राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की मान्यता संयुक्त राष्ट्र की संस्था GANHRI ने रोकी

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भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की मान्यता को संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्य संस्था ग्लोबल एलायंस ऑफ नेशनल ह्यूमन राइट इंस्टिट्यूशन ने फिलहाल रोक रखा है। यह संस्था किसी देश की मानवाधिकार संगठन को उसकी संरचना, भूमिका और कार्यवाही के आधार पर ‘ए’ और ‘बी’ की श्रेणी या मान्यता प्रदान करती है। इसमें 110 मानवाधिकार संगठन का प्रतिनिधित्व है। भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की साख ‘ए’ श्रेणी में रही है, लेकिन 20-से 24 मार्च, 2023 के मूल्यांकन में इस साख को फिलहाल नहीं दिया गया है, रोक लिया गया है।

2024 में एक बार फिर इस मसले पर बैठकें और मूल्यांकन किया जायेगा। जीएएनएचआरआई यानी ग्लोबल एलायंस ऑफ नेशनल ह्यूमन राइट इंस्टिट्यूशन में 2017 में ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग पर सवाल उठे थे। इस संदर्भ में कुछ मानवाधिकर संगठनों ने मिलकर पत्र लिखकर भारत में मानवाधिकार की गिरती स्थिति, संगठन की कार्यवाही और उसकी संरचना पर सवाल उठाये थे। यहां यह जान लेना जरूरी है कि ग्लोबल एलायंस ऑफ नेशनल ह्यूमन राइट इंस्टिट्यूशन पेरिस सिद्धांत पर काम करता है और इसे विश्व मानक की तरह देखा जाता है।

इस सिद्धांत के तहत किसी भी राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थान को मानवाधिकार की मान्यता और उसकी सुरक्षा के लिए काम करना, मानवाधिकार उल्लंघन के समय में जिम्मेवारी उठाना और सलाह देना, मूल्यांकन और रिपोर्ट जारी करने के अधिकार से लैस होना, सरकार से अलग संवैधानिक मान्यताओं के आधार पर काम करना, समाज की वैविध्यता को अंगीकार करते हुए उसके मानवाधिकार को आगे बढ़ाना, पर्याप्त क्षमता और संसाधनों से लैस होना, समाज में अन्य मानवाधिकार संगठनों, राज्य और समाज के संगठनों के साथ जुड़कर काम करना, अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों के प्रति सचेत और क्षेत्रिय मानवाधिकारों के साथ जुड़े रहना, सांगठनिक-संरचना और उसकी नियुक्तियों का पारदर्शी और बहुविध प्रतिनिधित्व होना जरूरी है।  

जिन राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों को जो भी श्रेणियां मिलती हैं, उसका मूल्यांकन पांच साल पर होता है। 1999 में भारत के इस संगठन को ‘ए’ श्रेणी से वंचित होना पड़ा था। 2006 में ही यह मान्यता पुनः हासिल हुई और 2011 में भी समीक्षा के तहत यह मान्यता बनी रही। 2016 में 12 महीने तक के लिए ‘ए’ श्रेणी की मान्यता नहीं मिली। नवम्बर, 2017 में ही यह मान्यता दुबारा मिल सका। मार्च, 2023 में एक फिर जेनेवा मिटिंग में इसे 12 महीने के पुनर्चिंतन में डाल दिया गया। इस मीटिंग में 13 देशों की संस्थाओं की पुनर्समिक्षा की गई थी लेकिन इसमें से भारत, कोस्टारिका और नादर्न आयरलैंड को ही समीक्षा के लिए रखा गया।

यह कहा जा रहा है कि भारत की यह संस्था हाशिये पर फेंके जा रहे लोगों के मानवाधिकार की रक्षा में पर्याप्त कदम नहीं उठा रहा है और न ही इस संदर्भ में उसकी तैयारियां क्या हैं, उसकी पर्याप्त जानकारी दे रहा है। जैसा कि दावा किया गया ‘भारत लोकतंत्र की मां है’ लेकिन लोकतंत्र के मूल्यों को खुद सरकार कितनी मान्यता दे रही है, इसकी समीक्षा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की कार्यवाहियों से ही गायब हो गई है। 2017 में ही ग्लोबल एलायंस ऑफ नेशनल ह्यूमन राइट इंस्टिट्यूशन ने एनएसआरसी के सांगठनिक-संरचना पर सवाल उठाया था। उस समय भारत के इस संगठन के कर्मचारियों में मात्र 20 प्रतिशत महिलाएं थी और आयोग के पांच सदस्यों में से एक भी महिला या हाशिये पर स्थित समूहों का प्रतिनिधित्व नहीं था।

