Wednesday, April 24, 2024

जमानत पर छूटे पत्रकार ने कहा, सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ लिखना सबसे बड़ा जुर्म!

जुझारू, निर्भीक और स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह को पिछली चार जून 2019 को अपहरण के बाद छह जून को गिरफ्तारी दिखाकर छ: महीने तक जेल में रखा गया। रूपेश कुमार सिंह का अपराध बस इतना ही था कि वे सरकार की जन विरोधी नीतियों का विरोध अपने धारदार लेखन के माध्यम से किया करते थे। इस बात की स्वीकारोक्ति बिहार पुलिस ने भी उनके खिलाफ दर्ज की गई एफआईआर में की है।

बता दें कि रूपेश कुमार सिंह के खिलाफ 3/4 विस्फोटक अधिनियम की धाराओं के तहत धारा 414, 120 बी सहित यूएपीए की संगीन धाराओं के बाद भी पुलिस छह महीने तक अपना अंतिम प्रतिवेदन अदालत को सुपुर्द नहीं कर सकी। अत: 5 दिसंबर को एसीजेएम शेरघाटी (बिहार) की अदालत ने उन्हें और मिथिलेश कुमार सिंह को जमानत पर रिहा कर दिया। जेल से आने के बाद उन्होंने अपनी गिरफ्तारी से लेकर जेल में छ: महीने तक के अपने सारे अनुभव को मीडिया से साझा किया।

उल्लेखनीय है कि रूपेश कुमार सिंह के साथ उनके एक वकील रिश्तेदार मिथिलेश कुमार सिंह और एक ड्राइवर मु. कलाम को भी गिरफ्तार किया गया था। कलाम को आठ नवंबर को ही हाईकोर्ट से जमानत मिल गई, मगर उन्हें 22 नवंबर को रिहा किया गया। वहीं पांच दिसंबर को जमानत होने के बाद छह दिसंबर को रूपेश कुमार सिंह और मिथिलेश कुमार सिंह को जेल से रिहा किया गया।

चार जून को रूपेश कुमार सिंह रामगढ़ से अपने एक रिश्तेदार मिथिलेश कुमार सिंह के साथ उनके पैतृक गांव औरंगाबाद के लिए सुबह आठ बजे एक भाड़े की स्विफ्ट डिजायर कार से निकले थे। इसे मु. कलाम नाम का ड्राइवर चला रहा था। लगभग नौ बजे हजारीबाग के पद्मा में ये लोग लघुशंका के लिए उतरे। तभी दो मोटरसाइकिल और एक बुलेरो आकर रुकी। ये लोग कुछ समझते कि सभी आगंतुकों ने इन्हें दबोच लिया। रूपेश सिंह को बुलेरो में और उन दोनों को स्विफ्ट डिजायर कार में ही डाल लिया। इनकी आंखों पर पट्टी और हाथों में हथकड़ी डाल दी गई। घटना के बारे में रूपेश कुमार सिंह बताते हैं कि वे लोग उन्हें अगवा करके ले जा रहे थे। रास्ते भर वे लोग रूपेश को माओवादी नेता बताते रहे और वे इनकार करते रहे। फिर इन्हें गया जिले के बाराचट्टी थाना के बरवाडीह स्थित कोबरा 205 बटालियन कैंप में ले जाया गया।

यहां रूपेश को रात भर सोने नहीं दिया गया। इस बीच वह लोग बार-बार उनसे माओवादी होने की स्वीकारोक्ति कराने की कोशिश कर रहे थे। यह भी कहा जाता रहा कि आप आदिवासियों की समस्याओं पर क्यों लिखते हैं? आप सरकार के विरोध में क्यों लिखते हैं? आप पत्रकार हैं तो सरकार की उपलब्धियों पर लिखना चाहिए। रूपेश बताते हैं कि उन्हें कई तरह का लालच दिया गया। धमकी दी गई। कहा गया कि आपको मारकर फेंक दिया जाएगा। आप के घर वालों को पता भी नहीं चलेगा। आपके मोबाइल का लोकेशन झारखंड का है।

किसी धमकी और लालच का प्रभाव रूपेश कुमार सिंह पर जब नहीं हुआ तो अंतत: छह जून को गया डीएसपी रवीश कुमार ने इनकी गाड़ी में जिलेटिन और डेटोनेटर रख कर धारा 3/4 विस्फोटक अधिनियम के तहत धारा 414, 120बी के साथ यूएपीए की बहुत सी संगीन धाराएं इनके ऊपर लगा दी गईं। गाड़ी में जिलेटिन और डेटोनेटर रखे जाने का जब रूपेश कुमार ने विरोध किया तो डीएसपी रवीश कुमार ने साफ कहा कि आपके पास से कुछ मिला नहीं और हमें केस भी बनाना है तो कुछ तो करना पड़ेगा। इस तरह इन पर फर्जी मामला बनाकर जेल भेज दिया गया।

