Sunday, April 28, 2024
प्रदीप सिंह
प्रदीप सिंहhttps://www.janchowk.com
दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय और जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।

राजस्थान चुनाव: क्या भारत आदिवासी पार्टी को नजरंदाज करने का खामियाजा भुगतेगी कांग्रेस?

नई दिल्ली। राजस्थान में आज कुल 200 सीटों में से 199 विधानसभा सीटों लिए मतदान हो रहा है। श्रीगंगानगर जिले की श्रीकरणपुर सीट पर कांग्रेस उम्मीदवार गुरमीत सिंह कुन्नर के निधन के कारण चुनाव स्थगित कर दिया गया है। सुबह 7 बजे से शुरू हुआ मतदान शाम 6 बजे तक जारी रहेगा। शाम को मतदान समाप्त होने के बाद कांग्रेस या भाजपा की सरकार बनने के पक्ष-विपक्ष में लोग तर्क देंगे। राजस्थान में पांच साल बाद सरकार बदल देने का चलन है, इस चलन के लिहाज से एक बड़ा वर्ग भाजपा की वापसी की उम्मीद कर रहा है वहीं दूसरी ओर अशोक गहलोत के जनहितैषी योजनाओं के कारण कांग्रेस सरकार की वापसी की बात की जा रही है। कहा जा रहा है कि इस बार जनता इतिहास बदलने वाली है। लिहाजा भाजपा को सत्ता में आने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।

फिलहाल जयपुर से लेकर दिल्ली तक चलने वाली इस चर्चा में कहीं भी यह चर्चा नहीं है कि दोनों दलों का खेल बिगड़ भी सकता है। यह सही है कि राजस्थान में कोई तीसरी राजनीतिक ताकत नहीं है जिसका पूरे राज्य में प्रभाव हो। लेकिन इस बार भारत आदिवासी पार्टी (BAP) भी चुनावी मैदान में है। बीएपी की ताकत अभी सामने नहीं आई है। बीएपी ने आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं। बीएपी आदिवासी सीटों पर जीत पाने की उम्मीद कर रही है। लेकिन जीत न मिलने की स्थिति में वह कांग्रेस और भाजपा का मीटर डाउन कर सकती है। ऐसे में सवाल उठता है कि बीएपी के चुनावी मैदान में आने से किसका नुकसान ज्यादा होगा?

राजस्थान में आदिवासियों की आबादी करीब 13.48 प्रतिशत है। कई जिलों में तो उनकी संख्या आधे से अधिक है। उदाहरण के लिए उदयपुर में लगभग 50%, प्रतापगढ़ में 60%, डूंगरपुर में 70% और बांसवाड़ा में 76% आदिवासी आबादी है।

कांग्रेस ने परंपरागत रूप से आदिवासी बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया है। 2018 में 25 एसटी-आरक्षित सीटों में से कांग्रेस ने 12 और भाजपा ने 9 सीटें जीती थीं। दो सीटें भारत ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) ने और दो सीटें निर्दलीय ने जीती थीं। बीटीपी के दोनों विधायक राजकुमार रोत और रामप्रसाद डिंडोर कांग्रेस में चले गए थे। लेकिन भारत आदिवासी पार्टी के गठन के बाद दोनों विधायक बीएपी से चुनाव लड़ रहे हैं।

मेवाड़ क्षेत्र में बीएपी को सबसे अधिक समर्थन मिलता दिख रहा है, जहां एसटी सबसे बड़ा वोट ब्लॉक है। लेकिन कांग्रेस-भाजपा दोनों उसकी ताकत को नजरंदाज कर रहे हैं। जबकि भारत आदिवासी पार्टी के गठन के बाद,  इसी संगठन के सपोर्ट से ‘भील प्रदेश विद्यार्थी’ मोर्चा ने मेवाड़ और वागड़ के 4 जिलों के 21 कॉलेज में छात्र संघ चुनाव में जीत दर्ज सबको चौंका दिया था और सियासी गलियारों में नए समीकरण को लेकर कयास शुरू हो गए थे। अब यह पार्टी पहली बार विधानसभा चुनाव में उतरी है। पार्टी ने मेवाड़ और वागड़ क्षेत्र की 28 में से 17 आरक्षित सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारी है। बीएपी 17 आरक्षित और 10 अनारक्षित यानि कुल 27 सीटों पर मैदान में है।

राजस्थान के आदिवासी सिर्फ सत्ता में भागीदारी नहीं बल्कि अपनी पहचान और संस्कृति की रक्षा के नाम पर एकजुट हो रहे हैं। राजस्थान के आदिवासी बहुल बांसवाड़ा जिले के बागीदौरा कस्बे के मुख्य चौराहे पर एक ऊंचे खंभे पर कुछ दिन पहले तक ‘जय श्री राम’ नाम का झंडा लहरा रहा है। पास के उम्मेदगढ़ी गांव के भील गणेश कहते हैं कि यह कुछ हफ्ते पहले राम नवमी के अवसर पर लगाया गया। इसे 9 अगस्त को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ पर फहराए गए आदिवासी झंडे को हटाकर लगाया गया था।

गणेश भाजपा और कांग्रेस दोनों के साथ अपनी असहमति जताते हैं। और 25 नवंबर को वह नई पार्टी, भारत आदिवासी पार्टी (बीएपी) के लिए मतदान करेंगे।  

