ग्राउंड रिपोर्ट: कनहर डैम के प्रभावित आदिवासियों का पीछा करती तबाही और मौत

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सोनभद्र। जाते हुए लोग शायद ही किसी को अच्छे लगते हों। लेकिन इन दिनों कनहर बांध के डूब क्षेत्र से हर रोज कोई न कोई अपना घर छोड़ने को मजबूर है, तो कई अपनी गृहस्थी का सामान समेट कर नए ठिकाने की तलाश में हैं। वहीं, सैकड़ों स्थानीय लोग प्रशासन और सरकार के रवैये से गुस्से में हैं। उनका आरोप है कि प्रशासन एनजीटी (राष्ट्रीय हरित पंचाट) के आदेशों का उल्लंघन करते हुए उन्हें जबरन विस्थापित करने के लिए चेतावनी दे रहा है।

लिहाजा, यहां के लोग बांध के भूगोल के कारण अपनी पुश्तैनी जमीन और घर छोड़ने को मजबूर हैं। मूलभूत संसाधानों की कमी और बेरोजगारी के कारण पहाड़ के इन गांवों में आज बस, प्रशासन के फरमान से टूटे लोग और मुरझाए से कुछ चेहरे ही शेष बचे हैं। बांध से लगे ये पहाड़ी गांव विस्थापन के दर्द से कराह रहे हैं।

सदियों से पहाड़ की वादियों में अपने जीवन को ढाल चुके लोगों की उम्मीद दिन-ब-दिन टूटती जा रही है। क्योंकि, विकास बनाम विस्थापन की दौड़ में विस्थापन जीतता नजर आ रहा है। अमवार गांव स्थित कनहर सिंचाई परियोजना के कारण उत्तर प्रदेश के 11, झारखंड के 4 और छत्तीसगढ़ के 6 गांवों में से कुछ आंशिक तो कुछ पूरी तरह से डूब गए हैं।

प्रशासन यहां के लोगों का विस्थापन कराने में जोर-शोर से जुटा हुआ है। डूब प्रभावित आदिवासी परिवारों का कहना है कि जल, जंगल और जमीन उनके लिए और वे इन चीजों के लिए बने हैं। जंगल-माटी से कट कर वे खुशहाल और लंबा जीवन नहीं जी पाएंगे। तीन मार्च, शुक्रवार दोपहर दुद्धी तहसील मुख्यालय से करीब 16 किलोमीटर दूर अमवार क्षेत्र में प्रवेश करते ही लगा जैसे दक्षिण-पश्चिम में घने जंगलों से घिरे और उत्तर-पूर्व में ऊंचे-ऊंचे ठोस पहाड़ों की तलहटी में आ गए हों।

कई सैकड़ों किमी की यात्रा के दौरान लगा कि यह इलाका बेहद शांत है और स्थानीय लोग कृषि से जुड़े छोटे-बड़े कार्यों में लगे हैं। दुद्धी से अमवार तक की तारकोल और गिट्टी से बनी सड़क कई स्थानों पर उखड़ चुकी है। अकूत संसाधन और संपदा पर बसा यह इलाका आधुनिक विकास के कई मानकों से कोसों दूर खड़ा है।

पहाड़ के ढलान और चढ़ाव को पार करके हम अमवार में कनहर बांध पहुंचे। यहां पहुंचने पर हमने देखा कि जंगल से घिरे गांवों की शांति और जीवन के खटराग गायब हो गए हैं। निर्माणाधीन बांध के करीब एक से डेढ़ किमी दूर ही बाड़ से घेराबंदी कर आमजनों को वहां जाने से रोक दिया गया है।

कनहर डैम के पास प्रतिबंधित क्षेत्र

इस बाड़ के अंदर और बांध के पश्चिमी छोर के पास दर्जनों जेसीबी, बुलडोजर, पोकलेन और सैकड़ों डंपर, ट्रैक्टर-ट्रॉली के साइलेंसर गरज रहे है। जिसके कारण वातावरण में धूल का गुब्बार छाया हुआ है। बांध के ठीक सामने एक छोटा सा मंदिर है, और मंदिर से लगा पीएससी की एक टुकड़ी का कैंप। पीएससी के जवान बांध के आसपास जाने वालों पर नजर रख रहे थे। माहौल में जल्दीबाजी थी। सभी अपने काम को निपटाने में लगे हुए थे।