जेल से आने के बाद रूपेश कुमार सिंह ने अपनी गिरफ्तारी से लेकर जेल में छ: महीने तक के अपने सारे अनुभव मीडिया से साझा किए। जेल जाने के कारणों पर रूपेश कुमार बताते हैं कि वे झारखंड में 2014 से ही पत्रकारिता करते रहे हैं। वे यहां के आदिवासियों, मजदूरों, किसानों के सवाल पर, यहां की पुलिस की कार्य शैली पर, कि वे किस तरह से सत्ता के इशारे पर आदिवासियों पर दमनात्मक कार्यवाई करते रहे हैं, सवाल उठाते रहे हैं। माओवादियों को खत्म करने के नाम पर किस तरह पुलिस द्वारा उग्रवादी संगठनों को बनाया गया और उसे प्रशासनिक संरक्षण दिया गया। जैसे जेजेएमपी, टीपीसी वगैरह का भी उन्होंने अपने लेखन से भंडाफोड़ किया था।

रूपेश मानते हैं कि वे सत्ता के खिलाफ लिखते रहे हैं, इसी कारण उन्हें निशाने पर लिया गया और अवैध तरीके से गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।

रूपेश बताते हैं कि जेल के भीतर की दुनिया और बाहर की दुनिया में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। इसमें बस इतना ही अंतर है कि जो भ्रष्टाचार बाहर छुपे तरीके से हैं, उसे जेल के अंदर खुली आंखों से देखा जा सकता है। हम देख सकते हैं कि पुलिस का व्यवहार कैसा रहता है? यहां चिकित्सा की हालत यह है कि जो दवा बुखार में दी जाती है, वही दवा सर दर्द में, पैर दर्द में भी दी जाती है। जेल के अंदर में सेल और बैरक की स्थिति तो बहुत ही खराब है। वे कहते हैं कि जब उन्हें गया सेंट्रल जेल भेजा गया था, वहां उन्हें अंडा सेल में ही बंद किया गया था। 19 नंबर सेल में।

इसकी छत के अस्सी प्रतिशत हिस्से से पानी रिसता था। इसकी शिकायत के बाद भी दूसरी जगह नहीं दी गई। मगर जब मीडिया ने इसकी गंभीरता पर सवाल उठाए तब जाकर दूसरी जगह शिफ्ट किया गया। यहां पहले से थोड़ी स्थिति बेहतर थी।

रूपेश बताते हैं कि एक पत्रकार होने के नाते सारे बंदी मेरे लिए एक केस थे। एक स्टोरी थे। मैंने उनसे बातें की। मेरे प्रति सारे बंदियों का व्यवहार बहुत ही अच्छा था। जब शेर घाटी जेल में सात जून से 23 सितंबर तक रहा, तो लोगों ने मुझ पर भरोसा किया और मेरे नेतृत्व में वहां पर अनशन भी हुआ। सरकार की तरफ से 180-185 रुपये एक बंदी पर डाइट के लिए आता है, लेकिन वहां जो खाना मिलता है, उसे देखकर ही कहा जा सकता है कि 50-60 रूपये से अधिक का खाना नहीं है।

जहां तक कोर्ट में पेशी की बात है तो मुझे कोर्ट में पेश किया ही नहीं गया। जब मुझे अरेस्ट किया गया, उस दिन कोर्ट बंद था तो मुझे एसीजीएम के आवास पर ही रिमांड पर लिया गया। साइन कराया गया और उसके बाद कभी भी कोर्ट नहीं ले जाया गया। जेल जाने के एक महीने बाद मेरी वीडियो कांफ्रेंसिंग हुई थी। वह भी जब मैंने सवाल किया कि मुझे क्यों कोर्ट में पेश नहीं किया जा रहा है? ऐसे में आप समझ सकते हैं कि यहां कोई नियम नहीं है कि 14 दिन के अंदर आपको कोर्ट में पेश करना है, बस मनमानापन है।

शेरघाटी उपकारा में तो 25 सितंबर तक चार बार वीडियो कांफ्रेंसिंग हुई थी, लेकिन गया सेंट्रल जेल में मैं दो महीने रहा, वहां एक बार भी विडियो कांफ्रेंसिंग नहीं हुई। बंदियों की हालत भी जेल में बदतर ही है। जिनके पास पैसा है, उनके पास सारी सुविधाएं हैं। वे एंड्रायड मोबाइल भी चला सकते हैं। अपना चूल्हा जलाते हैं। जो गरीब हैं वे आम बंदियों के लिए जो घटिया खाना मिलता है, वही खाते हैं।

