Sunday, April 28, 2024

मासिक धर्म अवकाश: क्या महिला मंत्री भी कभी साधारण महिला थीं?

13 दिसम्बर को राज्यसभा में राजद के सांसद मनोज कुमार झा ने जब सवाल उठाया कि कामकाजी महिलाओं के लिए सवैतनिक मासिक धर्म अवकाश पर सरकार ने क्या कोई नीति बनाई है, तो महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी ने एक ऐसा बयान दिया जो आम महिलाओं के प्रति लेशमात्र भी संवेदनशीता नहीं दर्शाता।

महिला मंत्री ने कहा,”एक रजस्वला महिला होने के नाते मैं व्यक्तिगत तौर पर कह सकती हूं कि किसी मासिक होने वाली महिला के लिए मासिक धर्म का चक्र कोई बाधा नहीं है। वह महिलाओं की जीवन यात्रा का एक स्वाभाविक हिस्सा है.. आज महिलाएं आर्थिक रूप से सशक्त हो रही हैं- हमें ऐसे मुद्दों को प्रस्तावित नहीं करना चाहिये जिनसे महिलाओं को समान अवसरों से वंचित किया जाए, सिर्फ इसलिए कि जो मासिक धर्म से नहीं गुजरता उसका मासिक धर्म के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण है।”

यह बहस सरकार के स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा प्रस्तुत मासिक धर्म स्वच्छता नीति के संबंध में उठी, क्योंकि नीति में सवैतनिक अनिवार्य मासिक धर्म अवकाश पर कोई बात नहीं की गई थी।

मंत्री ने आगे स्पष्ट कर दिया कि सभी कार्यस्थलों के लिए सवैतनिक मासिक धर्म अवकाश का प्रावधान अनिवार्य करने का कोई प्रस्ताव सरकार के समक्ष विचाराधीन नहीं है।

मासिक धर्म स्वच्छता नीति के मसौदे से भी ऐसा ही प्रतीत होता है- “शैक्षणिक संस्थान और कार्यस्थल समावेशिता को बढ़ावा देंगे। कार्यबल की विविध आवश्यकताओं को पहचानेंगे और ऐसे वातावरण को बढ़ावा देंगे जो सभी की भलाई व उत्पादकता का समर्थन करें। लचीले कामकाज जैसे प्रावधन, रजस्वला महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं को समायोजित करने के लिए घर से काम या सहायता अवकाश जैसी व्यवस्थाएं सभी के लिए उपलब्ध हों ताकि मासिक धर्म चक्र के आधार पर उत्पादकता के बारे में स्टिग्मा या गलत धारणाओं पर रोक लगे।”

पर अपना जवाब देकर भी मंत्री जी संतुष्ट नहीं हुईं। अपने लिखित बयान में उन्होंने और भी विस्तार किया कि “महिलाओं का एक छोटा सा हिस्सा गंम्भीर डिसमेनोरिया या कष्टार्तव जैसी शिकायतों से पीड़ित रहता है, ओर इनमें से अधिकतर मामलों को दवा द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।”

क्या यह सच है? क्या स्मृति ईरानी महिला रोग विशेषज्ञ हैं या देश की सारी रजस्वला महिलाओं की ओर से वकालत कर रही हैं?

चिकित्सक डाॅ. निधि मिश्र का कहना है कि मासिक शुरू होने से पहले कई महिलाओं को पीएमएस यानि प्री मेंस्ट्रुअल सिंड्रोम से गुज़रना पड़ता है। इसमें माइग्रेन, शरीर में दर्द, उल्टी, सुस्ती, स्तनों में सूजन आदि जैसे लक्षण देखे जाते हैं। कई महिलाओं को पहले दो दिन भयानक दर्द होता है, जिसकी तीव्रता को हार्ट अटैक के समतुल्य बताया जाता है। इस समय महिलाओं को काम पर ध्यान देना और देर तक एक स्थिति में बैठे रहना संभव नहीं होता है। इसलिए माह में कम से कम दो दिन सवैतनिक अवकाश मिलना चाहिये।” क्या स्मृति ईरानी जी को इन सब बातों की कोई जानकारी नहीं है?

