कोरोना डायरी: अपने नागरिक होने का हक़ भी खोते जा रहे हैं लोग

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कोरोना वायरस से दरपेश इस संकट काल में बहुत कुछ सिरे से बदल गया है। साहित्य और इतिहास से मिले सबक बताते हैं कि विकट त्रासदियां इसी मानिंद अपने नागवार असर समय और समाज पर छोड़ती हैं। बेबसी का साकार मतलब अब बेजारी है। अचरज होता है मीडिया से लेकर गलियों की चौपाल तक और यहां तक कि केंद्र तथा राज्य सरकारों की ओर से भी पुरजोर कहा जा रहा है कि कोरोना वायरस के खिलाफ बाकायदा जंग लड़ी जा रही है। कोई बता सकता है कि हम किसी किस्म का कोई ‘युद्ध’ लड़ रहे हैं या एक जानलेवा वायरस से बचाव कर रहे हैं? 

जंग में दुश्मन सामने होता है लेकिन अब जिसे जंग बताया जा रहा है, उसमें दुश्मन अदृश्य है। अवाम इससे बखूबी वाकिफ है लेकिन शायद दुनिया भर की राज्य व्यवस्थाएं कत्तई नहीं! नहीं तो कोरोना वायरस से जंग के बजाए बचाव के उपाय किए जाते।            

खैर, विभिन्न राज्य सरकारों ने आज से लॉकडाउन में राहत जैसा कुछ देने की घोषणाएं की हैं। आलम क्या है? इन पंक्तियों का लेखक जहां से ये पंक्तियां लिख रहा है, वहां शराब के ठेके के बाहर बेहद लंबी कतार है। गोया नशे से ज्यादा और कुछ महत्वपूर्ण न हो…। रोजी-रोटी और दवाइयों से ज्यादा चिंता शराब के लिए है। सरकारें कह रही हैं कि दारू से हासिल राजस्व अपरिहार्य है। ठेकों के बाहर लगी कतारों में शुमार लोगों को यकीनन मैडल मिलने चाहिए कि वे हमें बचाने में बड़ा योगदान दे रहे हैं! हर राज्य सरकार ने आज से अपने सरकारी कार्यालय आंशिक तौर पर खोलने के आदेश दिए हैं और दिल्ली सरकार ने तो पूरी तरह। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना सही है कि अब वक्त आ गया है, कोरोना वायरस के साथ जीने का। इसलिए लोगों को मजबूरी की छुट्टियां त्याग कर काम पर आना चाहिए।

यक्ष प्रश्न है कि लोग काम पर आएं कैसे? परिवहन के लिए क्या व्यवस्था है? केंद्र की ओर से कुछ रेलगाड़ियां आज शुरू हुई हैं लेकिन लोगों की घर वापसी के लिए। काम के ठिकानों पर जाने के लिए के लिए कहीं कोई बंदोबस्त नहीं है। हर इलाके में लोग काम पर जाने के लिए सरकारी परिवहन का बड़े पैमाने पर सहारा लेते हैं। अरविंद केजरीवाल को एक संवेदनशील मुख्यमंत्री माना जाता है। उनसे सवाल है कि वह जानते हैं कि ऐसे कितने सरकारी कर्मचारी हैं जिनके पास अपने वाहन नहीं और वे आवाजाही के लिए पूरी तरह से सरकारी व्यवस्था पर निर्भर हैं। मुर्दा शांति के इस दौर में यह सवाल हर सरकार से पूछा जाना चाहिए। लगता ऐसा है कि कोरोना-काल में हुक्मरान आसमां में हैं और उन्हें जमीन की हक़ीक़तें नहीं दिख रही।             

