शपथ ग्रहण समारोह में डॉनल्ड ट्रंप के पीछे की कतार में दुनिया के तीन सबसे धनी व्यक्ति बैठे थे। छह नवंबर 2024 के बाद से उन तीनों की संपत्ति में साझा तौर पर 233 बिलियन डॉलर की बढ़ोतरी हुई है। इलॉन मस्क, जेफ बिजोस, और मार्क जुकरबर्ग को हुए इस लाभ के पीछे समान पहलू डॉनल्ड ट्रंप से उनकी (पुरानी या नई बनी) निकटता है। ट्रंप के चुनाव जीतते ही शेयर बाजार के निवेशकों ने समझ लिया कि अब असल में अमेरिकी राजसत्ता की कमान इन अरबपतियों के हाथ में ही आ गई है।
शपथ ग्रहण के बाद ट्रंप ने जो भाषण दिया, उससे उन्होंने उपरोक्त धारणा की पुष्टि ही की। उन्होंने मंगल ग्रह तक इनसान को भेजने का इरादा जताया, तो दमकते चेहरे के साथ उस पर इलॉन मस्क का थम्स अप (अंगूठा ऊपर) करना अकारण नहीं था। अपने स्टार लिंक के साथ मस्क अंतरिक्ष के प्राइवेट उद्यम आज सबसे प्रमुख चेहरा हैं।
चार साल तक रिटायर हुए राष्ट्रपति जो बाइडेन का पिछलग्गू बन कर एक समय बनी अपनी ऊंची साख और लोकप्रियता गंवा चुके ‘डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट’ नेता बर्नी सैंडर्स को ट्रंप ने जो बातें कहीं, उससे अधिक वो मुद्दे चुभे, जिनका जिक्र उन्होंने नहीं किया। बेशक, वे आम जन से जुड़े सबसे प्रमुख सवाल आज अमेरिका के आम बाशिंदों के सामने हैं। मगर ट्रंप ने उन प्रश्नों को दरकिनार कर भी अपने लिए बड़ा चुनावी जनादेश जुटाने की अपनी क्षमता फिर से दिखाई है। जिन लोगों के लिए ये मुद्दे अहम हैं, उनको उन्होंने फिलहाल आव्रजकों और पुराने ऐस्टैबलिशमेंट के उसूलों से नफरत करने में उलझा रखा है। साथ ही ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के खोखले नारे से उन्हें उत्साहित भी कर रखा है।
तो जिन खास मुद्दों का उल्लेख ट्रंप ने नहीं किया, उनमें शामिल हैः
- बिगड़ते जलवायु की रक्षा।
- गंभीर आवास संकट, जिस कारण आठ लाख लोग आज बेघर अवस्था में हैं।
- मेडिकल संकट, जिसकी वजह से करोड़ों अमेरिकियों के लिए इलाज कराना दूभर हो चुका है।
- कानूनन तय न्यूनतम वेतन, जो पिछले दो दशक से 7.25 डॉलर प्रति घंटे पर अटका हुआ है। (https://x.com/SenSanders/status/1881826224819114315)
- छात्र ऋण से लेकर क्रेडिट कार्ड ऋण तक बढ़ता गया बोझ।
- महंगाई का जिक्र ट्रंप ने किया, मगर जब सारे मोनोपॉली घराने उनके पीछे लामबंद हैं, तो वे इस पर कैसे काबू पाएंगे, यह उन्होंने नहीं बताया। अर्थशास्त्री अपने अध्ययनों यह बता चुके हैं कि दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह अमेरिका में भी कोरोना काल के बाद बढ़ी महंगाई का मुख्य कारण मोनोपॉली घरानों की मुनाफाखोरी है।
- ट्रंप ने अमेरिका में तेजी से बढ़ रही आर्थिक गैर-बराबरी का भी उल्लेख नहीं किया, जिसका सीधा संबंध मोनोपॉली कायम होने की परिघटना से भी है। (https://x.com/KobeissiLetter/status/1881821226139525166)
