नैनीताल में प्रदूषण और धुंध: जंगल की आग बनाम मैदानी क्षेत्र का प्रकोप

मई के महीने में पहाड़ों से उतरने वाली ठंडी हवा दक्षिण से ऊपर की ओर मैदानों में आने वाले के सम्मिलन, जिसमें पश्चिमी विक्षोभ की भूमिका रही है, ने लंबे समय तक न सिर्फ मौसम को सुहावना रखा, प्रदूषण के मानकों को सामान्य स्तर पर बनाकर रखा। खासकर, दिल्ली के लोग साफ हवा में सांस ले रहे थे। लेकिन, जैसे ही दिल्ली और उत्तर भारत में तापमान तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है, इसका सीधा असर पहाड़ों पर पड़ा है। यहां की गर्म हवाएं हल्के कणों को, जिसमें धुंए की मात्रा की अधिकता होती है, ऊंचाई पर बसे नैनीतात जैसी जगहों की ओर ले गई हैं।

दिल्ली में प्रदूषण मानक 200 से नीचे और इसी के आसपास रह रहा है। लेकिन, नैनीताल का प्रदूषण मानक सामान्य खराब की ओर बढ़ गया है। हालांकि वहां बारिश की उम्मीद जताई गई है जिससे प्रदूषण में कमी आने की संभावना है।

नैनीताल में 7 जून को ही आसमान में धुंध दिखाई देने लगा था। धीरे-धीरे यह पूरे आसमान में छा गया और दूर की पहाड़ियां दिखनी भी बंद हो गई। यह स्थिति पहाड़ के कुछ और जगहों पर दिखी है। जिसमें मुक्तेशवर और रामगढ़ तक इसका असर दिखता है। गर्मी के दिनों में पहाड़ में लगी आग से भी धुंध छाने की घटना होती रही है। जंगलों की आग से पीएम 10 और 2.5 पार्टिकल की मात्रा बढ़ना एक सामान्य घटना है। लेकिन, इस पर आग लगने की घटनाएं कम हुई है। जबकि इन पार्टिकल की मात्रा में तेज बढ़ोत्तरी हुई है।

पर्यावरण पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि अप्रैल के मध्य से लेकर मई के महीने तक मैदानों की गर्म हवा पहाड़ों की ठंडी हवा की ओर बढ़ती हैं और अपने साथ धुंए और धुंध वाले प्रदूषण को साथ लाती हैं। इससे कुछ सालों से इसका असर दिखने लगा है। हालांकि, कुछ रिपोर्टर अब भी जंगल की आग के कारण पर टिके हुए हैं।

मौसम को बदलने वाले तत्वों में अब हवा और तापमान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं। अक्टूबर-नवम्बर के महीने में जब दिल्ली, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब का हिस्सा तेजी से ठंडा होना शुरू होता है और हवा का बहाव ठहरने लगता है तब यह पूरा क्षेत्र एक बंद कमरे में बदलने लगता है। उस समय एकमात्र पश्चिम से कम गति से बहने वाली हवा ही एक उम्मीद होती है जो गंगा के मैदानी क्षेत्रों से होते हुए बंगाल की खाड़ी की ओर बढ़ती है।

इन क्षेत्रों में दिपावली के आसपास इकठ्ठा होते प्रदूषण को कई बार पश्चिम की तेज हवाओं ने इसे विंध्यक्षेत्र से होते हुए इसे झारखंड की ओर ठेल दिया और जाड़े में वहां लंबे समय तक धुंध बना रहा है। हालांकि इसे लेकर जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, नहीं हुई।

यही स्थिति नदियों को लेकर है। बड़े बड़े दावों और पैसे को पानी में बहा देने की हद तक खर्च के बावजूद दिल्ली की यमुना और अन्य प्रदूषित नदियों की सफाई मुख्यतः मानसून से होने वाली बारिश के दौरान ही हो पाती हैं। यह सारा कचरा तेजी से मैदानों की तरफ आगे बढ़ जाता है और बाढ़ के दौरान खेतों में बिखर जाता है। इस संदर्भ में कई रिपोर्ट प्रकाशित हुए, लेकिन ‘पर्यावरण संतुलन’ की इस कथित प्राकृतिक कार्रवाई पर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी गई।