रविवार को पंजाब के जिला संगरूर के गांव में एक व्यक्ति सड़क पर मृत पाया गया तो अनिवार्य पुलिस-प्रशासनिक कार्रवाई के तहत उसका पोस्टमार्टम हुआ तो पता चला कि पेट में कई दिनों से अनाज का एक दाना तक नहीं गया था। डॉक्टरों ने प्राकृतिक मौत लिखा लेकिन इसे भुखमरी से होने वाली मौत नहीं बताया और न हम बता-कह सकते हैं। क्योंकि सिविल अस्पताल, पुलिस और सरकार जब किसी मृत्यु का फैसला करती है तो निश्चित तौर पर अदालत भी उसे मानती है और आपका उस पर प्रश्न चिन्ह लगाना राजद्रोह भी हो सकता है!                                         

रविवार को ही जब भूख से मरे इस बेजार व्यक्ति के पोस्टमार्टम की औपचारिकता हो रही होगी, ठीक तभी एशिया का मैनचेस्टर कहलाने वाले लुधियाना में भूख से आजिज मजदूरों ने रोष-प्रदर्शन किया और पुलिस के साथ उनकी हिंसक मुठभेड़ हुई। दो राउंड की हवाई फायरिंग के बाद लुधियाना के कई थानों की पुलिस ने लाठीचार्ज किया। कहते हैं कि मुंबई के बाद लुधियाना हिंदुस्तान का ऐसा दूसरा शहर है जहां रोटी का रिश्ता नियति से नहीं जुड़ता यानी कोई भूखा नहीं सोता।

लुधियाना ही वह पहला महानगर था जहां एक भिखारी के खाते से दो करोड़ 70 लाख की राशि आज से 15 साल पहले मिली थी। अब हर तीसरा बेरोजगार श्रमिक भिखारियों से भी नीचे की श्रेणी में है और भूख की बदहाली सहन करने को मजबूर। दोपहर एक मजदूर का फोन आया कि राशन अथवा खाने के लिए उसने थाने में लिखित आवेदन किया तो जवाब मिला कि यूपी और बिहार के लोगों के लिए उनके पास कोई बंदोबस्त नहीं। इन पंक्तियों के लेखक ने एक पुलिसकर्मी से बात की तो उसका कहना था कि यहां मजदूर दिन-ब-दिन हिंसक हो रहे हैं इसलिए ऐसा जवाब दिया गया।

उस इलाके के विधायक से बात हुई तो वहां से भी ऐसा कुछ सुनने को मिला। अब इसका जवाब किसके पास है कि मुतवातर भूख हिंसक, विद्रोही, विरोधी और पागल नहीं बनाएगी तो क्या करेगी? कोई बता सकता है कि भूख से बड़ा जानलेवा वायरस कौन सा है। भूख से आजिज होकर सड़कों पर पत्थरबाजी करने वाले मजबूर लोग अपना नागरिक होने का हक भी खो चुके हैं और सरकारों को उनकी कोई परवाह नहीं। कल उन्हें हम साहित्य और सिनेमा के पात्रों के बतौर जानेंगे। आज तो मानवता दांव पर है।

कोरोना-काल का एक बड़ा सच यह भी है। कब तक यह अनदेखा रहेगा? प्रसंगवश, पंजाब से घर वापसी के लिए छह लाख, 10 हजार 775 व्यक्तियों ने आवेदन किया है और इनमें से 90 फ़ीसदी प्रवासी मजदूर हैं। सरकार के हाथ-पैर फूले हुए हैं कि इनकी घर वापसी कैसे सुनिश्चित की जाए? तमाम आला अधिकारी गुणा भाग में व्यस्त हैं और जाने वालों को जाने की चिंता है तो इंडस्ट्री और कृषि सेक्टर में मातमी सन्नाटा नए सिरे से छाया है कि प्रवासी श्रमिकों के बगैर क्या होगा? जाहिरन दोनों क्षेत्र बेतहाशा दिक्कत में आएंगे। चलिए, आगे की तब देखेंगे…। 

(अमरीक सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल जालंधर में रहते हैं।)

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