मैं दो जेलों में रहा और दोनों जेलों में मैंने देखा कि लोग अपना-अपना चूल्हा जलाते हैं। कुछ लोगों के लिए बाहर से सब्जी वगैरह आती है। शेर घाटी जेल में तो पुस्तकालय भी नहीं था। मैं बाहर से पुस्तक मंगवाता था। कई बार जेलर द्वारा किताब पहुंचाने में अड़ंगा भी लगाया जाता था। गया जेल में लाइब्रेरी की सुविधा थी। वहां वालीबाल-क्रिकेट भी होता था।

शेरघाटी जेल में निरक्षर लोगों को पढ़ाने की एक शुरुआत हुई थी। यह जानकर मुझे काफी खुशी हुई थी। पहले दिन तीस विद्यार्थी का बैच बना, पर आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि उन तीस में बहुत सारे पढ़े-लिखे लोगों का नाम शामिल हो गया और जो निरक्षर थे, उनका नाम ही शामिल नहीं हुआ। जब वे पढ़ने गए, तो कई मैट्रिक पास थे उन्हें भी एक घंटा क, ख ग पढ़ाया गया और दूसरे दिन से पढ़ाई बंद हो गई। मैंने जब मास्टर से पूछा, जो एक बंदी ही था तो उन्होंने कहा, ‘भइया एक महीने का साइन करवा लिया है कि पढ़ाई हुई।’ यह है वहां की हालत। वहां पढ़ाई के नाम पर खानापूरी ही होती है। ऊपर से पैसा आता है और वह ऐसे ही यूज होता है।

रूपेश कुमार सिंह बताते हैं कि शेरघाटी जेल में जेल प्रशासन के मनमानेपन और बंदियों के साथ हो रहे दुव्यर्वहार के खिलाफ आठ सूत्री मांगों को लेकर मेरे नेतृत्व में हड़ताल हुई, जो सफल रही थी। 

जेल मैनुअल के साथ सभी बंदियों को खाना, नाश्ता और चाय तथा पाकशाला में जेल मैनुअल टांगा जाए। जेल अस्पताल में 24 घंटे डॉक्टर की उपस्थिति सुनिश्चित किया जाए। मुलाकाती से पैसा लेना बंद किया जाए और मुलाकाती कक्ष में पंखा और लाइट सुनिश्चित की जाए। बंदियों को अपने परिजनों और वकील से बात करने के लिए STD चालू करवाई जाए। शौचालय के सभी नल और गेट ठीक करवाए जाएं। मच्छरों से बचाव के लिए सप्ताह में एक बार मच्छर मारने की दवा का छिड़काव किया जाए। बंदियों पर जेल प्रशासन द्वारा लाठी चलाना और थप्पड़ मारना बंद किया जाए। हरेक वार्ड में इमरजेंसी लाइट की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। यह आठ मांगें रखी गई थीं।

रूपेश कहते हैं कि अभी पत्रकारिता बहुत बुरे दौर से गुजर रही है। आपको सिर्फ सरकार के पक्ष में लिखना है। अगर हम चाहते हैं कि पत्रकारिता उस रूप में मौजूद रहे तो हमें पत्रकारिता की साख को मजबूत करना होगा और सत्ता से बिना डरे, सत्ता की जनविरोधी नीतियों का पर्दाफाश करना होगा। उन्होंने कहा कि मुझे गर्व होता है कि सत्ता ने मुझे मेरे लेखों से डर कर जेल भेजा। आज के समय में जो पत्रकार सत्ता के निशाने पर हैं, असल में वही पत्रकार हैं। यही पत्रकार होने की चुनौती है।

रूपेश मानते हैं कि अदिवासी अपने अधिकार के प्रति सजग हों। जल-जंगल-जमीन के प्रति उठ खड़े हों। जिस दिन वे उठ खड़े होंगे, अपनी जंगल-जमीन को बचा लेंगे। जिस दिन वे संघर्ष का रासता छोड़ देंगे उसी दिन अमरीका के रेड इंडियन की तरह एक म्यूजियम में रखने वाली वस्तु की तरह हो जाएंगे। इसलिए हमारे देश में आदिवासी तभी तक जिंदा हैं, जब तक उनका संघर्ष जिंदा है।

(रांची से जनचौक संवाददाता विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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