2019 में इसमें प्रतिनिधित्व को लेकर संशोधन हुआ और आयोग की सदस्य संख्या 6 हो गई जिसमें भारत की तीन अन्य मानवाधिकार संगठन के सदस्यों का भी प्रतिनिधित्व जोड़ दिया गया था। 2023 तक इसमें महिला कर्मचारियों की संख्या थोड़ी सी बढ़ाकर 24 प्रतिशत तक ही हो पाई। भारत के मानवाधिकार संगठन ने कुछ और भी कदम उठाये और कुछ नियुक्तियों के लिए विज्ञापन भी दिये, लेकिन ऐसा लगता है कि ये प्रयास सतही ही ज्यादा साबित हुए। मानवाधिकार संस्थानों और इस दिशा में काम कर रहे नेतृत्वों ने भारत में विदेशी अनुदान नियमन अधिनियम, नागरिकता संशोधन अधिनियम और यूएपीए को लेकर लगातार सवाल उठाते रहे हैं और उनकी खास आलोचना भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की भी रही है जिसने इस संदर्भ में उयुक्त सवाल को या तो उठाया नहीं या बेहद कमजोर तरीके से कुछ प्रश्न ही रखे।

इस दौरान कई मानवाधिकार संगठनों, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय संगठन भी शामिल हैं और कार्यकर्ताओं पर सरकार की ओर से कार्यवाहियां की गईं। इस संदर्भ में भारत के विभिन्न संगठनों और व्यक्तियों ने पत्र लिखकर भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग पर गंभीर सवाल उठाया। 2021 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अरूण मिश्रा को पद से रिटायर होने के बाद इस आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया। यह न्यायाधीश खुलेआम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ में कसीदे गाते रहे थे और उनके पक्ष में खुले मंच से बोल रहे थे। ऐसे में भारत के मानवाधिकार की स्वतंत्रता पर सवाल उठना लाजिमी था। और, इस सबका परिणाम यही है कि भारत का राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की अंतर्राष्ट्रीय साख पर सवाल उठ गया है।

आज भारत कई महत्वपूर्ण मानकों में अपनी साख खोता जा रहा है। यह साख एक व्यापक अनुमान और कुछ मानकों की ठोस अवस्थिति से तय होता है। लेकिन, यदि हम इसका अध्ययन और भी जमीनी स्तर पर करें,तो स्थिति भयावह दिखती है। भारत में पिछले लगभग दस सालों से जिस राजनीतिक पार्टी की केंद्र और कुछ राज्यों में सरकार चल रही हैं, वह लोकसभा और विधान-सभा चुनावों में प्रतिनिधित्व के मामले में बेहद भेदभाव का रुख बनाये हुए है। इसी तरह वह विपक्ष की पार्टी ही नहीं, जनता के कई सारे समूहों के प्रति खुलेआम नफरत भरा रुख प्रकट करती है।

ऐसे में, इसका परिणाम सिर्फ समाज में हाशिये और बाहर किये जा रहे लोगों, समूहों के आम अधिकारों का उलघंन होना एक सहज सी बात ही नहीं रह जाती, इसका असर बड़े पैमाने पर सरकारी संस्थानों की संरचना और उसकी कार्यवाहियों में भी दिखने लगता है। यह उन संस्थानों को भी बढ़ाना और उनके साथ मिलकर काम करने लगते हैं, जिसे आमतौर पर ‘फ्रिंज एलीमेंट/संगठन’ कहा जाता है। मानवाधिकार आयोग का पतन का अर्थ भारत के लोकतंत्र की सांस्थानिक पतन के साथ जाकर जुड़ती है। तानाशाही का अर्थ इन्ही संस्थाओं के पतन के साथ जाकर जुड़ता है। जरूरी है कि इस सदंर्भ में सतर्कता बरती जाये।

( अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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