अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन को भारत के बजाए एक कम्युनिस्ट देश में प्रेस कांफ्रेंस क्यों करना पड़ा?

नई दिल्ली। यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, जो जी-20 सम्मेलन की सफलता पर भारत और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कामयाबी पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा गया। 10 सितंबर की शाम जैसे ही जी-20 राष्ट्राध्यक्षों की विदाई हुई, राष्ट्रपति जो बाइडेन के पास वियतनाम की राजकीय यात्रा का कार्यक्रम पहले से निर्धारित था।

लेकिन उसी दिन शाम को भारतीय समय के हिसाब से 7 बजकर 39 मिनट पर वियतनाम की राजधानी हनोई में प्रेस के साथ सवाल-जवाब के अपने 26 मिनट के वक्तव्य की शुरुआत उन्होंने जी-20 सम्मेलन की उपलब्धियों से की। इसके बाद बाइडेन ने पूर्व निर्धारित 5 पत्रकारों द्वारा पूछे गये प्रश्नों का जवाब दिया।

दरअसल, राष्ट्रपति बाइडेन की दिल्ली और हनोई यात्रा गहरे भू-राजनीतिक पहल को दर्शाती है, जिसमें भारत उसके लिए हिंद महासागर क्षेत्र में सामरिक दृष्टि से एक मजबूत सहयोगी के रूप में तैयार हो रहा है, जिसके लिए क्वाड देशों का संगठन अमेरिकी नेतृत्व में बनाया गया है। अमेरिका और भारत के अलावा इसमें ऑस्ट्रेलिया और जापान शामिल हैं।

इसी प्रकार AUKUS फोरम में ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका की ग्रुपिंग भी असल में चीन के बढ़ते आर्थिक प्रभुत्व और अमेरिकी बादशाहत को मिलने वाली चुनौती के मद्देनजर निर्मित की गई है। इसलिए पिछले वर्ष अगस्त 2022 में अमेरिकी संसद की प्रमुख नैंसी पेलोसी ने जब चीन के भारी विरोध के बावजूद ताइवान की अपनी यात्रा को जारी रखा, उसी दौरान यह स्पष्ट हो गया था कि चीन के इर्दगिर्द पश्चिमी देशों के मुखिया अमेरिका की घेराबंदी उत्तरोत्तर बढ़ने वाली है।

जी-20 सम्मेलन, जिसे दुनिया के अमीर देशों के संगठन, जी-7 के विस्तार के रूप में देखा जाता है, असल में विकासशील देशों में से उभरती हुई अर्थव्यस्थाओं को अपने फोल्ड में लेने का ही एक प्रयास कहा जाना चाहिए। जी-7 देशों के मुखिया अमेरिका को स्वाभाविक रूप से इस नए ग्रुपिंग में स्वाभाविक नेतृत्वकारी भूमिका में रखा जाता है। बाइडेन की भारत यात्रा की शुरुआत ही बाइडेन-मोदी द्विपक्षीय वार्ता से हुई, जिसने संयुक्त घोषणा का आधार तैयार किया। इस प्राइवेट बातचीत को लेकर विदेशी संवाददाताओं की जिज्ञासा स्वाभाविक रूप से सबसे अधिक थी, लेकिन बैठक के बाद कोई प्रेस कांफ्रेंस नहीं हुई।

अमेरिकी और पश्चिमी पत्रकारों के लिए शीर्ष नेताओं की बैठक के बाद प्रेस कांफ्रेंस एक आम बात है, जिसे 2014 से पहले भारत में भी बेहद स्वाभाविक माना जाता था। इसीलिए जब जॉइंट डिक्लेरेशन का मजमून सबके सामने आया, और दुनिया को पता चला कि भारत की अध्यक्षता में जी-20 ने इस बार रूस-यूक्रेन युद्ध पर रूस और पुतिन का जिक्र किये बगैर ही सिर्फ ‘यूक्रेन में युद्ध’ का हवाला दिया है तो दुनिया के तमाम चोटी की समाचार एजेंसियों और न्यूज़ चैनलों की ओर से भारी हो-हल्ला मचाया गया।

भारत के लिए यह एक बड़ी कूटनीतिक जीत माना गया, और जॉइंट डिक्लेरेशन को नरेंद्र मोदी की बड़ी जीत माना गया। इसे वाकई एक बड़ी कूटनीतिक सफलता कहा जा सकता है, क्योंकि रूस-चीन के राष्ट्राध्यक्षों की अनुपस्थिति अपने आप में इस बात का इशारा थी कि यूक्रेन के मुद्दे पर पश्चिमी देशों का रुख रूस को किसी सूरत में मंजूर नहीं होगा, और संयुक्त बयान तक जारी न करा पाने की विफलता का ठीकरा भारत और उससे भी अधिक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व पर फूटता।