जानकारी के अनुसार, इसी साल जून तक सोनभद्र के अमवार गांव में कनहर नदी पर 43 वर्षों से बन रहा कनहर डैम बनकर तैयार हो जाएगा। इसके बाद तीनों राज्यों के सिन्दूरी, भिसूर गांव सहित 21 गांव डूब जाएंगे। उत्तर प्रदेश सरकार जून, 2023 तक कनहर बांध के लिए अंतिम डेट लाइन जारी कर चुकी है।

इसको लेकर कनहर बांध से विस्थापित होने वाले लोगों में काफी आक्रोश है। डूब प्रभावित सैकड़ों आदिवासी परिवारों का कहना है कि उन्हें अब तक मुआवजा नहीं मिला है। इनमें से कुछ को मुआवजा मिला भी है तो कई दशक पहले, जो अब खर्च हो गया है। ये लोग अपने जमीन और घर का भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 के तहत मुआवजे की मांग कर रहे हैं।

क्षेत्रफल की दृष्टि से यूपी का दूसरा सबसे बड़ा जनपद सोनभद्र (6788 वर्ग किमी) में बने रहे कनहर बांध के आसपास स्थानीय लोगों की मौजूदगी बहुत कम थी। छत्तीसगढ़, झारखंड और सोनभद्र के नगरीय इलाकों से कुछ लोग सैर-सपाटे पर जरूर आये हुए थे। हालांकि गांव वालों का कहना था कि यहां पहले बहुत ज़्यादा शोर-गुल नहीं था, जितना अब हो रहा है।

डैम के पास का क्षेत्र

दुद्धी तहसील और बांध के पास सीमावर्ती इलाकों में गोंड, भुइयां, खरवार, अगरिया, चेरो, बैगा, उरांव और कोरबा आदिवासी और जनजातियों के लोग सदियों से रहते आ रहे हैं। बांध के निर्माण का कार्य दिन-रात चल रहा है। धीरे-धीरे बांध में पानी भी भरा जा रहा है। दुद्धी एसडीएम ने 15 दिनों के अंदर डूब क्षेत्र को खाली करने का फरमान जारी कर दिया है। दशकों से विस्थापन की मार झेल रहे उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में अब एक और विस्थापन होने जा रहा है।

सवाल जीवन और रोटी का

कनहर बांध से लगे अमवार गांव में पांच बीघे जमीन पर खेती करने वाले 28 वर्ष के रामेश्वर के परिवार पर भी विस्थापन का संकट आ पड़ा है। वे ‘जनचौक’ को बताते हैं कि ‘हमारा 20 लोगों का परिवार है। इस जमीन पर पचास साल से अधिक समय से रहते आ रहे हैं। बांध प्रशासन ने उनके पिता को आठवें दशक में मुआवजा दिया था, लेकिन वह समय कुछ और था।‘

‘आज दुनिया कहां से कहां जा पहुंची है, और हिसाब-किताब बढ़ गया है। हम आदिवासी लोग प्रशासन से भूमि अधिग्रहण कानून-2013 के तहत मुआवजा चाहते हैं। इसके बगैर हमलोग यहां से हटने वाले नहीं है। हमारा इतना बड़ा परिवार है, हम लोग जंगल में कहां जाएंगे? क्या खाएंगे और कैसे जियेंगे?’

रामेश्वर और उसका परिवार

‘कनहर बांध की पश्चिमी दीवार मेरे खेत से सटकर बन रही है। बांध की दीवार पर गरज रहे जेसीबी और डंपर से मेरे परिवार का हर व्यक्ति सहमा हुआ है। जब से बांध का काम तेज हुआ है, तब से कई बार अधिकारी मेरे घर आ चुके हैं और यह जगह छोड़कर कहीं और जाने को कह रहे हैं। बिना किसी मानक और गारंटी के हम कहां चले जाएं?’

’यहां के अलावा और कहीं न तो मेरा घर है और न ही जमीनें। हर दस दिन पर कचहरी और तहसील तक भागदौड़ करनी पड़ रही है। स्थानीय प्रशासन हमलोगों को मीठी गोली दे रहा है, और यहां हमारा जीवन दांव पर लगा हुआ है।”

बर्बाद हो जाएंगे आदिवासियों के कुनबे

रामेश्वर के भाई 32 वर्षीय राजकेश्वर ने बताया कि ‘बांध तैयार हो जाएगा तो हटना ही पड़ेगा। प्रशासन कह रहा है कि मुआवजे की सूची में नाम नहीं है, तो आपको मुआवजा नहीं मिलेगा। हमारे जैसे भोले-भाले आदिवासियों को लगातार गुमराह किया जा रहा है। कुछ समझ नहीं पा रहे हैं, क्या किया जाए?’

