आज जब लोकतंत्र पर अघोषित तानाशाही हावी होती जा रही है और संवैधानिक मूल्यों की उपेक्षा की जा रही है तथा महिलाओं खास कर दलित और वंचित वर्ग की महिलाओं और दलितों-आदिवासियों के साथ गैर-बराबरी का व्यवहार किया जा रहा है। ऐसे समय में क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले को याद करना जरूरी हो जाता है। शिक्षिका, कवयित्री, समाज सुधारक और महिला मुक्ति आंदोलन की प्रणेता सावित्री बाई फुले को यूं ही भारत की पहली शिक्षिका नहीं कहा जाता है। शिक्षा क्षेत्र में तथा सामाजिक बुराईयों के खिलाफ आवाज उठाने में उनका बड़ा योगदान है।
उन्होंने लड़कियों को उस जमाने में पढ़ाना शुरू किया जब लड़कियों को शिक्षा देना पाप और अपराध माना जाता था। लड़कियों की शिक्षा को समाज में मान्यता नहीं थी। उस समय समाज में अनेक कुरीतियां व्याप्त थीं। समाज में बाल विवाह प्रचलन में थे और उन्हें मान्यता प्राप्त थी। स्वयं सावित्री बाई का विवाह नौ साल की उम्र में तेरह साल के ज्योतिबा फुले से हुआ था।
उस समय समाज में महिलाओं के साथ बहुत भेदभाव होता था। खासकर विधवाओं की स्थिति बहुत दयनीय थी। पति की मृत्यु हो जाने पर विधवा के सिर का मुंडन कराया जाता था। उसे सफेद वस्त्र पहनने को दिए जाते थे। सावित्री बाई ने इसका विरोध किया। विधवाओं के दुखों को कम करने के लिए उन्होंने नाईयों के खिलाफ एक हड़ताल का नेतृत्व किया जिससे कि नाई उनके बाल न काटें।
सावित्री बाई ने विधवाओं के लिए विधवा आश्रम खोला जहां विधवाओं को शरण दी जाती थी साथ ही गर्भवती विधवाएं जो लोकलाज के कारण आत्महत्या करना चाहती थीं उनको भी यहां पनाह मिलती थी और न केवल उनके बच्चे की यहां प्रसूति होती थी बल्कि उसका पालन-पोषण किया जाता था।
उस समय छुआछूत का भी भयंकर दौर था, जो कमोबेश आज भी है। उस समय दलितों और वंचितों के साथ बहुत भेदभाव किया जाता था। उनके ऊपर अत्याचार किए जाते थे। उन्हें संपत्ति रखने का अधिकार नहीं होता था। समाज में सबके साथ उठने-बैठने का अधिकार नहीं होता था। उनकी स्थिति काफी दयनीय थी। उन्हें मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार नहीं था। उन्हें कथित उच्च जाति के लोगों के कुंए से पानी लेने का अधिकार नहीं था।
ऐसे में सावित्री बाई ने अपने घर का कुआं अछूतों के लिए खोल दिया था। जाहिर है उस समय ये बहुत बड़ी बात थी, बहुत साहस का काम था। फुले दंपत्ति के इन मानवीय और समाज सुधार के कार्यों को कथित उच्च जाति के लोग अक्षम्य अपराध की तरह देखते थे और उनसे घृणा करते थे।
यही कारण है कि जब सावित्री बाई ने अपने पति ज्योतिबा फुले और अपनी सहेली फातिमा शेख की मदद से स्कूल खोला और लड़कियों को पढ़ाना शुरू किया तो लोग न केवल उनके प्रति अपशब्दों का इस्तेमाल करते बल्कि उनके ऊपर पत्थर और गोबर फेंकते थे। हर तरह से उन्हें हतोत्साहित करते थे ताकि वे लड़कियों को न पढ़ाएं। पर सावित्री बाई ने हार नहीं मानी और वे अपने मिशन में लगी रहीं।
उनके इस कार्य से ईर्ष्या करने वाले कुछ लोगों ने ज्योतिबा के पिता को भड़काया। उनके पिता भी उन लोगों की बातों में आ गए और उन्होंने ज्योतिबा और सावित्री को घर से निकाल दिया। ऐसे में सावित्री बाई की सहेली फातिमा शेख ने उन्हें अपने यहां शरण दी और उनके शैक्षिक कार्यों में अपना योगदान दिया।
सावित्री बाई ने अहमद नगर और पुणे में टीचर की ट्रेनिंग ली और उन्होंने 1848 में पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला। इस तरह वे पहली शिक्षिका बनीं। बाद में फुले दंपत्ति ने कुल 18 स्कूल खोले। सावित्री बाई स्कूल की प्रिंसिपल भी बनीं। अंग्रेजों ने सावित्री बाई फुले के इस कार्य को सराहा और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने उनको इस सत्कार्य के लिए सम्मानित किया।
आज महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में जो प्रगति की है उसमें कहीं न कहीं सावित्री बाई के संघर्ष का योगदान है। लेकिन अभी भी देश में महिलाओं की संख्या के अनुपात में उनका विकास नहीं हो सका है। अभी भी महिलाओं में शिक्षा और सशक्तीकरण की परम आवश्यकता है।
