30 जनवरी पर विशेष: आज भी जारी है गांधी के खिलाफ चले राजद्रोह के मुकदमे की धारा

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क्या आप जानते हैं कि आजादी से पहले अंग्रेज सरकार ने महात्मा गांधी के खिलाफ आईपीसी की धारा 124-ए के तहत राजद्रोह का आरोप लगाया था।  महात्मा गांधी ने इस धारा को आईपीसी का राजकुमार कहा। गांधीजी ने यह भी कहा कि कानून की कोई भी धारा सरकार के प्रति प्रेम पैदा नहीं कर सकती। गौरतलब है कि इसी धारा के तहत स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, अरविंद घोष आदि स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ मुकदमे चलाए गए थे।

धारा 124-ए के प्रावधान के अनुसार कोई व्यक्ति किसी लिखित या मौखिक माध्यम या किसी प्रतीक के माध्यम से सरकार के खिलाफ लोगों को उकसाने या उसके विरुद्ध घृणा फैलाने का काम करता है तो उसके खिलाफ राजद्रोह के तहत मामला दर्ज किया जा सकता है। इस पर उम्र कैद तक की सजा का प्रावधान है। महात्मा गांधी ने 97 साल पहले यंग इंडिया में कहा था कि जिस धारा (124 ए) के तहत मुझ पर मुकदमा चलाया गया है, वह नागरिकों को दबाने के लिए बनाई गई भारतीय दंड संहिता की धारा में राजकुमार है।

यह धारा शुरू से ही विवादों का कारण रही है। अंग्रेजों ने भारत में स्वतंत्रता की भावना को कुचलने के लिए आईपीसीसी में संशोधन करके राजद्रोह के अपराध को जोड़ा, लेकिन देश आजाद होने के बाद भी इस धारा को खत्म नहीं किया गया।

इलाहाबाद हाईकोर्ट के वरिष्ट अधिवक्ता और बार कौंसिल ऑफ़ उत्तर प्रदेश के सदस्य अमरेन्द्र नाथ सिंह का कहना है कि प्राय: राजद्रोह को संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मध्य प्राय: टकराव देखने को मिलता है। इस विवाद का बड़ा कारण राजद्रोह और देशद्रोह के बीच अंतर को न समझना भी है। दरअसल धारा 124 ए में राष्ट्र या देश शब्द का उल्लेख नहीं हुआ है। सरकार स्वयं में राष्ट्र या राज्य नहीं होती। इसलिए धारा 124 ए सरकार के विरुद्ध घृणा फैलाने को राजद्रोह मानती है, न कि देशद्रोह। विभिन्न आयोग जिनमें विधि आयोग भी शामिल है, इस धारा के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। उल्लेखनीय है कि जो कानून अंग्रेजों ने भारत के लिए बनाया था, उसे वे स्वयं अपने देश ब्रिटेन में  2010 में समाप्त कर चुके हैं।

अमरेन्द्र नाथ सिंह धारा 124 ए पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक निर्णयों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि प्रख्यात लेखिका अरुंधति रॉय, विनायक सेन आदि पर राजद्रोह का मुकदमा चला, लेकिन न्यायिक समीक्षा में टिक नहीं पाया। आखिर में दोनों को अपराधों से मुक्त किया गया। केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा: राजद्रोह तभी माना जा सकता है, जब किसी व्यक्ति की मौखिक, लिखित या अन्य माध्यम से की गई अभिव्यक्ति से हिंसा भड़की हो। 1995 में बलवंत सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “नारे लगाना राजद्रोह नहीं, लेकिन नारे लगाने से कानून व्यवस्था और हिंसा भड़के तो राजद्रोह में कार्रवाई उचित है।उच्चतम  न्यायालय ने 2016 में पुलिस अधिकारियों और ट्रायल जजों को आदेश दिया कि राजद्रोह के मामले में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के फैसले का पालन किया जाए”।