‘हम लोग गरीब आदमी हैं। उतना पैसा भी नहीं है कि हमलोग कहीं और जमीन खरीद कर हट जाएं। हम बहुत मुश्किल की घड़ी में हैं। सरकार को हमारे जीवन पर पड़ने वाले विस्थापन के असर को महसूस करना चाहिए। नहीं तो, हमारे जैसे कई आदिवासी परिवारों का जीवन बर्बाद हो जाएगा।‘

पुरखों की विरासत छोड़ प्लॉट में कैसे चले जाएं?

ग्राम सुगवां के निवासी सुरेंद्र के दादा को आठवें दशक में जमीन का मुआवजा मिला था। इस बार यानी साल 2023 में सुरेंद्र को अपने घर का मुआवजा सात लाख रुपए मिला है। वे कहते हैं कि ‘सात लाख रुपए से कैसा घर बनेगा? कहां बनेगा? पानी, शौचालय, किचन, बरामदा आदि की व्यवस्था इतने रुपयों से कैसे हो पाएगी?’

ग्राम सुगवां के निवासी सुरेंद्र

स्थानीय निवासी 50 वर्षीय राजकुमारी भी सुरेंद्र की बातों से सहमत हैं। वे कहती हैं ‘आधी-अधूरी तैयारी कर पुनर्वास योजना में आवास मिला है, लेकिन वह रहने लायक नहीं है। अधिकारी कहते हैं कि बांध में पानी भरा जा रहा है। तुमलोग अपनी फसल काटकर यह जगह छोड़कर चले जाओ।‘

‘हमारे गांव के कुछ लोगों को पुनर्वास के तहत कॉलोनी में प्लाट मिला है। उसी में घर बनाकर रहना है। गांव वाले अपने खेत-खलिहान और पुरखों के घर को छोड़कर कैसे एक छोटी सी जगह में रह पाएंगे? यहां से विस्थापित होने के बाद समझिये कि हमारे हसंते-गाते जीवन का संगीत कहीं गुम सा हो जाएगा। जिसकी आहट अभी से दिल पर मन भर बोझ बनी हुई है।‘

कहां रुका है मुआवजा

कोरची के आदिवासी राम अवतार का मकान और चार बीघा खेत भी डूब जायेगा। मुआवजे की लिस्ट में उनका और उनके एक बेटे का नाम है, लेकिन अबतक उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिल पाया है। राम अवतार कहते हैं कि ‘सरकार को हमें मुआवजा देना ही है तो भूमि अधिग्रहण-2013 के तहत मुआवजा दे। जंगलों और पहाड़ों में हमलोगों का जीवन वैसे ही कठिन और परेशानियों भरा हुआ है।‘

‘अब विस्थापन की मार से हमारा जीवन हाशिये पर आ जाएगा। ले दे के मिट्टी का कच्चा घर और कुछ टूटे-फूटे गृहस्थी के सामान बचे हैं। कुछ समझ नहीं आ रहा कहां जाएं, क्या करें?’ राम अवतार आगे कहते हैं कि ‘मैं यहां अपने दादा-पुरखों के ज़माने से रहता आ रहा हूं। सरकार हमें मुआवजा दे रही है तो मिल क्यों नहीं रहा है?’

कोरची गांव में पांच बीघे जमीन पर खेती कर परिवार पालने वाले शिव प्रसाद को बिना मुआवजा दिए ही घर और जमीनें छोड़ने के लिए कहा जा रहा है। मुआवजे की सूची में न तो शिव प्रसाद का नाम है और न ही इनके परिवार के किसी सदस्य का।

वे बताते हैं कि ‘मेरे चार बेटे हैं, किसी को मुआवजा नहीं मिला है। प्रशासन हमें उचित मुआवजा दे और पलायन का बेहतर माहौल दे। वरना मैं बांध के पानी में डूबकर मर जाऊंगा।‘ कोरची, अमवार के अलावा भीसुर और सिंदूरी गांव भी बांध के डूब क्षेत्र में आ रहे हैं।