आज भी महिलाओं के साथ और खास कर दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा है। उनका यौन शोषण हो रहा है। उनको न्याय नहीं मिल रहा है। आम महिलाओं की तो बात ही छोड़ दीजिए देश में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की महिला खिलाडि़यों तक को न्याय नहीं मिल पा रहा है।
ऐसे में महिलाओं के कल्याण के लिए, उनके सशक्तीकरण के लिए सावित्री बाई का जन्म दिन एक अवसर है जब हम संकल्प लें कि हम महिलाओं के विकास और कल्याण के लिए उनके सशक्तीकरण के लिए प्राथमिकता देंगे। महिलाएं आधी आबादी हैं उन्हें पीछे छोड़कर देश आगे नहीं बढ़ सकता। इसलिए हम सब का यह कर्तव्य होना चाहिए कि हम अपने-अपने स्तर पर महिलाओं की तरक्की में अपना योगदान दें। इससे निश्चय ही देश का विकास होगा और सावित्री बाई फुले का सपना पूरा होगा।
बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर स्त्री समानता के पक्षधर थे। उनका स्पष्ट कहना था कि यदि किसी समाज का विकास देखना हो तो पैमाना यह होना चाहिए कि उस समाज की महिलाओं ने कितनी प्रगति की है। वे महिलाओं के शिक्षा पर विशेष जोर देते थे। उनका कहना था कि यदि एक पुरुष शिक्षित होता है तो केवल एक पुरुष शिक्षित होता है पर एक महिला शिक्षित होती है तो पूरा परिवार शिक्षित होता है।
बाबा साहेब सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले से काफी प्रभावित थे। इसलिए उन्होंने जो तीन मूलमंत्र दिए हैं – ‘शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो।’ उन में शिक्षा को पहला स्थान दिया है।
सावित्री बाई ने लड़कियों की शिक्षा के लिए, उनके मानव अधिकारों के लिए जितना संघर्ष किया उसकी तुलना नहीं हो सकती पर विडंबना देखिए कि उनके जन्मदिन को “शिक्षक दिवस” के रूप में नहीं मनाया जाता जबकि वह इसकी सही मायने में अधिकारी हैं।
सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को नायगांव में (वर्तमान में महाराष्ट्र के सतारा जिले में) एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्री बाई फुले का विवाह 1840 में ज्योतिबा फुले से हुआ था।
पुणे में एक बार प्लेग की महामारी फैल गई। इस महामारी में भी सावित्री बाई समाज सेवा में लगी रहीं। इस दौरान वे भी इस बीमारी की चपेट में आ गईं और 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया।
सावित्री बाई समाज सेविका के साथ-साथ एक कवयित्री भी थीं। उन्हें मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का प्रयास किया। उन्हें शिक्षा का महत्व समझाया। स्त्री अधिकारों की वकालत की। लैंगिक समानता का मुद्दा उठाया। वे स्त्रियों को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए आजीवन संघर्ष करती रहीं।
आज भारतीय समाज के जो हालात हैं उससे साफ़ है कि यह समाज फिर मनुस्मृति की ओर लौट रहा है। जिसका सावित्री बाई आजीवन विरोध करती रहीं। स्त्रियों और दलितों को सावित्री बाई गुलामी से मुक्त कर उन्हें सम्मान के साथ जीने के लिए जिन्दगी भर संघर्ष करती रहीं उनको फिर गुलाम बनाए रखने की साज़िश होने लगी है। उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरा लगाया जा रहा है। उन्हें उनके मानवाधिकारों से वंचित किया जा रहा है। उन्हें झूठे मामलों में फंसा कर देशद्रोही बताकर सलाखों के पीछे भेजा जा रहा है।
इसके लिए जरूरी है कि सावित्री बाई फुले को पाठ्यक्रम (syllabus) में शामिल किया जाए। सावित्री बाई फुले को सिलेबस में शामिल करने के लिए सरकार पर भी दबाव बनाया जाए। जब हमारी लड़कियां पढ़-लिख कर शिक्षित होकर, सावित्री बाई के संघर्ष को जानकार, बाबा साहेब के हिन्दू कोड बिल को पढ़कर जब जागरूक होंगी तब वे खुद ही पितृसत्ता को नकार देंगी।
इस तरह सावित्री बाई की विचारधारा पितृसत्ता का खात्मा करने में सक्षम होगी और समाज में समता, समानता, स्वतंत्रता बंधुत्व व न्याय जैसे संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देगी।
(राज वाल्मीकि का लेख।)
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