संघ-भाजपा को अब सेक्युलरिज़्म की चिंता क्यों सताने लगी!

Estimated read time 1 min read

संघ और भाजपा के कट्टर समर्थकों को भले ही सांप सूंघ गया हो पर उनके प्रच्छन्न समर्थक खामोश नहीं हैं। बहुत से प्रच्छन्न समर्थक शिव सेना और कांग्रेस के साथ आने पर व्यंग्य करते हुए ऐसी टिप्पणियां कर रहे हैं कि सेक्युलरिज़्म की इस जीत पर नेहरू और बाला साहेब ठाकरे साथ-साथ खुश होंगे!

बेशक विचारों की दृष्टि से महाराष्ट्र का गठबंधन एक बेमेल गठबंधन है, लेकिन यह बात क्या ऐसे लोगों की जुबान से अच्छी लगती है, जिन्होंने बिहार में जदयू-भाजपा गठबंधन और कश्मीर में पीडीपी-भाजपा के स्वागत में पलक पांवड़े बिछा दिए?

इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि रात के अंधेरे में जिस तरह लोकतंत्र और संवैधानिक उसूलों पर डाका डाल उसकी हत्या करते हुए फडणवीस को शपथ दिला दी गई, उसे किसी भी कोने से जायज़ ठहराया जा सकता था? इसलिए महाराष्ट्र का मौजूदा गठबंधन कितना लंबा चलता है, यह सवाल फ़िलहाल गौण है, लेकिन 26 नवंबर का दिन वाक़ई इस अर्थ में एक ऐतिहासिक दिन बन गया कि झूठ-फरेब, छल-कपट और धनबल के ऊपर संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों की जीत हुई!

महाराष्ट्र का नया गठबंधन विरोधाभासों का ही गठबंधन है और संक्रमणकालीन राजनीति के दौर में ऐसे बेमेल गठजोड़ बनते रहे हैं। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान की कांग्रेस तो वैसे भी तमाम अंतर्विरोधों की एकता से ही बनी थी। राजनीति में रुचि रखने वालों को यह याद होगा कि 82-83 के दौरान असम में नरसंहार के विरुद्ध आंदोलन में आईपीएफ (सीपीआई-एमएल का खुला मोर्चा) और भाजपा ने इंदिरा निरंकुशता के खिलाफ हाथ मिलाया था। यह अलग बात है कि वह कुछ दिनों का ही साथ था। इमरजेंसी के दौरान बना गठबंधन तो सभी को याद होगा।

संसदीय लोकतंत्र ही जब खतरे में हो तो बहुत से ऐसे गठबंधन देखने को मिल सकते हैं! दरअसल भारत मे लोकतंत्र और लोकतांत्रिक चेतना अभी बौद्धिक स्तर पर अपने शैशव काल में ही है। वास्तविक जनतांत्रिक संघर्षों के दौरान ही लोकतांत्रिक चेतना का उदात्त और परिपक्व विकास भी मुमकिन है और इसी प्रक्रिया में वास्तविक राजनीतिक शक्तियों के विकास का भी रास्ता बनता है। शायद इस प्रक्रिया को अभी लंबे दौर से गुजरना है। विचार और शुचिता की राजनीति कोई शून्य से तो नहीं पैदा होने वाली! इसलिए भारतीय जन को अभी सत्ता की राजनीति के विविध रूप-रंगों के दर्शन होते ही रहेंगे! भूमंडलीकरण और उदारीकरण के इस हिंसक संक्रमण काल में अभी शायद वह बहुत कुछ अनपेक्षित देखने को अभिशप्त रहेगी!

दया शंकर राय

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author