कोरोना संकट ने जिस तरीक़े से सत्ता और समाज के हर हिस्से के पाखंड को बेनकाब किया है, उसकी कोई और मिसाल नहीं दी जा सकती। हालिया मामला श्रमिक स्पेशल ट्रेनों के किराये को लेकर मची तू-तू-मैं-मैं का है।
जब सोशल मीडिया में आलोचना होने लगी थी कि घर वापस लौट रहे फंसे हुए और फटेहाल मजदूरों से रेल टिकट का पैसा भी वसूला जा रहा है तभी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ऐलान किया कि इन मजदूरों के किराये का खर्च प्रदेश कांग्रेस कमेटियां वहन करेंगी। उन्होंने तथा राहुल गांधी ने अपने उद्गारों में यह तंज भी कसा कि जब सरकार द्वारा हवाई जहाजों से विदेशों से लोगों को मुफ्त में लाया जा सकता है तो मजदूरों से रेल भाड़ा वसूलने का क्या औचित्य है! इसके बाद तो सरकार और भाजपा की ओर से बयानबाजियों की झड़ी लग गई।
इनका मुख्य मक़सद था कि किसी भी तरह से कांग्रेस को कोई श्रेय न लेने दिया जाए। सुब्रमण्यम स्वामी ने बताया कि उनकी रेल मंत्री पीयूष गोयल से बात हो गई है और किराये का 85 फीसद रेलवे वहन कर रही है तथा 15 फीसद राज्य सरकारों को वहन करने को कहा गया है। इसके बाद इसी बात को साबित करने के लिए भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा, भाजपा आईटी सेल के मुखिया अमित मालवीय तथा अन्य ढेर सारे लोगों के बयान पर बयान आने लगे। इन लोगों ने अपने बयानों के पक्ष में प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो की एक प्रेस रिलीज को उद्धृत करना शुरू किया जिसमें लिखा था कि ‘रेल टिकट बेचने के लिए कोई काउंटर नहीं खुलेगा’।
भाजपा प्रवक्ताओं का तर्क था कि जब काउंटर खुलेगा ही नहीं तो मजदूर टिकट कैसे खरीद सकते हैं। फिर क्या था। चौबीसों घंटे चलने वाले गोदी खबरिया चैनलों ने हमेशा की तरह इसी बात को और इसी तर्क को “सूत्रों के हवाले से” बताते हुए और छौंक लगा-लगा कर दिन-रात फेंटना और कांग्रेस को उसकी कथित भ्रम फैलाने वाली बयानबाजी के लिए कोसना शुरू कर दिया।
लेकिन समस्या यह थी कि घर लौट रहे मजदूर अपने टिकट दिखा रहे थे और बता भी रहे थे कि किराये का भुगतान उन्होंने खुद किया है। इन बयानों को कुछ स्थानीय अखबार और चैनल दिखा भी रहे थे। ये बातें भाजपा प्रवक्ताओं और गोदी मीडिया के कोरस के खिलाफ़ जा रही थीं। तो फिर एक नया पैंतरा बदला गया। अब बयान दिए जाने लगे कि केंद्र सरकार तो रेलवे की ओर से अपना 85 फीसद हिस्सा दे ही रही है, भाजपा शासित राज्य सरकारें भी अपना 15 फीसद हिस्सा दे रही हैं और वहां मजदूरों से कुछ भी नहीं लिया जा रहा है।
ये तो ग़ैर-भाजपा शासित राज्य सरकारें हैं जहां मजदूरों से पैसा वसूला जा रहा है। लेकिन जाहिर है कि यह भी पहले झूठ को छिपाने के लिए गढ़ा गया एक और झूठ था और इसकी पोल खुलते भी देर नहीं लगी। गुजरात और कर्नाटक से उत्तर प्रदेश, बिहार जाने वाले मजदूरों से भी किराये के पैसे वसूलने के तथ्य सामने आने लगे।
