आज गांधी की जरूरत क्यों है?

31 जनवरी 1948 को हिन्दू महासभा से जुड़े नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या केवल एक पागल व्यक्ति का कृत्य नहीं था, बल्कि एक व्यापक षड्यंत्र का हिस्सा था। यह बात भी सत्य है कि इस षड्यंत्र से जुड़े ढेरों व्यक्ति- जिन्होंने इसकी रूपरेखा तैयार की थी, वे सभी सबूतों के अभाव में बरी हो गए, लेकिन महात्मा गांधी की हत्या भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के व्यापक षड्यंत्र की नींव थी, जिसे आज हम देख रहे हैं।

महात्मा गांधी की हत्या के 76 वर्ष बीत जाने के बाद आज भी संघ परिवार से जुड़े संगठन उनकी वैचारिक हत्या करने के षड्यंत्र में कार्यरत हैं, क्योंकि उनके विचार आज भी फासीवादियों को आतंकित करते हैं।

महात्मा गांधी या मोहनदास करमचंद गांधी एकमात्र ऐसे भारतीय राजनेता हैं, जिनको सबसे ज़्यादा पसंद और जिनसे सबसे ज्यादा नफ़रत भी की जाती है। 1944 में महान दार्शनिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी पर लिखते हुए टिप्पणी की थी, कि “अपने लोगों के प्यारे नेता जिसे किसी बाहरी सत्ता या शक्ति का समर्थन हासिल नहीं था। एक ऐसा राजनेता जिसकी सफलता किसी कौशल या तकनीकि उपकरणों पर निर्भर नहीं थी, बल्कि उसके व्यक्तित्व की आश्वस्त करने वाली शक्ति पर निर्भर थी।”

उन्होंने कहा कि “एक लड़ाकू विजेता जिसने हमेशा ताक़त के इस्तेमाल की आलोचना की थी, जो बुद्धिमान और विनम्र व्यक्ति था, जो प्रतिबद्धता और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ निरंतरता का प्रतीक था और जिसने अपनी सामर्थ्यशक्ति अपने लोगों के उत्थान और बेहतरी के लिए समर्पित कर दी थी।”

अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा कि “एक ऐसा व्यक्ति जिसने यूरोपीय बर्बरता का सामना सामान्य मनुष्य की गरिमा के साथ किया था और हर समय उसमें श्रेष्ठ साबित हुआ था। आने वाली पीढ़ियां शायद ही भरोसा करें, कि हाड़-मांस का ऐसा इंसान इस धरती पर कभी पैदा भी हुआ होगा। गांधी सम्भवतः भारत के अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जिनका व्यक्तित्व और विचार विदेशी विश्वविद्यालयों की मानविकी का हिस्सा है। उन पर क़रीब सौ से ज़्यादा देशों ने डाकटिकट भी ज़ारी किया है।”

मार्टिन लूथर किंग, खान अब्दुल गफ्फार खां यहां तक कि नेल्सन मंडेला तक गांधी जी के विचारों से प्रेरणा लेते रहे, इन सबके बावज़ूद उनका व्यक्तित्व अंतर्विरोधों से भरा हुआ है। एक ओर वे अहिंसा की बात करते थे, तो दूसरी ओर उन्होंने यह भी कहा कि “अहिंसा दुर्बलों का हथियार नहीं है, अगर मुझे कायरता और हिंसा में किसी एक को चुनना पड़े तो मैं हिंसा को ही‌ चुनूंगा।”

गांधी जी अपने को सनातनी हिन्दू कहते थे। उनका वर्णव्यवस्था पर गहरा विश्वास था, इस कारण से उन्हें आंबेडकर जैसे बड़े नेता की आलोचना भी झेलनी पड़ी, लेकिन उनकी हत्या भी हिन्दूवादी गिरोह ने ही की। उनकी पुस्तक हिंद स्वराज में; जो उनके विचारों को समझने की कुंजी भी है, जिसे उनके प्रशंसक कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो की तरह एक महत्वपूर्ण पुस्तिका मानते हैं।

इस पुस्तक में उन्होंने आधुनिक पश्चिमी सभ्यता को एक शैतानी सभ्यता बताया है। वे‌ यहीं तक नहीं रुकते हैं, उन्होंने आधुनिक ज्ञान-विज्ञान तथा चिकित्सा पद्धति की भी आलोचना की। ऐसा भी कहा जाता है, कि उन्होंने अपने आश्रम के बच्चों को चेचक के टीके तक लगवाने का विरोध किया, जिससे अनेक बच्चों की मृत्यु तक हो गई।

जवाहरलाल नेहरू; जो इनके परम शिष्य थे, उनके बारे कहा जाता है, वे अकसर कहा करते थे कि “गांधी जी की ये बातें आज़ादी के बाद नहीं चलेंगी।” यहां तक कि कम्युनिस्टों ने भी एक समय में गांधी को साम्राज्यवाद का दलाल तक कहा था।

