जय भीम नगर (मुंबई) की कहानी: जिन्होंने अट्टालिकाएं बनाईं, वही आज बेछत

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मुंबई। “उनकी मर्ज़ी है हम जाएंगे… हम इधर रहेंगे” कहती हैं पवई (मुंबई) के हीरानन्दानी कॉम्प्लेक्स में एक फुटपाथ पर बने अस्थायी झोपड़े में रह रहीं पूनम विश्वकर्मा। 

वह बुरी स्थिति में हैं। एक निर्माण मजदूर की पत्नी 6 जून को अपना घर तोड़े जाने और लगभग सभी सामान खोने से टूटी हुई। भवन निर्माता एन हीरानन्दानी के निजी सुरक्षाकर्मियों, पुलिस और बृहन्मुंबई महानगरपालिका के अधिकारियों ने जय भीम नगर के 650 परिवारों के झोपड़ों पर बुलडोजर चला दिया। 

तब से विरोध प्रदर्शन करते हुए वह लोग अब कालोनी के निकट फुटपाथों पर ही रह रहे हैं और उन्होंने बस बारिश से बचने के लिए नीले तिरपाल से अस्थायी झोपड़े बना लिए हैं। 

जब मैं 23 जुलाई को वहाँ गई, विश्वकर्मा ने बताया कि लगातार गीलापन रहने से वह न खाना बना पाती हैं, न कपड़े धो-सुखा सकती हैं, मच्छरों और बिजली के अभाव से उनका बेटा नेतक बबलू स्कूल का होमवर्क नहीं कर पा रहा। उनके जेहन में अनिश्चित भविष्य की चिंता समाई रहती है। 

वह बताती हैं, “कई लोग चले गए हैं और कहीं अस्थायी कमरा ले लिया है हालांकि वह लोग भी रोज यहाँ आते ज़रूर हैं। जब यह हुआ मैं उत्तर प्रदेश से लौटी ही थी। अब मैं क्या करूं? गाँव वापस जाऊं? बबलू के पिता निर्माण मजदूर हैं। वह यहाँ 25 साल से रह और काम कर रहे हैं।”

वह ऊंची अट्टालिकाओं की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं बबलू के पिता गर्व से कहते थे कि उन्होंने इनमें फिटिंग की है। 

“हम विश्वकर्मा समुदाय से आते हैं। हमारे काम के लिए हमारा सम्मान किया जाता था। अब हमें ही बाहर कर दिया गया।”

जिस तरह से निर्माण मजदूरों को लाया गया और भवन निर्माता की तरफ से बनाए श्रमिक शिविर में बसाया गया और जिस तरह से अब बेघर कर दिया गया, भारत के वित्तीय और कारोबारी केंद्र मुंबई की कड़वी कहानी है। 

जैसा कि राहुल सिंह ने लॉयर्स कलेक्टिव में 2000 में लिखा था: 

“झोपड़वासी शहरी जीवन का अभिन्न अंग बन चुके हैं। जाहिर है उनके बिना शहर का जो जलवा आज दिखता है, वह नहीं होता।” 

वह लोग निर्माण स्थलों पर काम करते हैं, घरों में काम करते हैं, वाहन चालक बनते हैं। शहर को जब उनकी जरूरत होती है, बेहिचक उन्हें गले लगाता है।

लेकिन वही लोग जब अपने लिए कोई मुकाम बनाना चाहते हैं, उनसे अवांछित तत्वों की तरह बर्ताव किया जाता है।

ओल्गा टेलिस (एआईआर 1986 एससी 180) मामले में सर्वोच्च न्यायालय के महत्वपूर्ण फैसले, जिसमें आजीविका का अधिकार रेखांकित किया गया था, के तीन दशक बाद भी झोपड़वासियों के पुनर्वास और उन्हें आवास मुहैया कराने की दिशा में कोई ईमानदार प्रयास नहीं हुआ। 

वास्तव में, जैसा कि जय भीम नगर को हाल में उजाड़ने से पता चलता है, मनपा और प्रदेश के अधिकारी भवन निर्माताओं से मिलकर गैरकानूनी विस्थापन करवाते हैं। उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने जय भीम नगर के 28 निवासियों की अपील पर सुनवाई करते हुए मुंबई महानगरपालिका को फटकार लगाई और मानसून के दिनों अर्थात 1 जून से 30 सितंबर तक निष्कासन न करने के सरकारी आदेश के बावजूद तोड़क कार्रवाई पर सफाई मांगी। अदालत ने सरकारी वकील से जांच करने का आदेश दिया और कहा, “यदि प्रथम दृष्ट्या कुछ गलत है तो हम देखेंगे।” 

निवासी कहते हैं कि वह यहाँ दशकों से रहते हैं और उनके पास आवश्यक कानूनी दस्तावेज़ हैं। विश्वकर्मा ने मुझे उनका राशन कार्ड दिखाया और एक वृद्ध प्रभाकर ने, जो निर्माण मजदूर रहा है, उसने बताया कि उसका राशन कार्ड 1987 में बना है। 

