दलित आंदोलन के इतिहास में सूर्य की तरह चमकता रहेगा राजा ढाले का नाम

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लेखक, एक्टिविस्ट और दलित पैंथर्स आंदोलन के सह संस्थापक राजा ढाले (78) का मंगलवार को दिल का दौरा पड़ने से मुंबई में निधन हो गया। विखरोली स्थित अपने निवास पर उन्होंने आखिरी सांस ली। वह अपने पीछे पत्नी दीक्षा और बेटी गाथा को छोड़ गए हैं।

सांगली के नांदरे गांव में पैदा हुए ढाले बचपन में ही माता-पिता के निधन के बाद अपने चाचा-चाची के साथ मुंबई चले आये थे। उन्होंने मराठा मंदिर में पढ़ाई की थी और वर्ली के बीडीडी चॉल में रहते थे।

गाथा ने बताया कि “शिक्षा तक पहुंच में कठिनाई के बावजूद वह पढ़ने के बहुत इच्छुक थे।” वह कहा करते थे कि “अगर डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर पढ़ सकते हैं, तो हमें पढ़ने से कौन रोक सकता है?” दक्षिण मुंबई के सिद्धार्थ कालेज में ग्रेजुएशन की पढ़ाई के दौरान उन्होंने दलित आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया था।

अमेरिका में नागरिक अधिकारों के लिए प्रतिरोध विकसित करने वाले ब्लैक पैंथर्स से प्रभावित होकर बने दलित पैंथर्स के सह संस्थापक लेखक अर्जुन दांगले ने बताया कि ढाले में युवा काल से ही पढ़ने की बहुत भूख थी। दांगले ने बताया कि “उस समय वर्चस्वशाली जातियों के मनोरंजन के लिए केवल मुंबई और पुणे के ही कुछ समूहों का लेख प्रकाशित होता था। लेकिन अपने लेखों के जरिये वे और नामदेव ढसाल समेत समूह के दूसरे लोगों ने बहुजन समुदाय, आदिवासियों, राज्य के ग्रामीण इलाकों के गरीबों की आवाजों के महत्व के बारे में बताना शुरू कर दिया।” आगे उन्होंने बताया कि इसके कुछ दिनों बाद ही 1972 में दलित पैंथर्स का निर्माण हुआ।

हालांकि एक दूसरे सह संस्थापक जेवी पवार का कहना है कि साधना में 1972 में प्रकाशित ढाले के एक दूसरे लेख से समूह प्रमुखता से उभरा। स्वतंत्रता की 25वीं सालगिरह मनाए जाने के दौरान ढाले ने लिखा कि अगर भारत की स्वतंत्रता दलितों के सम्मान की गारंटी नहीं करती है तो तिरंगे की कीमत उसके लिए कपड़े के एक टुकड़े से ज्यादा नहीं है।

पिछले साल जनवरी में भीमा कोरेगांव की हिंसा के बाद इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए ढाले बेहद विचारशील हो गए थे। उन्होंने उसी बात को दोहराया जो उन्होंने फरवरी 2017 मुंबई नगर निगम के चुनाव से पहले कही थी- वह यह कि दलित आंदोलन में एकता का अभाव है। उन्होंने कहा कि “मराठा केवल महाराष्ट्र तक सीमित हैं और वह अभी भी इसको शक्ति के तौर पर महसूस करते हैं।” जबकि “अछूत करोड़ों की संख्या में देश में फैले हैं। क्या होगा अगर हम सभी एक साथ लड़ते हैं।”

ढाले उस समय के ह्वाट्सएप संदेशों और दूसरे सोशल मीडिया पोस्टों की तरफ केवल इशारा नहीं कर रहे थे- जिसमें नये पेशवाई और ऊपरी जाति के वर्चस्व के खिलाफ उठ खड़े होने का आह्वान था। दलित पैंथर्स के संस्थापक सदस्य के तौर पर और एक पेंटर, कवि और 1970 के दशक के अपनी “विद्रोह” पत्रिका के संपादक के तौर पर वह अपने क्रांतिकारी दौर की फिर से याद दिला रहे थे। उन्होंने युवा अंबेडकरवादियों को क्यों सबसे पहले अंबेडकर को पढ़ना चाहिए के बारे में बताया और कैसे गुटबाजी और निजी स्वार्थों ने आंदोलन को प्रभावित किया था इसकी जानकारी दी।

कांग्रेस नेता हुसैन दलवई ने दलित आंदोलन के उन प्रचंड दिनों को याद करते हुए बताया कि “मैं युवक क्रांति दल के साथ था और हम दलित पैंथर्स के साथ पुणे के एक गांव में गए थे जहां दलितों का बहिष्कार हुआ था। उस समय ढाले हम लोगों के साथ थे। वह निर्भीक थे, एक असली लड़ाकू।” दलवई ने ढाले की मौत को दलित आंदोलन की बहुत बड़ी क्षति बतायी।

(यह लेख सदफ मोदक और कविता अय्यर ने लिखा है। अंग्रेजी में लिखे गए इस मूल लेख का हिंदी में अनुवाद किया गया है।)

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