गांधी या गांधीवाद की चाहे जितनी आलोचना की जाए, लेकिन यह सच्चाई है कि विभिन्न धर्मों, जातियों तथा अंतर्विरोधों से भरा भारतीय समाज पहली बार उस ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ डटकर खड़ा हुआ, जिसके बारे में यह कहा जाता था कि उसका सूरज कभी नहीं डूबता।

1915 में जब गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे, उस समय तिलक-गोखले जैसे बड़े नेता भारतीय राजनीति में सक्रिय थे। कांग्रेस के नेताओं में ज़्यादातर ब्रिटेन में पढ़े-लिखे लोग थे तथा भारतीय समाज या जनजीवन के बारे में उनकी समझ ब्रिटेन में छपी अंग्रेजी की पुस्तकों से अधिक नहीं थी।

तिलक के कहने पर गांधी जी ने सम्पूर्ण भारत का रेल द्वारा दौरा किया। उन्होंने बंगाल-बिहार से लेकर सुदूर दक्षिण भारत के गांवों तक लोगों की ज़िन्दगी को बहुत निकट से देखा और पहली बार असली भारतीय आत्मा का साक्षात्कार भी किया।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय ग्राम्य समाज का ढांचा; जिसमें सदियों से कोई बदलाव नहीं हुआ था, ज़मीन पर राजा या सामन्त का कोई हक़ नहीं था, वे केवल मालगुजारी वसूलते थे, गांव की सम्पत्ति ग्राम्य समाज की सम्पत्ति थी। मुद्रा का चलन बहुत कम था। गांवों में मुट्ठी भर उच्चजातियों का वर्चस्व था। पेशे और जाति के आधार पर काम बंटे थे। ग्राम्य समाज आत्मनिर्भर इकाई थे। आवागमन के साधन बहुत सीमित थे।

दिल्ली में तख़्तोताज़ बदलते रहे, लेकिन इन ग्राम्य समाजों पर कोई असर नहीं पड़ा। यही कारण है कि जनता ने किसी विदेशी हमलावर का कभी मिलकर व्यापक विरोध नहीं किया। 1857 में भारतीय सामंतों ने ज़रूर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ हथियार उठाए, लेकिन व्यापक जनसमर्थन के अभाव में उसे कुचल दिया गया।

सदियों से अंधकार में पड़ी एक पराजित क़ौम को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ खड़ा करना एक बहुत कठिन काम था। गांधी जी ने इस बात को बखूबी समझ लिया था। भारतीयों को एकजुट करने के लिए आध्यात्मिक चेतना का सहारा लिया, इसलिए उन्होंने महात्मा का चोला धारण किया। हम गांधी की इस बात को लेकर चाहे जितनी आलोचना करें, कि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में धार्मिक प्रतीकों का सहारा लिया, परन्तु इसके अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था।

उन्हें पता था कि ब्रिटिश साम्राज्य चाहे जितना मज़बूत हो, चाहे उसके पास जितनी बड़े सेना हो, वह व्यापक जन असहयोग के सामने टिक नहीं सकता। गांधी के नमक सत्याग्रह और डांडी मार्च जैसे आंदोलन इसी असहयोग के उदाहरण थे।

गांधी रस्किन, टाल्सटाय और थोरो से प्रभावित थे। गांधीवादी आंदोलन में इन विचारकों की प्रेरणा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। हम कह सकते हैं कि गांधी अगर राजनीतिक न होते, तो टाल्सटाय होते और उन विसंगतियों से बच जाते, जिससे उन्हें एक राजनीतिक नेता होने के कारण दो-चार होना पड़ा था और अगर टाल्सटाय साहित्यकार न होते, तो वे शायद गांधी होते।

वास्तव में गांधी की विसंगतियां भारतीय सामाजिक व्यवस्था में ही निहित हैं। बुद्ध के बाद शायद जिसने ‌भारतीय समाज को सबसे अधिक समझा, वे गांधी ही थे। गांधी जी का सम्पत्ति की व्यवस्था में अटूट विश्वास था। गांधी अपने को हिन्दू कहते थे, लेकिन उनका हिन्दुत्व संघ परिवार का फासीवादी हिन्दुत्व नहीं था।

जिस समय देश आज़ादी का जश्न मना रहा था, उस समय गांधी दूर बंगाल के नोआखाली में दंगों की आग बुझा रहे थे। जिन साम्प्रदायिक हिन्दूवादी फासीवादी तत्वों ने गांधी जी की हत्या की, आज उन्हें भी गांधी को अपनाने की मजबूरी है। गांधी का भूत उन्हें कभी भी चैन‌ से बैठने नहीं देगा।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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