बिहार और केरल ने माॅडल स्थापित किया

यद्यपि भारत के अधिकांश हिस्सों में रजस्वला महिलाओं के प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य को लेकर कोई सकारात्मक चिंता और नीति निर्माण नहीं दिखाई देता, दो राज्यों ने अपवाद स्वरूप इस मामले में पहल की। केरल सरकार ने इसी वर्ष जनवरी 19 को मासिक धर्म अवकाश की घोषणा करते हुए कहा था कि यह समाज को अधिक ‘जेन्डर जस्ट’ और ‘इन्क्लूसिव बनाने की दिशा में एक कदम है। यह पहल तब की गई जब क्यूसैट के छात्र संघ की ओर से यह प्रस्ताव आया।

बिहार में 1992 में अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला ऐसोसिएशन की पहल पर सरकारी कर्मचारी महिलाओं ने 2-3 महीने लगातार आन्दोलन किया और 3 दिन मासिक धर्म अवकाश की मांग उठाई। उस समय मंडल और राम मंदिर आंदोलन का दौर था तो सभी लोग इन्हीं मुद्दों में उलझे हुए थे। मासिक धर्म का सवाल वैसे भी समाज में वर्जित माना जाता है, क्योंकि इसको महिला की लाज से जोड़ दिया गया है। जो औरत इस पर बात करे उसे निर्लज्ज समझा जाता है।

यही कारण है कि पुरुष कर्मचारी और घर के पुरुष भी नहीं चाहते थे कि इस प्रश्न को सार्वजनिक रूप से हड़ताल के जरिये उठाया जाए। लालू यादव की सरकार के कान में जूं तक न रेंगी। पर महिलाएं डटी रहीं। लगातार संघर्ष करने के बाद महिलाओं को यह हक मिला और यह एक पितृसत्तात्मक समाज व सरकार को देखते हुए एक बड़ी जीत थी।

बिहार में 45 वर्ष आयु तक की महिलाओं को हर माह 2 दिन पेड पीरियड लीव मिलती है। पर यह हर विभाग में लागू है या नहीं, कहना मुश्किल है, क्योंकि औरतें खुद शर्म करती हैं और अपने यहां इस प्रावधान को लागू करने पर चर्चा नहीं करतीं।

कई देशों में कंपनियां देती हैं वैतनिक या अवैतनिक मासिक धर्म अवकाश

जोमैटो कम्पनी अपनी महिला कर्मचारियों को साल में 10 दिन वैतनिक पीरियड लीव देती है। इससे एक कदम आगे है फ्रांस की फर्नीचर कम्पनी लूई, जिसकी महिला कर्मी साल में 12 दिन वैतनिक अवकाश ले सकती हैं। इसी तरह लाॅस एंजेलिस की चानी एस्ट्रोलॉजी कंपनी ‘अनलिमिटेड पीरियड लीव’ देती है। और यह उन सभी महिलाओं के लिए होता है ‘जिनके पास गर्भ’ है।

यह एक जरूरी प्रश्न है। केवल रजस्वला महिलाओं को ही नहीं, बल्कि रजोनिवृत्ति के दौर से गुज़र रही औरतों को भी काफी रक्तस्राव होता है, और यह अनियमित होता है- कई बार तो लगातार 15 दिन तक भी चलता है। जिन महिलाओं को थायराॅयड की समस्या होती है उन्हें भी कई बार महीने में दो बार पीरियड हो सकता है।

जाम्बिया में भी एक दिन का अवकाश मिलता है, जिसे ‘मदर्स डे’ के नाम से जाना जाता है। 8 वर्ष से यह कानून लागू है और अब महिलाएं इसका भरपूर लाभ लेती हैं। ताइवान में साल भर में केवल 3 दिन अवकाश है, जो 2002 से लागू है, और वह भी महीने में अधिकतम एक दिन ही।

जापान में पीरियड लीव 1947 से लागू है, पर कंपनियों के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वे अवकाश के दिनों की पगार दें। इंडोनेशिया में 1951 से मेन्स्ट्रुअल लीव पाॅलिसी लागू है और दक्षिण कोरिया में 1953 से। चीन के कुछ प्रान्तों में 1993 से 2006 तक नीति लागू की गई।

एक अलग दृष्टिकोण

पर एक महत्वपूर्ण बात समझने की है। रूसी क्रान्ति के बाद 5 वर्षों तक सवैतनिक मासिक धर्म अवकाश का प्रावधान था। पर महिला श्रमिकों की ओर से ही इस नीति का विरोध किया जाने लगा। आखिर इसका कारण क्या था? इसमें भी पितृसत्ता छिपे रूप में काम कर रही थी।