आज भारत सरकार और केंद्र में सरकार चला रही भाजपा और उसके समर्थकों के लिए जी-20 के सफल आयोजन का श्रेय लेने की होड़ मची है। प्रधानमंत्री मोदी इसे पिछले एक वर्ष से भी अधिक समय से रणनीतिक रूप से देश के विभिन्न हिस्सों में बैठकों के आयोजन के बहाने दूर-दराज के क्षेत्रों में संदेश भिजवा रहे थे कि उनके नेतृत्व में दुनिया के सबसे अमीर देश भारत में आने वाले हैं, जो पिछले 75 वर्षों में कभी नहीं हुआ। यह अलग बात है कि भारत में दो-दो बार गुट निरपेक्ष आंदोलन (एनएएम) का सम्मेलन हो चुका है, और पिछली बार 1983 में हुए शिखर सम्मेलन में 100 से अधिक देशों के राष्ट्राध्यक्ष शामिल हुए थे।

हां यह सही है कि विश्व के सबसे अमीर देशों की मीटिंग भारत में नहीं हुई थी, बल्कि उन विकासशील देशों को एकजुट करने का कार्यभार नेहरू की अगुवाई में किया गया, जो औपनिवेशिकता के जुए को हाल ही में उतारकर एक-दूसरे का सहारा बनना चाहते थे, और शीत युद्ध में बंटी दुनिया में अमेरिका या सोवियत संघ के पिछलग्गू बनने के बजाय अपने और अपने देशवासियों की किस्मत को बदलने पर पूरा ध्यान देना चाहते थे।

बहरहाल सोवियत संघ के पतन के बाद 90 के दशक से संयुक्त राज्य अमेरिका की बादशाहत ने जहां एक ओर गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत को धीरे-धीरे निरर्थक बना डाला, वहीं विश्व में रोनाल्ड रीगन-मार्गरेट थैचर प्रतिपादित नवउदारवादी अर्थनीति को विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दिशा-निर्देश पर करीब-करीब सभी देशों को पालन करने के लिए बाध्य होना पड़ा।

जिन देशों ने अपनी स्वतंत्र राह चुनी या अमेरिकी वर्ल्ड-ऑर्डर को चुनौती दी, उन्हें अमेरिकी कोप का भाजन बनना पड़ा और भारी आर्थिक प्रतिबंधों को झेलते हुए ये देश लगभग खत्म होने की कगार पर पहुंचा दिए गये। क्यूबा, वेनेजुएला और ईरान इसके जीते-जागते सुबूत हैं, और अमेरिकी हितों को दो कदम आगे बढ़कर लागू करने वाले देश इजराइल और ब्रिटेन की हमेशा पौ-बारह रही है।

भू-राजनीतिक ग्रेट गेम की बिसात पर एक-एक कदम आगे बढ़ाते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की भारत के बाद वियतनाम की यात्रा असल में पिछले वर्ष नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा की ही अगली कड़ी कही जानी चाहिए। लेकिन प्रेस कांफ्रेंस में जी-20 सम्मेलन के दौरान पीएम मोदी के साथ आतंकवाद, प्रेस फ्रीडम और मानवाधिकार के मुद्दे पर हुई बातों का खुलासा कर, न चाहते हुए भी जो बाइडेन ने दरअसल दुनिया को बता दिया कि भारत में जब विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्राध्यक्ष तक को प्रेस कांफ्रेंस करने की आजादी नहीं है, तो देश के प्रेस और स्वयं लोकतंत्र की दशा-दिशा क्या हो सकती है।

संभवतः पीएम मोदी को इस बात का अंदाजा होगा कि 82 वर्षीय जो बाइडेन किसी तीसरे मुल्क में जाकर ऐसा कुछ कह सकते हैं तो वे निश्चित ही विदेशी पत्रकारों के लिए कम से कम प्रेस वार्ता का आयोजन अवश्य कराते। अमेरिका में ऐसा भी कहा जा रहा है कि बाइडेन की उम्र हो चुकी है और उनके लिए दूसरी बार डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी सही नहीं है। हमें याद रखना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति अमेरिकी रणनीति के तहत चीन को घेरने और उसे अशक्त बनाने की नीति के तहत भारत और प्रधानमंत्री मोदी को लुभाने में लगे हैं।