आवासीय कार्यकर्ता बताते हैं कि जमीन जहां जय भीम नगर बना है , उसके स्वामित्व के कई दावेदार रहे हैं। जन हक संघर्ष समिति के शुभम संक्षिप्त इतिहास पर रोशनी डालते हैं। 

जय भीम नगर उस जमीन का हिस्सा है जो तारा स्वरूप की थी, उन्होंने अपने बेटे अजय मोहन को दी। अजय ने वह जमीन दस अलग लोगों को टुकड़ों-टुकड़ों में बेच दी। बताया जाता है कि अजय मोहन ने एतराज किया जब 10 लोगों ने जमीन को गैर-कृषि इस्तेमाल में बदलवाया और उनके नाम हटाए गए। फिर, जमीन फिर बेची गई। 

1984 में सरकार ने मुंबई महानगरीय क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण (एमएमडीआरए) से जमीन पर आवास निर्माण के लिए करार किया और पावर ऑफ अटार्नी भवन निर्माता हीरानन्दानी को दिया गया, सस्ते आवास बनाने के लिए। 

(बाद में, 1986 में हीरानन्दानी के खिलाफ धोखाधड़ी का एक मामला दर्ज किया गया जब पाया गया कि इमारतों में गरीबों को छोटे घर बनाकर बेचने के बजाय बड़े क्षेत्रफल के फ्लैट बनाए गए और अमीरों को बेचे गए।)

जय भीम नगर के मामले में, जब भवन निर्माता ने निर्माण के लिए बोर्ड लगाया, मूल दस खरीददारों में से कुछ अदालत चले गए और लंबी कानूनी लड़ाई हुई जो सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची (अजय मोहन व अन्य बनाम एच एन राय व अन्य 12 दिसंबर, 2007) 

यह भी उल्लेखनीय है कि जहां स्वामित्व की लड़ाई में हीरानन्दानी का नाम नहीं था, फिर भी उन्होंने संपत्ति के एक हिस्से का इस्तेमाल करने में सफलता पाई और 2002 में अपने निर्माण कार्यकर्ताओं के लिए श्रमिक शिविर बनाया। इसे ही जय भीम नगर कहा जाता है। शिविर में 2007 में रहस्यमयी आग लगी जिसमें दो लोगों की मौत हुई और 150 झोपड़े नष्ट हो गए। 

आश्चर्यजनक रूप से बृहन्मुंबई महानगरपालिका ने हीरानन्दानी को पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी दी। उन्होंने तब श्रमिक शिविर के लिए इमारत बनाने के लिए औपचारिक आवेदन दिया और बीएमसी से मंजूरी प्राप्त की। इसका आधिकारिक रूप से निर्माण हुआ जबकि भवन निर्माता के पास जमीन के स्वामित्व के काग़ज़ात नहीं थे। 

2014 में नई विकास योजना के तहत सरकारी कार्यालयों के लिए आरक्षण बदल गया और हीरानन्दानी से निवासियों को हटाने को कहा गया। कार्यकर्ताओं के अनुसार यह जिम्मेवारी एमएमआरडीए को दी जानी चाहिए थी। 

2017 में हीरानन्दानी ने अपने श्रमिक शिविर के निवासियों को जगह खाली करने का नोटिस दिया। उनमें से 40 ने एतराज किया और अदालत चले गए। उनमें से एक राजमिस्त्री अरुण सांगड़ा ने मुझे बताया, “मामला अब भी अदालत में है तो फिर 2019 में दूसरा नोटिस कैसे निकला और जून में तोड़क कार्रवाई कैसे की गई, वह भी हमें केवल दो दिन का नोटिस देकर?”

आवासीय कार्यकर्ता शुभम एक और दिलचस्प पहलू की जानकारी देते हैं। एक पार्षद के बेटे ने प्रदेश मानवाधिकार आयोग से शिकायत की कि श्रमिक शिविर और इसके निवासी आसपास की पॉश इमारतों में रहने वाले लोगों के अधिकारों का हनन कर रहे हैं। 

बीएमसी दावा करती है कि महाराष्ट्र मानवाधिकार आयोग के निर्देशों के तहत ही तोड़क कार्रवाई की गई। यहाँ यह जानना ज़रूरी है कि आयोग केवल सलाह/सुझाव दे सकती है और अदालत की तरह आदेश नहीं जारी कर सकती। यह भी पता नहीं है कि मानवाधिकार आयोग को यह कैसे सही लगा कि श्रमिक शिविर की मौजूदगी आसपास की इमारतों में रहने वाले लोगों के अधिकारों का हनन है। 