इसके विपरीत उन्होंने वैसी घोषणाएं कीं, जिनसे अमेरिका उन कदमों एवं फैसलों से पीछे हटेगा, जिनसे दुनिया में अमेरिका की खास पहचान बनी थी। बीती सदी में लागू किए गए इन उपायों का अमेरिका का सॉफ्ट पॉवर बनाने में बड़ा योगदान रहा। ट्रंप के जो कदम अमेरिका के सॉफ्ट पॉवर को क्षीण करेंगे, उन पर ध्यान देः
- अमेरिका में जन्म लेने पर किसी बच्चे को स्वतः नागरिकता मिलने के प्रावधान खत्म करना। न्यायिक चुनौती के बीच ट्रंप इसमें अंतिम रूप से सफल होंगे या नहीं, यह मुद्दा नहीं है। ऐसे कदम के पक्ष में अमेरिका में माहौल बना है, इससे जुड़े संदेश का दुनिया में अपना असर होगा।
- अफ्रीकन-अमेरिकन मूल के नागरिकों को आर्थिक एवं प्रशासनिक क्षेत्र में उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए 1960 के दशक के बाद से लागू बहुलता- न्याय- समावेशन की नीतियों को खत्म करना।
- ट्रंप ने अमेरिका में नस्लीय भेदभाव के इतिहास से संबंधित क्रिटिकल रेस थ्योरी की पढ़ाई स्कूलों और कॉलेजों में रोकने का इरादा शपथ ग्रहण समारोह में दिए अपने भाषण में भी दोहराया।
- बहुलता- न्याय- समावेशन की नीतियों का लाभ ट्रांस जेंडर व्यक्तियों को भी मिलता था। अब ट्रंप ने ट्रांसजेंडर को अलग लिंग मानने की नीति ही खत्म कर दी है। उन्होंने आदेश जारी किया है, जिसके तहत अमेरिका में तीसरे लिंग की मान्यता खत्म कर दी गई है। अब वहां कानूनन सिर्फ पुरुष और महिला दो ही लिंग हैं।
- महिलाओं को उनके गर्भपात के वैध अधिकार से पहले ही वंचित किया जा चुका है।
इस तरह एक वाक्य में कहें, ट्रंप काल में अमेरिका ने सामाजिक प्रगति के लगभग सौ साल के इतिहास को पलट दिया है। आर्थिक क्षेत्र में वह गिल्डेड एज (गिल्ड युग) में लौट गया है। अमेरिका में 1860 से 1890 की अवधि को गिल्डेड एज कहा जाता है, जिस दौर में तेजी से उद्योगीकरण होने के साथ-साथ धन एवं आय की गैर-बराबरी भी उतनी ही तेजी से बढ़ी थी और राजनीति में भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया था। उस दौर की एक परिघटना सामाजिक अशांति और श्रमिक वर्ग के आंदोलनों का उभरना थी। शोषण, असामानता और अन्याय के खिलाफ श्रमिकों की हड़ताल आम चलन हो गया था। विभिन्न सामाजिक वर्गों के आंदोलन उभरे थे। उसी दौर में काम की अवधि को घंटों तक सीमित करने की मांग उठी, जिससे दुनिया भर के मजदूरों को ये अधिकार मिला।
बहरहाल, पेरिस संधि और विश्व स्वास्थ्य संगठन से अमेरिका को निकालने के ट्रंप के फैसले ऐसे हैं, जिनका असर अमेरिका के साथ-साथ सारी दुनिया पर पड़ेगा। ट्रंप ने ह्वाइट हाउस में लौटते ही जो फैसले सबसे पहले लिए, उनमें ये दोनों कदम भी हैं।
रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपतियों का जलवायु संरक्षण संबंधी वचनबद्धताओं से गुरेज नई बात नहीं है। जहां तक वैश्विक जलवायु का प्रश्न है, तो उसे बचाने की दिशा में अमेरिका का योगदान पहले भी न्यूनतम ही था। नई चुनौती तो यह है कि रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से अपने यहां जलवायु संरक्षण की नीतियां लागू करने में अग्रणी रहे यूरोप ने भी अपना रास्ता बदल लिया है। इस बीच ताजा घटना का संदेश है कि अमेरिका ने प्रतीकात्मक तौर पर भी जलवायु परिवर्तन की चिंता छोड़ दी है। इससे बहुत से दूसरे देश भी इस राह पर चलने को प्रेरित हो सकते हैं।
ट्रंप ने इसके साथ ही ‘ड्रिल बेबी ड्रिल’ के अपने नारे को अपने प्रशासन की नीति बनाने का एलान भी किया है। इसका अर्थ है कि अमेरिका में फ्रैकिंग तकनीक से शेल गैस एवं कच्चा तेल निकालने पर लगी रोक खत्म हो जाएगी। तेल निकालने के लिए खुदाई भी पर्यावरण की चिंता किए बगैर बेरोक ढंग से हो सकेगी। इस तरह जीवाश्म ऊर्जा का उपयोग घटाने की नीति से अमेरिका ने किनारा कर लिया है। अब अमेरिका में कच्चे तेल, प्राकृतिक गैस और कोयला आदि का औद्योगिक स्तर पर इस्तेमाल बेलगाम ढंग से हो सकेगा। अमेरिकी तेल एवं अन्य कंपनियों के लिए यह बड़ी खुशखबरी है।
मगर इसकी कीमत अमेरिका का वातावरण चुकाएगा। जिसकी मार अंततः सब पर पड़ेगी। लॉस एंजिल्स का हालिया अग्निकांड इसका सबूत है। ट्रंप की नीति से अमेरिका अपने वातावरण को और दूषित करने की तरफ बढ़ेगा। इसका असर कुछ वर्षों के अंदर ही अमेरिकी आवाम भुगतेगी।
अवैध आव्रजकों को निकालने के ट्रंप के अभियान से भारत सर्वाधिक प्रभावित होने वाले देशों में रहेगा। इसके अलावा उनकी एक और घोषणा भारत के लिए चिंता का विषय है। ट्रंप ने पहले ही चेतावनी दी थी कि ब्रिक्स देश अपने कारोबार के भुगतान में डॉलर का इस्तेमाल घटाएंगे, तो अमेरिका उनसे होने वाले आयात पर 100 फीसदी शुल्क लगाएगा। राष्ट्रपति पद का शपथ लेने के तुरंत बाद उन्होंने ये धमकी दोहराई है।
डॉलर के प्रभाव से मुक्ति होने की मुहिम में भारत ब्रिक्स के मंच पर मुखर नहीं रहा है। मगर उसने विभिन्न देशों के साथ आपसी मुद्राओं में आयात-निर्यात के भुगतान संबंधी करार किए हैं। यह सब डॉलर के प्रभाव से मुक्त होने की कोशिश का ही हिस्सा है। यह कोशिश ज्यादा आगे नहीं बढ़ी है, तो उसकी वजह भारतीय अर्थव्यवस्था की अपनी कमजोरियां हैं। गुजरे वर्षों में डॉलर की तुलना में रुपये की गिरती कीमत भी इसमें एक बाधा बनी है। मगर ट्रंप प्रशासन इस प्रयास को डॉलर को चुनौती देने की बड़ी मुहिम का ही हिस्सा मान सकता है। यानी ट्रंप के टैरिफ की जो गाज ब्रिक्स देशों पर गिरने वाली है, उसके प्रभाव में भारत भी आ सकता है।
तो कुल मिला कर डॉनल्ड ट्रंप विश्व में तमाम किस्म की प्रगति के लिए एक चुनौती बन कर आए हैं। अब देखना यह है कि अमेरिका के लोग इसका कैसे मुकाबला करते हैं। रास्ता तो वही है, जो गिल्डेड एज के दौरान श्रमिक वर्ग ने अपनाया था। संभवतः अमेरिकी श्रमिक वर्ग फिर उस इतिहास कुछ सबक ले!
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
+ There are no comments
Add yours