक्रम के समय क्यों हुई ? क्या इसका एक अहम उद्देश्य किसानों के दिल्ली मार्च को प्रभावित करना था ?

Visionary भगत सिंह ने अपने जीवन काल में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध के साथ-साथ साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ भी समझौता विहीन लड़ाई लड़ी। उन्होंने अपने संगठन में किसी भी साम्प्रदायिक संगठन से जुड़े व्यक्ति के प्रवेश पर रोक लगा दी थी।

वे इस सवाल पर कितने दृढ़ थे इसको इस तथ्य से समझा जा सकता है कि जिस लाजपत राय के लिए पंजाब के राष्ट्रीय हीरो के बतौर उनके मन में गहरा सम्मान था और जिनके ऊपर जानलेवा हमले का बदला लेने के लिए ही अंग्रेज अधिकारी की हत्या के आरोप में अंततः उन्हें फांसी की सजा हुई, 

उस लाजपत राय के अंदर एक समय जब साम्प्रदायिक रुझान दिखे, तब भगत सिंह ने उनकी कटु आलोचना में उतरने में लेशमात्र भी संकोच नहीं किया और उन्हें वर्ड्सवर्थ के लिए रॉबर्ट ब्राउनिंग द्वारा प्रयुक्त ” The Lost Leader ” की संज्ञा से विभूषित किया।

उनकी समझ बिल्कुल स्पष्ट थी। उन्होंने लिखा, ” लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके बहकावे में आकर कुछ नहीं करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इससे एक दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और आर्थिक आज़ादी हासिल होगी। “

उन्होंने एक सच्ची धर्मनिरपेक्षता की वकालत किया ” 1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं। न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए, क्योंकि यह सबको एक साथ मिलकर काम नहीं करने देता। इसीलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फांसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे। धर्म को राजनीति से अलग करना झगड़ा मिटाने का एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं। यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठा हो सकते हैं, धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें। ” 

भगत सिंह की जो वैचारिक-राजनीतिक विरासत है उसे मिटाने में संघ-भाजपा लगे हुए हैं। 

क्रांतिकारियों के संविधान में सोशलिस्ट शब्द जुड़वा कर मेहनतकशों के समाजवादी राज्य की स्थापना को भगत सिंह ने क्रांतिकारियों का लक्ष्य घोषित किया था। 

भगत सिंह के लिए आज़ादी के जो दो प्रमुख ध्येय थे- समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष राज्य, इन दोनों को संविधान के प्रस्तावना ( Preamble ) से हटाने के लिए संघ-भाजपा जोर लगाए हुए हैं। अभी अपने एक सांसद के प्राइवेट बिल के माध्यम से माहौल भांप रहे हैं, लेकिन यह साफ है कि फिर सत्ता मिली तो यह इनका प्रमुख एजेंडा बनने वाला है।

दरअसल,आज मोदी जी भगत सिंह के नाम पर भावुकता का प्रदर्शन चाहे जितना कर लें, RSS के साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद का भगत सिंह की साम्राज्यवाद-विरोधी देशभक्ति और राष्ट्रवाद से कभी कुछ लेना देना नहीं था। पूर्व सरसंघ चालक देवरस की यह स्वीकारोक्ति इतिहास में दर्ज है कि कैसे हेडगेवार ने उन लोगों को भगत सिंह के विचारों से अलग करने के लिए बाकायदा लंबी क्लास लिया था।

भगत सिंह जिन मूल्यों के लिए लड़े और अंततः शहादत का वरण किये, संघ-भाजपा अपने जन्म-काल से ही उसके ठीक विपरीत खड़े रहे हैं, और आज उन सारे विचारों, मूल्यों और आदर्शों की हत्या कर देने पर आमादा हैं।

जरूरत है, इनके खिलाफ लोकतान्त्रिक आंदोलन, सर्वोपरि किसान-मेहनतकश-युवा आंदोलन तेज हों, ताकि साम्प्रदायिक फासीवाद, कट्टरपंथ तथा पुनरुत्थानवाद को निर्णायक शिकस्त दी जा सके, यही अमर शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी !

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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