06 जून को, तोड़क कार्रवाई के दिन, पुलिस और निवासियों के बीच कड़ा संघर्ष हुआ। बताया जाता है कि निवासियों के एक हिस्से ने कड़ा प्रतिरोध करने का फैसला किया और प्रवेश द्वार पर प्लास्टिक की कुर्सियाँ रखकर हाथों में बाबासाहेब की तस्वीरें लिए बैठ गए। 

निवासी बताते हैं कि भवन निर्माता ने अपने सुरक्षाकर्मी (बाउन्सर) भेजे थे जो हिंसा पर उतारू हो गए। तस्वीरों को रौंदा गया और फिर पथराव व झड़पें हुईं। अतिरिक्त पुलिस बल लाए गए और दोपहर तक प्रतिरोध कर रहे लोगों को पीछे हटने पर मजबूर किया गया। 

पुलिस हरकत में आई और उन पर भी हिंसक हमले किए जो प्रतिरोध नहीं कर रहे थे और अपने घरों में थे। इनमें से एक आत्माराम भी थे, जो एक मज़दूर थे और काम पर से लौटने के बाद सो रहे थे। 

उन्होंने बताया, “चार पुलिसकर्मियों ने मुझे बाहर खींचा और बुरी तरह से पीटा।” उन्होंने मुझे अपने चिकित्सकीय रिकार्ड और पैरों, हाथों पर चोटों के निशान दिखाते हुए कहा, “मैं अब भी रात को सो नहीं पा रहा।” 

बताया गया है कि जिन लोगों को मारा-पीटा गया उनमें एक गर्भवती महिला भी थीं जिनका बाद में गर्भपात हो गया। 

कुछ निवासियों ने अदालत में मामला दर्ज कराकर हमले के लिए जिम्मेवार तत्वों को सजा दिलाने और मुआवजे व उसी इलाके में फिर से बसाने की मांग की है। मामले की सुनवाई अदालत में जारी है। 

भवन निर्माता ने फुले नगर में बसाने का प्रस्ताव दिया है लेकिन निवासियों का कहना है कि वहाँ कोई सुविधा नहीं है, ट्रांसपोर्ट नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण वह जंगल की जमीन है, इस तरह वहाँ बसावट भी गैरकानूनी होंगी। 

शुभम कहते हैं कि मनपा एवं अन्य विभागों के जरिए बिना किसी प्रक्रिया का पालन किए इस तरह बस्तियों को उजाड़ने के मामले बढ़ रहे हैं कि न सिर्फ लोग अपना घर और सामान खो देते हैं बल्कि पुनर्वास की संभावना भी नहीं रह जाती। 

हर घर का कोई सर्वेक्षण नहीं किया जाता, कोई पंचनामा नहीं किया जाता, जिससे कानूनी तौर पर यह स्थापित करना मुश्किल हो जाता है कि वहाँ कौन रह रहा था। 

इस हालिया तोड़क कार्रवाई में पुलिस ने गैरकानूनी तरीके से लोगों का सामान जब्त किया और नष्ट किया। 

वह बताते हैं कि कागजात जुटाना भी मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि पानी और बिजली के कनेक्शन का प्रबंधन बिचौलिये करते हैं। 

कुछ राजनीतिक हस्तियों ने विस्थापित लोगों के पुनर्वास में मदद का आश्वासन दिया है लेकिन जब मैं बारिश के बीच वहाँ गई, लोगों की मायूसी और हताशा झलकती दिखी। 

उल्लेखनीय है कि जुलाई 1981 में जब मुंबई में बुलडोज़रों ने 1600 फुटपाथ झोपड़ों को ढहा दिया, इवान फेरा और प्रफुल्ल बिदवई जैसे पत्रकारों ने पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) से हस्तक्षेप की गुहार लगाई। वरिष्ठ पत्रकार ओल्गा टेलिस झोपड़वासियों के अधिकारों के लिए सुप्रीम कोर्ट तक गईं और कई संगठनों ने मुद्दा उठाया। एक ऐतिहासिक फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 21 में जीवन के अधिकार का एक महत्वपूर्ण पहलू आजीविका का अधिकार है और इसका अभाव न सिर्फ जीवन से उसका अर्थ और प्रभावी तत्व छीन लेगा बल्कि यह जीने को ही असंभव बना देगा। 

दुर्भाग्य से, वंचितों के अधिकार और छीने गए हैं। कहीं कोई राहत नहीं दिखती। सांगड़ा, जिन्होंने 2017 में हीरानन्दानी से पहला नोटिस मिलने के बाद केस दाखिल किया था, कहते हैं, “मर रहे हैं हम रोड पर…” 

आत्माराम कहते हैं, “वह (अधिकारियों) चाहते हैं हम चले जाएँ। उन्हें लगता है कि आखिरकार हमे हटा ही दिया जाएगा।”

(फ्रेनी मानेकशॉ की रिपोर्ट, काउन्टर करंट से साभार। अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार महेश राजपूत ने किया है।)

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