15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से अपने भाषण में ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के जरूरत की जोर-शोर से वकालत की। उन्होंने कहा कि देश में हर महीने कोई न कोई चुनाव होता रहता है, जिससे देश के विकास में बाधा पड़ती है।
प्रधानमंत्री के लाल किले से इस भाषण के अगले दिन ( 16 अगस्त) भारत के चुनाव आयोग ने दो राज्यों हरियाणा और जम्मू-कश्मीर ( केंद्र शासित) में विधान सभा चुनावों की घोषणा की। हरियाणा में 1 अक्टूबर को चुनाव होगा और जम्मू-कश्मीर में तीन चरणों में 18 सितंबर, 25 सितंबर और 1 अक्टूबर को चुनाव होगा। चुनाव परिणामों की घोषणा 4 अक्टूबर को होगी। दो राज्यों के चुनावों की अलग से घोषणा से पहले देश में करीब बहुलांश लोग यह मानकर चल रहे थे कि हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू-कश्मीर के विधान सभा चुनाव एक साथ ही होंगे, क्योंकि इन सभी विधान सभाओं का चुनाव नवंबर तक संपन्न हो जाना है।
तय है कि 4 अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर और हरियाणा का चुनाव परिणाम आने के कुछ एक दिनों के बाद चुनाव आयोग महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव कब होंगे इसकी घोषणा करेगा। यह भी तय है कि दोनों राज्यों की चुनाव प्रक्रिया की शुरुआत अक्टूबर के अंत तक तो ज़रूर ही हो जाएगी, ज्यादा से ज्यादा नवंबर के पहले हफ्ते तक खींचा जा सकता है।
सवाल यह है कि जब इन चारों राज्यों में चुनाव एक साथ संपन्न कराए जा सकते थे, तो चुनाव आयोग ने जम्मू-कश्मीर और हरियाणा का चुनाव एक साथ कराने और इन दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम आ जाने के बाद महाराष्ट्र और झारखंड में चुनाव कराने का अतार्किक निर्णय क्यों लिया?
जवाब बहुत सीधा और सरल है। साफ-साफ यह दिख रहा है कि चुनाव आयोग ने यह निर्णय केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के निर्देश और इच्छानुसार लिया है। इस निर्देश और इसके आधार पर चुनाव की तारीख तय करने का निर्णय भाजपा को हरियाणा के चुनाव और उसके बाद के महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों में फायदा पहुंचाने की नियति से लिया गया है।
आइए देखते हैं कि जम्मू-कश्मीर और हरियाणा का चुनाव एक साथ कराने से भाजपा को हरियाणा में क्या चुनावी फायदा मिलने कि उम्मीद वह देख रही है। सबसे पहले यह तथ्य रेखांकित कर लेना जरूरी है कि भले चुनावी दोनों राज्यों में चुनावी प्रक्रिया एक साथ शुरू हो रही है, लेकिन हरियाणा में चुनाव 1 अक्टूबर को होगा, जब जम्मू-कश्मीर में दो चरणों का चुनाव संपन्न हो चुका होगा।
भाजपा जम्मू-कश्मीर के चुनावों से हरियाणा में क्या फायदा पाने की उम्मीद कर रही है। हरियाणा में पिछले लोकसभा चुनाव ( 2024) के परिणामों के आधार पर सिर्फ देखें तो हरियाणा की 90 विधान सभा सीटों में से 46 विधान सभा सीटों पर कांग्रेस को साफ-साफ बढ़त हासिल है। लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के वोटों में करीब 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जिन पांच लोकसभा सीटों पर कांग्रेस जीती है, वहां तो उसका वोट प्रतिशत बढ़ा ही है, जिन पांच लोकसभा सीटों पर कांग्रेस और इंडिया गठबंधन को हार मिली है, वहां भी वोट प्रतिशत बढ़ा। भले ही हरियाणा में कांग्रेस लोकसभा की 10 में पांच सीटें ही जीत पाई हो, लेकिन पूरे देश में अन्य प्रदेश की तुलना में इंडिया गठबंधन को सबसे अधिक वोट (करीब 46 प्रतिशत से अधिक) मिला है।
इसके बावजूद भी लोकसभा चुनावों में मोदी फैक्टर भी अपनी भूमिका अदा कर रहा था, लेकिन विधान सभा चुनाव में उस रूप में मौजूद नहीं होगा। इसके साथ ही हरियाणा में कांग्रेस इस बार पूरी तरह भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में लड़ रही है। कांग्रेस के भीतर उम्मीदवार इस या उस गुट के आधार पर नहीं चुने जाएंगे। मनोहर लाल खट्टर को हटाकर नवाब सिंह सैनी को लोकसभा चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री बना दिया गया था, लेकिन सैनी कार्ड भी ज्यादा काम नहीं किया।