विश्व में 700 से ज्यादा सैनिक ठिकानों और परमाणु हथियारों को रणनीतिक रूप से स्थापित करने वाले देश अमेरिका के पास पूर्वी एशिया में जापान, दक्षिण कोरिया और फिलीपिंस में सैनिक ठिकाने और नौ-सैनिक बेड़े की उपस्थिति पहले से मौजूद है। ऑस्ट्रेलिया एक अन्य एंग्लो-मित्र देश है, जो एशिया महाद्वीप पर आश्रित होने के बावजूद अभी भी अपनी उम्मीद इंग्लैंड और अमेरिका पर टिकाये हुए है।

लेकिन अमेरिका के पास इतने देश होने के बावजूद संतोष नहीं है। उसकी नजर भारत और वियतनाम पर टिकी है। यह वही वियतनाम है, जिसे 60 के दशक में अमेरिकी सेना और एयरफोर्स ने नेस्तानाबूद करने के इरादे से वर्षों जंग को जारी रखा। ऐसा अनोखा युद्ध विश्व के इतिहास में शायद ही कभी हुआ होगा। इस युद्ध में हजारों-हजार अमेरिकी भी हताहत हुए।

अमेरिका में देशभक्ति की भावना को जगाने के लिए हॉलीवुड फिल्में बनाई गईं, जिनमें रैम्बो सीरीज और अभिनेता सिल्वेस्टर स्टेलोन से उस पीढ़ी के लोग बखूबी परिचित हैं। लेकिन अमेरिकी जनता में युद्ध-विरोधी भावना लगातार बढ़ती गई, और लाखों लोग जंग के खिलाफ सड़कों पर उतर आये। यही वह दौर था, जिसमें वियतनाम में कम्युनिस्टों के बहादुराना संघर्ष के साथ एकजुटता का प्रदर्शन करते हुए ‘बीटल्स’ पॉप म्यूजिक ग्रुप के गीत और कलाकार पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुए थे।

आज वही वियतनाम देश, तीव्र आर्थिक विकास के लिए नवउदारवादी अर्थनीति को अपने देश में लागू कर रहा है। चीन का कम्युनिस्ट नेतृत्व, 80 के दशक से ही विदेशी पूंजी और तकनीक को देश में स्थान देकर सरकार के नियंत्रण में स्पेशल इकॉनोमिक ज़ोन बनाकर अपने देश और नागरिकों को एक बिल्कुल नए मुकाम पर पहुंचा चुका है।

आज चीन की सफलता सिर्फ जीडीपी के संदर्भ में नहीं है, बल्कि तकनीक, रिसर्च और भविष्य में औद्योगिक क्रांति की अगली दहलीज में अमेरिका और चीन के बीच पहले नंबर पर बने रहने की होड़, असल में वैश्विक वित्तीय पूंजी के पराभव की आशंका है, जिससे बचने के लिए एशिया महाद्वीप को युद्ध का नया अखाड़ा बनाया जा रहा है।

वियतनाम के लिए चीन और अमेरिका दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान चीन से कई उद्योग वियतनाम में स्थापित किये गये हैं। चीन की तुलना में वियतनाम में सस्ता श्रम भी मौजूद है और कुशल श्रमिक भी उपलब्ध हैं। बाइडेन ने भारत के लिए अरब मुल्कों से होते हुए यूरोप तक रेल-रोड लिंक योजना का चारा डाला है, तो वियतनाम के लिए पूंजी निवेश और सेमीकंडक्टर के सबसे बड़े खरीदार का आश्वासन दिया है।

लेकिन जिस ग्रेट गेम की जिओपोलिटिकल रणनीति पर जो बाइडेन को सधे कदमों से आगे बढ़ना था, उसे मोदी सरकार ने प्रेस कांफ्रेंस की औपचारिक पश्चिमी रिवाज की मनाही कर नाहक चौपट कर डाला है। अब बात निकल गई है तो दूर तलक जायेगी ही। कूटनीतिक संबंधों में जो इशारों में कहा जाता है उसका तो मतलब होता ही है, जो नहीं कहा जाता उसके भी मायने होते हैं। जरा सी जुंबिश वर्षों की मेहनत से महीन राजनयिक कताई का कबाड़ा बना सकती है, इस बात को देश के हुक्मरान समझते ही होंगे, यह उम्मीद कम से कम हर देश का नागरिक करता है।  

(रविंद्र पटवाल ‘जनचौक’ की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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