सोनभद्र के अमवार गांव में कनहर नदी के कनहर बांध, 27 करोड़ की परियोजना 27 सौ करोड़ रुपए की लागत को पार कर चुकी है। परेशानी इस बात कि है कि सातवें-आठवें दशक में बांध के डूब से प्रभावित कुल 1400 परिवारों को मुआवजा दिया गया था। लेकिन आज प्रभावित परिवारों की संख्या 5000 से अधिक हो गई है।

बिखर जाएंगे हमलोग

डूब प्रभावित 48 वर्षीय आदिवासी सुशीला भुइंया शाम के खाने की तैयारी में जुटी थी। घास के छप्पर और मिट्टी का बना घर लकड़ी की चचरी से घेरकर जंगली जानवरों से सुरक्षित किया हुआ लगता है। उनके मकान के बगल से एक कच्चा रास्ता गुजरता है, जिससे शाम ढलने के साथ कुछ मवेशी और ग्रामीण अपने घरों को साइकिल से और पैदल जा रहे थे।

कुछ दूर छिटपुट पहाड़ और जंगलों में घर बने हुए हैं, जिनके दरवाजे और ओसारे में बिजली की लाइटें टिमटिमा रही हैं। वह बताती है कि ‘मेरे तीन बेटे हैं, सभी कमाने परदेश गए हुए हैं। कुछ दिन पहले बांध के अधिकारी आये हुए थे और मकान छोड़कर कहीं और जाने के लिए कह रहे थे। हमलोगों को अबतक मुआवजा नहीं मिल सका है। मेरे ससुर को मिला था, लेकिन हमलोग तो दशकों से अलग रह रहे हैं।‘

कच्चे मकान के घर में सुशीला भुईंया

‘अधिकारी कहते हैं कि दस दिन में जगह खाली करके चली जाओ। मैं कहना चाहूंगी कि सरकार जिनको मुआवजा दिया है, उनको पहले छोड़कर जाने को कहे। हमें कुछ दिया ही नहीं है तो हम कैसे अपने विरासत को छोड़ दें। हम आखिर जाएंगे कहां? सरकार हमें जगह देगी, तभी तो हम जाकर रहेंगे। हमलोग गरीब आदमी हैं। हमारे लिए जो है यही है। विस्थापित होने के बाद आदिवासी समाज और परिवार टुकड़ों-टुकड़ों में बंट जाएगा, बिखर जाएगा।‘

कब शुरू हुई परियोजना और क्या है बजट

तत्कालीन कांग्रेस सरकार में मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने कनहर बांध परियोजना को जमीन पर उतारने की योजना तैयार की थी। कनहर डैम के निर्माण के लिए 1976 से लेकर 1982 तक ग्रामीणों के जमीनों का अधिग्रहण किया गया। लोगों को उसका मुआवजा भी दिया था। सन 1984 में बांध का काम बंद हो गया।

सरकार बदली तो परियोजना का बजट भी बढ़ गया। बीएसपी की मायावती सरकार में 27 करोड़ रुपये की परियोजना की लागत बढ़कर 950 करोड़ रुपये कर दी गयी और काम शुरू कर दिया गया। इस बार भी बजट के अभाव में काम बंद हो गया।

2012-13 में समाजवादी पार्टी के शासन में तत्कालीन सिचाई मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने परियोजना की लागत 23 सौ करोड़ रुपये कर दी और खुद कनहर आकर परियोजना की शुरुआत करा दी। अब बीजेपी के शासनकाल में इसकी लागत 33 सौ करोड़ रुपये के पार जा रही है। इस दौरान कई सरकारें आईं और चली गईं, लेकिन नहीं गई तो वह है विस्थापितों का समस्या।

जो इसके पात्न नहीं हैं: एसडीएम

इन सबके बीच बांध का कार्य दिन-रात चल रहा है। धीरे-धीरे बांध में पानी भी भरा जा रहा है। एसडीएम ने 15 दिनों के अंदर डूब क्षेत्र को खाली करने का फरमान भी जारी कर दिया है। इधर, विस्थापित लोगों का कहना है कि जो सरकार मुआवजा दे रही है, वह पर्याप्त नहीं है।