इन तथ्यों के आने से प्रवक्ता बगलें झांकने लगे। लेकिन ‘थेथरोलॉजी’ के डिग्रीधारकों के लिए सत्य यही है कि ‘शर्म उनको मगर नहीं आती’। हालांकि आज कल ‘झूठ की उम्र छोटी होती है’ वाली कहावत पर से भरोसा कम होने लगा है फिर भी इस मामले में 85 फीसद बनाम 15 फीसद के पीछे का गणित धीरे-धीरे सबको समझ में आने लगा। रेलवे के 1 मई की एक विज्ञप्ति से पता चला कि रेलवे ये टिकट सीधे काउंटर से नहीं बेच रही है, बल्कि ये टिकट राज्य सरकार की मांग और उनकी सूची के अनुरूप उन्हें सौंप दिए जाएंगे और राज्य सरकारें उनका पैसा इकट्ठा करके रेलवे को सौंप देंगी। केंद्र या रेलवे की तरफ से ऐसा कोई निर्देश नहीं है कि राज्य सरकारें यह पैसा किस तरह से इकट्ठा करेंगी, न ही केंद्र ने राज्य सरकारों से पहले से बातचीत करके इस संबंध में कोई सहमति बनाई है।
मजदूरों से वसूला जा रहा यह किराया भी लगभग आम दिनों में नॉन एसी स्लीपर क्लास के सफर में लगने वाले किराये के बराबर ही है। साथ ही 30 रुपये सुपर चार्ज और 20 रुपये रिजर्व बर्थ का चार्ज मिलाकर 50 रुपये अतिरिक्त भी लिए जा रहे हैं। तो फिर 85 फीसद की वह रहस्यमय सब्सिडी क्या है जिस खर्च को रेलवे यानि सरकार वहन करने का दावा कर रही है?
4 मई को अपनी दैनिक प्रेस विज्ञप्ति में संयुक्त स्वास्थ्य सचिव ने भी केंद्र और राज्यों में 85 और 15 फीसद की खर्च हिस्सेदारी के बारे में बताया लेकिन उन्होंने भी यह स्पष्ट नहीं किया कि आखिर फिर मजदूरों को क्यों भुगतान करना पड़ रहा है। उनके बयान के हिसाब से भी मजदूरों से किराया नहीं वसूला जा रहा है। यहां तक कि 5 मई को सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों ने भी यह सवाल पूछा कि क्या सरकार श्रमिक ट्रेनों से यात्रा करने वालों का 85 फीसद किराया दे रही है? लेकिन सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट से कहा कि इस संबंध में जानकारी देने के लिए उन्हें कोई ‘निर्देश’ नहीं मिला है।
कई विशेषज्ञों की दिमागी कसरत के बाद इस तिलिस्मी सब्सिडी का रहस्य यह उजागर हुआ है कि सामान्य दिनों में भी रेलवे अपनी पुरानी विज्ञप्तियों में यह बताती रही है कि वह यात्री किराये के रूप में रेलवे के कुल खर्चे का केवल 53 फीसद ही वसूल पाती है। इस तरह रेलवे हर टिकट पर 47 फीसद सब्सिडी पहले से ही दे रही है। मान लीजिए सोशल डिस्टेंसिंग के चलते उसे 72 यात्रियों वाले कोच में केवल 50 यात्रियों को बैठाना पड़ रहा है और साथ ही वापसी में खाली ट्रेन लेकर आना पड़ रहा है। इस तरह संचालन खर्च ज्यादा पड़ रहा है और यात्रियों से राज्यों के माध्यम से वसूले गए किराये से कुल संचालन खर्च का मात्र 15 फीसद ही वसूला जा पा रहा है। शेष 85 फीसद को रेलवे की ओर से सब्सिडी बताया जा रहा है।
तो कुल मिलाकर यही गुत्थी है। दरअसल इन फटेहाल और हालात के मारे हुए मजदूरों से अगर सामान्य किराये की जगह सात गुना किराया वसूल कर रेलवे अपना पूरा संचालन खर्च वसूल पाती तब कहा जाता कि मजदूरों से किराया वसूला गया। इसलिए सामान्य किराया वसूली को किराया वसूली मत कहिए और इस व्यवस्था के लिए अवांछित इन अभागे लोगों को इस व्यवस्था का शुक्रगुजार होना चाहिए कि वह इनकी हड्डियां निकाल कर उसके चूरे का सुरमा बना कर मुनाफा नहीं कमा रही है।
(शैलेश की रिपोर्ट।)
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