दरअसल भारत में देश विरोधी गतिविधियों रोकने के लिए कई कानून मौजूद हैं। इसमें आतंकवादियों की मदद करना, आतंकवाद फैलाना, देश के विरोध युद्ध जैसी स्थिति पैदा करना जैसे अपराध करने पर गैर कानूनी गतिविधियां 1967 के तहत मुकदमा दर्ज किया जा सकता है। विभिन्न राज्यों के भी अपने कानून हैं। 1971 के राष्ट्रीय प्रतीक अपमान (निवारण) अधिनियम 1971 के तहत भी मुकदमा हो सकता है।

महात्मा गाँधी ने पत्रकारिता भी की थी और अवमानना कर्रवाई का सामना भी किया था तथा माफ़ी मांगने से इनकार कर दिया था। मोहनदास करमचंद गांधी और महादेव हरिभाई देसाई “यंग इंडिया” नामक एक साप्ताहिक समाचार पत्र के संपादक और प्रकाशक थे। अहमदाबाद के ड‌िस्ट्र‌िक्त मजिस्ट्रेट (श्री बीसी कैनेडी) की ओर से बॉम्बे हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को लिखे गए एक पत्र को प्रकाशित करने और उस पत्र के बारे में टिप्पणी प्रकाशित करने के कारण उनके खिलाफ अवमानना कार्रवाई शुरू की गई।

मजिस्ट्रेट कैनेडी द्वारा लिखा गया पत्र अहमदाबाद कोर्ट के वकीलों के बारे में था, जिन्होंने “सत्याग्रह प्रतिज्ञा” पर हस्ताक्षर किए थे और रौलेट एक्ट जैसे कानूनों का पालन करने से सविनय मना किया था। यह पत्र 6 अगस्त 1919 को यंग इंडिया में शीर्षक “O’Dwyerism in Ahmedabad” के साथ प्रकाशित किया गया था। दूसरे पृष्ठ पर आलेख का शीर्षक ” Shaking Civil Resistors” था।

लगभग दो महीने बाद, हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल ने गांधी को 20 अक्टूबर 1919 को चीफ जस्टिस के कक्ष में उपस्थित होने का अनुरोध करते हुए एक पत्र लिखा और उन्हें पत्र के प्रकाशन और उस पर टिप्पणियों के बारे में अपना स्पष्टीकरण देने को कहा। गांधी ने तुरंत तार किया और रजिस्ट्रार जनरल को सूचित किया कि वह पंजाब जा रहे हैं और पूछा कि क्या लिखित स्पष्टीकरण पर्याप्त होगा। रजिस्ट्रार जनरल ने उन्हें जवाब दिया कि चीफ जस्टिस लिखित जवाब के लिए तैयार हैं।

महात्मा गांधी ने तब एक स्पष्टीकरण पत्र भेजा, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्होंने अपने अधिकारों के तहत उक्त पत्र को प्रकाशित किया है और उस पर टिप्पणी की है और यह पत्र साधारण तरीके से उनके पास आया था, और वह ‘निजी’ नहीं था। गांधी ने कहा कि मेरा विनम्र विचार है कि उक्त पत्र को प्रकाशित करना और उस पर टिप्पणी करना, एक पत्रकार के रूप में मेरे अधिकारों के तहत था। मेरा विश्वास था कि पत्र सार्वजनिक महत्व का है और उसने सार्वजनिक आलोचना का आह्वान किया है।

रजिस्ट्रार जनरल ने गांधी को फिर से लिखते हुए कहा कि चीफ जस्टिस ने उनके स्पष्टीकरण को संतोषजनक नहीं पाया। फिर उन्होंने ‘माफी’ का एक प्रारूप दिया और उसे ‘यंग इंडिया’ के अगले अंक में प्रकाशित करने के लिए कहा [प्रारूप नीचे पढ़ा जा सकता है] गांधी ने रजिस्ट्रार जनरल को फिर पत्र लिखा। उन्होंने ‘माफी’ प्रकाशित करने से इनकार करते हुए खेद व्यक्त किया और अपना ‘स्पष्टीकरण’ दोहराया। उन्होंने अपने पत्र में कहा कि माननीय, क्या इस स्पष्टीकरण को पर्याप्त नहीं माना जाना चाहिए, मैं सम्मानपूर्वक उस दंड को भुगतना चाहूंगा जो माननीय मुझे देने की कृपा कर सकते हैं।