दरअसल, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान महिलाओं को काफी सारे काम करने पड़े, क्योंकि घर के पुरुष युद्ध के मोर्चे पर डटे हुए थे। उस समय यह माना गया कि महिला श्रमिकों को मासिक धर्म अवकाश देना आवश्यक होगा वरना उनकी प्रजनन क्षमता पर असर पड़ेगा। युद्ध के कारण जनसंख्या घट रही थी, महिलाओं की प्रजनन क्षमता को बढ़ाना आवश्यक लग रहा था, हालांकि यह बाद में साबित हो गया कि मासिक धर्म के समय आराम करने से प्रजनन क्षमता नहीं बढ़ती।

जब सैनिक घर वापस लौटे तो उन्हें राज़गार देना सरकार की प्राथमिकता बन गई। 1920 के दशक में महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों को रोज़गार में वरीयता दी जाने लगी। तर्क था कि मासिक होने वाली महिला को अवकाश के दिनों का वेतन देना पड़ता है, इसलिए वे ‘महंगी’ श्रमिक साबित होती हैं। दूसरे, कहा गया कि वे घर में रहकर अधिक बच्चों को जनकर देश की जनसंख्या में वृद्धि कर सकती हैं, और उनकी देखभाल ठीक से कर सकती हैं।

यूं कहा जाए तो पीरियड लीव महिला श्रमिकों के प्रति भेदभाव का कारण बना और उनकी जगह पुरुषों को लिया जाने लगा। तीसरे, महिला श्रमिकों की स्टीरियोटाइपिंग होने लगी। उन्हें कमज़ोर समझकर मेहनत वाले कामों से अलग रखा जाने लगा, यानि उनके साथ अवसरों के मामले में भेदभाव बरता जाने लगा। पुरुष श्रमिकों को लेना अधिक किफायती लगने लगा और उन्हें महिलाओं की अपेक्षा अधिक भरोसेमंद माना जाने लगा। इसलिए मजबूर होकर महिला श्रमिकों ने इस प्रावधान को हटाने की मांग की, और 1927 में इसे हटा दिया गया।

पुनः 2013 में रूस में इस प्रावधान की मांग सांसद मिकाइल डेगटियारयोव की ओर से हुई। उनका तर्क था- उस अवधि के दौरान (मासिक धर्म के) अधिकांश महिलाएं मनोवैज्ञानिक और शारीरिक परेशानी का अनुभव करती हैं। औरतों के लिए दर्द अक्सर इतना तीव्र होता है कि एंबुलेंस तक बुलाना पड़ता है। तेज़ दर्द से भयंकर थकान होती है। याददाश्त और कार्य क्षमता कम हो जाती है और भावनात्मक परेशानी की भांति-भांति की अभिव्यक्ति होती है। पर उन्हें सफलता नहीं मिली।

भेदभाव का तर्क देकर बहस को गुमराह किया जा रहा है?

जहां तक भेदभाव की बात है, तो औरतों को वैसे भी हर जगह भेदभाव का सामना करना पड़ता है, महज इसलिये कि वे औरत हैं। अगर इस तर्क को आधार बनाया जाए तो औरत मां बनती है, इसलिए भी उसके साथ अवसरों के मामले में भेदभाव होता है। तो क्या इस आधार पर मातृत्व अवकाश न दिया जाए? औरतों को बच्चों को देखना होता है, तो क्या चाइल्ड केयर लीव न हो? उल्टे, अब तो पुरुषों के लिए पैटरनिटी लीव और चाइल्ड केयर लीव की बात हो रही है।

महिलाओं और पुरुषों के लिए फ्लेक्सी टाइम, हाइब्रिड वर्क और वर्क लाइफ बैलेंस तक की बात हो रही है। कार्यस्थल पर क्रेच के अलावा शिशुओं के स्तनपान के लिए कमरे बनाए जा रहे हैं। कुल मिलाकर बात है माहौल को अधिक इन्क्लूसिव बनाना; श्रमिकों को एक ऐसा माहौल देना जिसमें वे सहज रहें, मानसिक व शारीरिक रूप से स्वस्थ रहें और मन लगाकर अपना काम कर सकें। इससे उनकी उत्पादकता और सृजनशीलता कई गुना बढ़ सकती है।

तो महिला मंत्री औरतों के प्रति अधिक संवेदनशील हों बजाए पितृसत्तात्मक तर्कों के सहारे अपने राजनीतिक आकाओं को तुष्ट करें।    

(कुमुदिनी पति महिला अधिकार कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)         

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