विश्व पर्यावरण की एक अनोखा विवाद पूंजीवादी विकास से धरती के तापमान में हुई वृद्धि है। इस वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस माना जाता है। जब भी इस मुद्दे को लेकर बात होती है, कथित दक्षिणी ग्लोब जिसमें चीन और भारत भी आता है, इस बढ़े तापमान में अपनी हिस्सेदारी के आधार पर कार्बन उत्सर्जन को लेकर मानकों के संदर्भ में किये गये कार्रवाई पर मुआवजे की मांग रखता रहा है।

भारत में तेजी से जंगली क्षेत्रों आदिवासी समुदाय को बदेखल करने, उनके खिलाफ हिंसक कार्रवाई कर उन्हें उन क्षेत्रों से हटाने और खनिज खदानों आदि की गतिविधियां तेज करने में लगा हुआ है। ऐसे में विकास के नाम पर एक तरफ हम कार्बन उत्सर्जन को देख रहे हैं और दूसरी ओर जगलों का सफाया देख रहे हैं।

हम जानते हैं कि जंगल क्षेत्र का सफाया सिर्फ पेड़ों का नहीं होता है। इसके साथ जैव विविधता, नदी और जल संग्रहण आदि पर खतरनाक प्रभाव पड़ता है। और, सबसे अधिक इस पर आधारित जीवन जीने वाला समुदाय पूरी तरह से उजड़ जाता है और अपनी सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन को खो देता है। उजाड़ने वाले उन्हें सभ्य बनाने का दावा करते हैं जिसें हम पिछले 300 सालों से उपनिवेशवादियों के मुंह से सुनते आ रहे हैं और उनके रिकार्ड को पढ़ते आ रहे हैं।

ऐसे में, धरती पर पूंजीवादी साम्राज्यवादियों के कुल संकलित तापमान 1.5 डीग्री सेल्सियस धरती पर वितरित होते समय कई जगहों पर इससे कहीं अधिक प्रभाव डालता है और कहीं कम। भारत जैसे देश में इसका प्रभाव पिछले कुछ सालों में बढ़ते हुए देख रहे हैं। भारती उपमहाद्वीप में समुद्री हवाओं का असर कई कारणों से लगातार प्रभावी रुख दिखाता रहा है।

खासकर, इसकी भौगोलिक बनावट एक तर फ चक्रवाती तुफान को निर्मित करती है, वहीं दूसरी ओर गर्म हवाएं पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर बढ़ते हुए पहाड़ों को भी बारिश और बर्फ से मरहूम कर देती हैं। इसी तरह दक्षिण-पश्चिम की हवाओं में गर्मी की मात्रा मैदानी क्षेत्रों में तुफान और अचानक बारिश को बनाने की ओर बढ़ती हैं। हम मुंबई जैसी जगहों में जब प्रदूषण को देखने लगे हैं, तब हमें अपने महाद्वीप और देश के मौसम के बारे में जरूर गंभीरता से बिचार करना चाहिए।

अमेरीकी और यूरोपीय पूंजीवादी साम्राज्यवाद आज मौसम को लेकर बनाये गये खुद को मानक को मानने से गुरेज करने लगे हैं। अमेरीका ने तो खुलेआम ऐलान किया कि वह कार्बन उत्सर्जन के मानक को नहीं मानता और उसने पेट्रोलियम और कोयले का प्रयोग तेजी से शुरू कर दिया। पूंजी बिना मुनाफे के टिक नहीं सकती। वह तभी तक है जब तक वह श्रम और संसाधनों के आधार पर पर अपना मुनाफा बनाने में कामयाब रहती है। इसका सीधा असर इंसान और उसके पर्यावरण पर पड़ता है। इसका इतिहास हम अब तक के पूंजीवादी विकास के संदर्भ में पढ़ सकते हैं।

नैनीताल में छाया धुंध एक परिघटना है जिसमें सिर्फ अपने शहर के पर्यावरण पर ही नहीं, अन्य स्थलों के पर्यावरण पर भी दृष्टि डालने और उसे लेकर आवाज उठाने की मांग करता है। पंजाब के किसानों पर पराली जलाने और उससे दिल्ली के प्रदूषण में होने वाली बढ़ोत्तरी पर कलम चलाने वालों को जरूर इस तरफ भी नजर डालनी चाहिए। मैदानी शहरों का प्रदूषण जब पहाड़ पर छाने लगे तब निश्चित ही सतर्क होने और इसे रोकने के लिए कदम बढ़ाने की जरूरत है।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं)

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