इसके बाद, हाईकोर्ट ने गांधी और देसाई को कारण बताओ नोटिस जारी किया। दोनों अदालत में पेश हुए। गांधी ने अदालत को बताया कि उन्होंने जिला जज पर जज के रूप में नहीं, बल्‍कि एक व्यक्ति के रूप में टिप्पणी की थी। अदालत की अवमानना का पूरा कानून यह है कि किसी को कुछ भी नहीं करना चाहिए, या अदालत की कार्यवाही पर टिप्पणी करना, जबकि मामला विचाराधीन हो। हालांकि यहां जिला मजिस्ट्रेट ने निजी स्तर पर कोई कार्य किया था।

उन्होंने यह भी कहा कि इस पत्र पर की गई टिप्पणियों में जज या जजों के खिलाफ मामूली सा भी अनादर नहीं किया गया है। महात्मा गांधी ने अपने बयान में कहा था, “मेरे खिलाफ जारी किए गए अदालत के आदेश के संदर्भ में मेरा कहना है कि आदेश जारी करने से पहले माननीय न्यायालय के रजिस्ट्रार और मेरे बीच कुछ पत्राचार हुआ है। 11 दिसंबर को मैंने रजिस्ट्रार को एक पत्र लिखा था, जिसमें पर्याप्त रूप से मेरे आचरण की व्याख्या की गई थी। इसलिए, मैं उस पत्र की एक प्रति संलग्न कर रहा हूं। मुझे खेद है कि माननीय चीफ जस्टिस द्वारा दी गई सलाह को स्वीकार करना मेरे लिए संभव नहीं है” ।

इसके अलावा, मैं सलाह को स्वीकार करने में असमर्थ हूं क्योंकि मैं यह नहीं समझता कि मैंने मिस्टर कैनेडी के पत्र को प्रकाशित करके या उसके विषय में टिप्पणी करके कोई कानूनी या नैतिक उल्लंघन किया है। मुझे यकीन है कि माननीय न्यायालय मुझे तब तक माफी मांगने को नहीं कहेगा, जब तक कि यह सच्‍ची हो और एक ऐसी कार्रवाई के लिए खेद व्यक्त करती हो, जिसे मैंने एक पत्रकार का विशेषाधिकार और कर्तव्य माना है। मैं इसलिए हर्ष और सम्मान के साथ उस सजा को स्वीकार करूंगा जिसे माननीय न्यायालय कानून की महिमा की पु‌ष्टि के लिए मुझ पर लगाकर खुश होगा।

मैं श्री महादेव देसाई को प्रकाशक के रूप में दिए गए नोटिस के संदर्भ में कहना चाहता हूं कि उन्होंने इसे केवल मेरे अनुरोध और सलाह पर प्रकाशित किया था। देसाई का बयान था कि अदालती आदेश के संदर्भ में, मैं यह बताने की विनती करता हूं कि मैंने यंग इंडिया के संपादक द्वारा दिए गए बयान को पढ़ा है और खुद को उनकी ओर से दिए गए तर्क और उनकी कार्रवाई के औचित्य से संबद्ध किया है। इसलिए मैं सम्मानपूर्वक किसी भी दंड का पालन करूंगा जिसे माननीय न्यायालय मुझे देने की कृपा करेंगे।

जस्टिस मार्टन, हेवार्ड, काजीजी की तीन जजों की पीठ ने अवमानना मामले का फैसला किया। जस्टिस मार्टन ने पत्र के प्रकाशन को अवमानना करार दिया और  गांधी और देसाई को कड़ी फटकार लगाते हुए अवमानना के मामले को बंद करने का फैसला किया और दोनों को उनके भविष्य के आचरण के प्रति आगाह किया।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

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