सागवाड़ा से चुनाव लड़ रहे 44 वर्षीय बीएपी अध्यक्ष मोहन लाल रोत ने कांग्रेस और भाजपा जैसी प्रमुख पार्टियों द्वारा “आदिवासी संस्कृति को नष्ट करने”, साथ ही आरक्षण और बेरोजगारी को अपनी पार्टी की शीर्ष चिंताओं में शामिल बताते हैं। उन्होंने कहा कि “हमारे अपने प्रथागत कानून हैं। यहां तक ​​कि सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने कुछ फैसलों में कहा है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं। हम धर्मपूर्वी (हम धर्म से पहले आए थे) लोग हैं।

विधानसभा चुनाव से कुछ ही महीने पहले बनी यह पार्टी 27 सीटों पर चुनाव लड़ रही है (राजस्थान में 25 एसटी-आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र हैं)। उन्होंने कहा, “हम 17 सीटों पर मजबूत मुकाबले में हैं और हमें 12-13 सीटें जीतने की उम्मीद है। जो सीटें अनुसूचित क्षेत्रों से बाहर हैं, वहां हम दूसरी पार्टियों का चुनावी गणित बिगाड़ देंगे।”  

गणेश का उम्मेदगढ़ी गांव बागीदौरा सीट में आता है, जिस पर फिलहाल कांग्रेस का कब्जा है। पास में ही मानगढ़ धाम है, जो गुजरात के साथ राजस्थान की सीमा पर स्थित एक स्मारक स्थल है, जिसे ‘आदिवासी जलियांवाला’ की स्मृति में बनाया गया था, जिसमें 1913 में ब्रिटिश सेना द्वारा 1,500 भीलों का नरसंहार किया गया था। यह दोनों राज्यों के अलावा, मध्य प्रदेश से आदिवासी को आकर्षित करता है।

पिछले साल नवंबर में, गुजरात चुनाव से ठीक पहले, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस स्थल का दौरा किया था और यहां भाषण दिया था। इसी अगस्त में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी यहां आए थे।  

स्मारक स्थल पर आदिवासी सुरक्षा गार्ड राजेंद्र कुमार कहते हैं कि उनके लिए मुख्य मुद्दा आरक्षण है। मोहन रोत आरक्षण के बारे में भी बात करते हैं और 50% कोटा सीमा पर सवाल उठाते हैं, उनका दावा है कि इसका हवाला केवल तब दिया जाता है जब वे अपनी आबादी के अनुसार लाभ चाहते हैं, दूसरों के मामले में नहीं। “हमारा क्षेत्र संविधान की 5वीं अनुसूची (जिसमें आदिवासी बहुल क्षेत्रों के लिए विशेष प्रावधान हैं) के अंतर्गत है। लेकिन हमें उस अनुरूप आरक्षण नहीं मिल रहा है।”

रोत अपने चुनावी प्रदर्शन को लेकर आश्वस्त हैं। “पिछले सात-आठ वर्षों में, हमने पूरी तरह से सामाजिक जागृति के लिए काम किया है। हमने पार्टी को प्राथमिकता नहीं दी है। आज भी, जबकि हमारी पार्टी है, हम केवल अपने लोगों की सामाजिक-राजनीतिक जागृति को प्राथमिकता दे रहे हैं। हमारी विचारधारा मजबूत है।”

बांसवाड़ा जिले की गढ़ी में भी, जो भाजपा के कब्जे वाली सीट है, आदिवासियों की भावनाएं बीएपी की ओर झुक रही हैं। केसरपुरा गांव के किसान अर्जुन लाल कहते हैं कि शीर्ष नेताओं के दौरे से पता चलता है कि पार्टियों को अब “हमारी ताकत का एहसास है।” “हमने (आदिवासी पार्टियों ने) पहले दो सीटें जीती थीं। इस बार यह संख्या बढ़कर सात हो सकती है। ”

लगभग 190 किमी दूर, उदयपुर जिले के झाड़ोल विधानसभा क्षेत्र के पालियाखेड़ा गांव में, लक्ष्मीलाल दामोद बताते हैं कि आदिवासी “यहां के 2.75 लाख मतदाताओं में से 2 लाख” हैं। पार्टियों पर धोखा देने का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि “सभी उम्मीदवार आदिवासी हैं। लेकिन जब वे जीतते हैं, तो सभी ठेके राजपूतों के पास चले जाते हैं, जबकि आदिवासी मजदूर बन जाते हैं।”

वह क्षेत्र में बन रहे एक बांध को लेकर भी चिंतित हैं, उनका कहना है कि “आदिवासी पानी” को गैर-आदिवासी क्षेत्रों में भेज दिया जाएगा, जबकि स्थानीय खेत सूख जाएंगे। उनका कहना है कि केंद्र की हर घर जल योजना इन ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में नहीं आई है, जहां अलग-अलग घर फैले हुए हैं।

बीएपी अध्यक्ष का कहना है कि पानी की कमी एक बड़ा मुद्दा है। “हम खेती और पीने दोनों के लिए समाधान चाहते हैं। हमारे क्षेत्र में कई बांध हैं, जो 1,000 किलोमीटर दूर के शहरों को पानी की आपूर्ति करते हैं, लेकिन यह 3 किलोमीटर दूर हमारे खेतों तक नहीं पहुंचता है।”

(प्रदीप सिंह की रिपोर्ट।)

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