हरियाणा के अभी तक के सारे फैक्टर यह बता रहे हैं कि हरियाणा में भाजपा की हार तय सी है, कोई चमत्कार ही उसे हार से बचा सकता है और कांग्रेस को जीत से वंचित कर सकता है। इसी तरह के किसी चमत्कार की उम्मीद में केंद्र सरकार के इच्छानुसार चुनाव आयोग ने जम्मू-कश्मीर के साथ हरियाणा का चुनाव कराने का निर्णय लिया।
जम्मू-कश्मीर के साथ हरियाणा का चुनाव करा कर भाजपा निम्न फायदे देख रही है। पहला जम्मू-कश्मीर में भाजपा मुख्य चुनावी पिच राष्ट्रवाद, पृथकतावाद, आतंकवाद का खात्मा और पहली बार जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री बनाने की उम्मीद पर केंद्रित होगा। असल में राष्ट्रवाद, पृथकतावाद, आतंकवाद और हिंदू मुख्यमंत्री जैसी सभी बातें अपने भीतर मुसलमानों के खिलाफ घृणा को लिए हुई होंगी। तीनों के निशाने पर पाकिस्तान, आतंकवादी, पृथकतावादी आदि के नाम मुसलमान ही होंगे। मतलब साफ है कि जम्मू-कश्मीर का सारा चुनाव देश की सुरक्षा, पृथकतावादियों से खतरा, आतंकवादियों का सफाया और पहली जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री बनाने के नाम पर लड़ा जाएगा। इससे एक तात्कालिक उद्देश्य जम्मू-कश्मीर के बारे में पूरा होगा।
नए चुनाव परिसीमन के बाद हिंदू बहुल जम्मू क्षेत्र में सीटों की संख्या 46 हो गई और कश्मीर में सीटों की संख्या 44 हो गई। जम्मू-कश्मीर में इस तरह का चुनाव प्रचार करके भाजपा का पहला उद्देश्य जम्मू की 46 हिंदू बहुल सीटों में से अधिकतम सीटें जीतना है, जिसकी संभावना भी है। कश्मीर में पार्टियां बंटी हुई हैं, कई सारे उम्मीदरवार और गठबंधन होंगे। उनके बीच सीटें बटेंगी। भाजपा जम्मू की अधिकतम सीटें जीतकर और कश्मीर से जीते कुछ विधायकों को अपने साथ कर वहां अपनी सरकार बनाना चाहेगी। पहली बार किसी हिंदू को मुख्यमंत्री बनायेगी।
हरियाणा जम्मू-कश्मीर का करीब राज्य है। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा, आंतरिक सुरक्षा, पृथकतावादियों को सबक सिखाना, आतंकवादियों का सफाया करना और जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री बनाने का जो चुनाव प्रचार अभियान चलेगा। कुल मिलाकर अपने अंतर्य में जो मुस्लिम विरोधी अभियान चलेगा, उसके असर को पूरी योजना, पूरे धन-बल और मीडिया के साथ हरियाणा तक विस्तारित करने की कोशिश की जाएगी। जम्मू-कश्मीर की इसी चुनावी पिच पर ही हरियाणा का चुनाव केंद्रित करने का भाजपा का सारा प्रयास होगा, क्योंकि उसके पास सिर्फ और सिर्फ यही रास्ता बचा है।
भाजपा हरियाणा चुनाव जीतने के लिए सारा दम लगा देगी। यदि वह किसी तरह जीतने में कामयाब हो जाती है, तो वह जम्मू-कश्मीर में अपने संभावित जीत और हरियाणा के जीत के मोमेंटम पर महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य और झारखंड का चुनाव लड़ने और जीतने की कोशिश करेगी। यदि वह हरियाणा में हार भी जाती है, तो भी वह जम्मू-कश्मीर में चुनाव की जो नैरेटिव खड़ी करेगी, जिसके आधार पर जम्मू-कश्मीर में उसे सरकार बनाने की उम्मीद है, उस नैरेटिव को महाराष्ट्र और झारखंड में आजमाने की कोशिश करेगी।
भाजपा की हरियाणा और महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों में अब तक करीब-करीब तय लग रही हार और झारखंड में भी हार की आशंका को किसी तरह टालना चाहती है। इसके लिए एक बार फिर चुनाव आयोग का इस्तेमाल किया गया है। चुनाव आयोग ने कठपुतली की तरह भाजपा के आदेशों का पालन किया है। हर तरह के तर्क और तथ्य को किनारे लगाकर।
यदि मोदी के नेतृत्व में भाजपा हरियाणा और महाराष्ट्र का चुनाव हार जाती है और इसके साथ ही झारखंड में नहीं जीत पाती है, तो मोदी का छोटा होता कद और छोटा हो जाएगा। भाजपा और देश के भीतर उनकी घटती स्वीकृति और कम हो जाएगी। उनके रथ के पहिए पूरी तरह पंचर हो जाएंगे। मोदी हर हालात में इस स्थिति से बचना चाहते हैं।
इसके लिए उन्होंने फिर एक बार चुनाव आयोग का इस्तेमाल किया है। लेकिन दांव उल्टे भी पड़ते हैं, जैसे पिछली बार चुनाव आयोग का इस्तेमाल करके सात चरणों में लोकसभा का चुनाव कराया गया है, लेकिन दांव उल्टा पड़ गया है। यह दांव भी उल्टा पड़ सकता है। फिलहाल मोदी ने अपनी कठपुतली चुनाव आयोग का इस्तेमाल करके एक दांव चला है।
(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं।)