इसके अलावा बहुत सारे विस्थापित, सूची में अपना नाम नहीं होने के कारण गुस्सा हैं। दुद्धी उप-जिलाधिकारी शैलेश मिश्रा का कहना है कि ‘सिंचाई के पानी के लिए परियोजना पूरी हो रही है। इस ग्रुप में जो भी गांव हैं, उन्हें खाली करना पड़ेगा। बांध का काम पूरा हो रहा है, जो लोग मुआवजे के इलिजिबल हैं, उन्हें शासन की मंशा के अनुरूप ही मुआवजा दिया जाएगा। जो इसके इलिजिबल नहीं हैं, उनके लिए जो शासन के निर्देश होंगे उसी के तहत व्यवस्था की जाएगी।‘

सिंचाई मंत्री के वादे में कितना दम

कनहर बांध के निर्माण और उपयोगिता के संबंध में सिंचाई मंत्री स्वतंत्र देव सिंह ने कहा था कि ‘कनहर बांध परियोजना का काम 30 जून तक पूरा हो जाएगा। इसके लिए दिन-रात काम चालू है। इस परियोजना से दो लाख परिवारों को पानी मिलेगा। दुध्दी और रॉबर्ट्सगंज तहसीलों के 200 से अधिक गांवों की 27 हजार एकड़ जमीन को सिंचाई की सुविधा मिलेगी।

कनहर सिंचाई परियोजना

‘इस क्षेत्र का भूगर्भ जल स्तर भी बढ़ेगा। यहां पर जो लोग विस्थापित हो रहे हैं, उन्हें पूरी तरह से मुआवजा दिया जाएगा। आवास भी बनाकर दिया जाएगा। इतना ही नहीं, जो मुआवजे से वंचित हैं, सरकार उनपर भी ध्यान देगी। सरकार कोई न कोई हल निकालेगी।‘

विस्थापितों का आक्रोश

डूब प्रभावित ग्रामीणों का प्रतिनिधित्व कर रहे कोरची गांव के पूर्व प्रधान गंभीरा प्रसाद ने बताया कि ‘हमलोगों को 30 अक्टूबर 2014 में कहा गया था कि तीन पीढ़ी तक पैकेज का लाभ दिया जाएगा। तीन पीढ़ी के बाद शेष आपलोग कोर्ट से समझते रहिएगा। लेकिन तीन पीढ़ी के तकरीबन पांच हजार से अधिक लोग ग्यारह ग्रामसभा में सर्वे से छूटे हुए हैं।‘

‘शासन-प्रशासन जल्द से जल्द इनका भी सर्वे कर मुआवजा और आवासीय भूमि देने का प्रबंध करे।‘ बहरहाल, सरकारी आंकड़ों के अनुसार अब तक 3729 परिवारों में से 3720 परिवारों को मुआवजा दिया जा चुका है, तकरीबन 2500 परिवारों को आवासीय प्लॉट भी दिए गए हैं। जबकि, डूब प्रभावित गांवों में ग्रामीणों की तादात बहुत अधिक है। इन्हें अब भी राहत और पुनर्वास की जरूरत है।

मानकों की अनदेखी

पत्रकार राजीव कुमार सिंह कहते हैं कि ‘किसी भी देश का पहाड़ी भू-भाग उसके पर्यावरण के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। और विशेष तौर पर सोनभद्र जैसा जनपद। जिसके आर्थिक और सांस्कृतिक महत्त्व के कहने ही क्या। जहां कई छोटी-बड़ी नदियां, बेशकीमती जंगल, चट्टान और अकूत वन संपदा का विस्तार है।‘

‘कनहर बांध के डूब क्षेत्र से होने वाले पलायन से अलग तरह का डरावना दृश्य दिख रहा है। ये गांव भुतहा स्पॉटों के रूप में पहचाने जाने लगेंगे। गांवों से भागते लोगों की दुखी आंखों में निराशा होती है, दर्द होता है और साथ ही अनेक सवाल होते हैं, उस क्षेत्र के विकास को लेकर, जिसको उन्होंने अपनी ताजी आंखों से देखा तक नहीं है।‘

‘मौजूदा वक्त में पंचायती राजव्यवस्था जो जितनी ताकत संविधान में दी गई है, वह हकीकत में परिणीत होती नहीं दिख रही है। पलायन और विस्थापन को लेकर स्थानीय प्रशासन द्वारा महज खानापूर्ति की जा रही है। यही वजह है कि प्रभावित लोग, बांध और स्थानीय प्रशासन पर राष्टीय हरित पंचाट के मानकों के अनदेखी का आरोप लगा रहे हैं।‘

(छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित अमवार (सोनभद्र) से पवन कुमार मौर्य की ग्राउंड रिपोर्ट।)

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