झारखंड में कुर्मी-कुड़मी व आदिवासी आमने सामने, अनुसूचित जनजाति में आरक्षण की मांग पर बवाल

Estimated read time 3 min read

झारखंड में 2019 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की बहुमत हासिल होने और एनडीए सरकार के मुख्यमंत्री रहे रघुवर दास की करारी हार के बाद हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री बने, तब से हेमंत कई राजनीतिक संकट से गुजर चुके हैं। 2022 के शुरूआत में सरकारी नौकरियों के लिए होने वाली परीक्षाओं में क्षेत्रीय भाषा के रूप में भोजपुरी, मगही, मैथिल को शामिल करने का विरोध शुरू हुआ। इस भाषा विवाद को लेकर झारखंड के कई क्षेत्र आन्दोलित रहे। जो काफी लंबा चला, जैसे ही भाषा विवाद का मामला शांत हुआ कि हेमंत सरकार की कैबिनेट ने स्थानीय निवासी की परिभाषा, पहचान और झारखंड के स्थानीय व्यक्तियों के सामाजिक एवं अन्य लाभों के लिए विधेयक-2022 लाने का निर्णय लिया। जिसमें 1932 को आधार मानकर स्थानीयता को लागू करने की बात की गई। उसके बाद 1932 के सर्वे के आधार पर राज्य में कई सवाल खड़े हो गए। राज्य के आदिवासी समुदाय के ही कई लोगों ने इसका जमकर विरोध किया। वहीं कई लोग इसके पक्ष में खड़े नजर आए।

1932 को लेकर कई विसंगतियों पर जमकर चर्चा हो ही रही थी कि कुड़मी (झारखंड का कुरमी समुदाय खुद को कुड़मी बताता है) समुदाय अपने को आदिवासी बताते हुए एसटी में शामिल करने को लेकर आन्दोलन शुरू कर दिया। आदिवासी का दर्जा देने की मांग को लेकर कुड़मी समाज के संगठनों ने झारखंड समेत बंगाल और ओडिशा में रेल रोको आंदोलन चलाया। 20 सितंबर 2022 से इन 3 प्रदेशों में यह आंदोलन पांच दिनों तक चला। इस आंदोलन की वजह से हाइवे और रेलवे ट्रैक पर भी असर पड़ा था। आंदोलन कर रहे समाज के लोग हाइवे और रेलवे ट्रैक पर ही बैठे रहे, जिसके कारण परिचालन पूरी तरह ठप हो गया था। परिणामः कई ट्रेने रद्द हुईं, तो कई ट्रेनों का परिचालन के समय में भी बदलाव किया गया।

इसकी जोरदार प्रतिक्रिया आदिवासी संगठनों में देखने को मिल रही है और वे कुड़मी संगठनों द्वारा आदिवासी का दर्जा देने की मांग का हर स्तर पर विरोध कर रहे हैं। दोनों समुदाय अपने-अपने तर्क और इतिहास की पृष्ठभूमि पर चर्चा करते हुए विरोध व समर्थन कर रहे हैं। अगर यह विरोध आगे बढ़ता है तो आदिवासी और कुड़मी संगठनों में टकराव की संभावना से इंकार नहीं किया सकता है।

बताना जरूरी हो जाता है कि गत 27 सितंबर को विभिन्न आदिवासी संगठनों ने रांची के मोरहाबादी के बापू वाटिका मैदान में कुड़मी संगठनों की मांग के खिलाफ एक दिवसीय उपवास एवं धरना कार्यक्रम आयोजित किया। आदिवासी अधिकार रक्षा मंच के तले हुए कार्यक्रम में 50 से अधिक आदिवासी संगठनों की भागीदारी हुई। मंच ने सीधे तौर पर कुड़मियों की मांग को आदिवासियों पर कुठाराघात बताया।

इन संगठनों का यह भी मानना है कि यह राजनीतिक षड्यंत्र का हिस्सा है। पांच दिनों तक रेल को रोका जाना और देश के राजस्व को करोड़ों की क्षति पहुंचाने के बावजूद रेल मंत्रालय और रेल प्रशासन की तरफ से कोई कार्रवाई नहीं की गई। निश्चित रूप से यह आदिवासियों को संवैधानिक रूप से खत्म करने की साजिश है।

उक्त कार्यक्रम में कहा गया कि कुड़मी समुदाय हिंदू समाज का हिस्सा है और ये किसी भी रूप से आदिवासी से सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक एवं वैचारिक तौर पर मेल नहीं खाता है। इनका रहन-सहन, रीति रिवाज, धर्म-संस्कृति, परंपरा और सभ्यता आदिवासियों से बिल्कुल भिन्न है।

उनकी पृष्ठभूमि और इनका इतिहास आदिवासियों से बिल्कुल अलग रहा है और यह अलग-अलग राज्यों में आरक्षण के आधार पर अलग-अलग जातीयता की मांग करते हैं जो पूरी तरह से असंवैधानिक है। यह केंद्र में सत्तासीन भाजपा शासित द्वारा प्रायोजित आंदोलन है, जिसे किसी भी स्थिति में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इसकी पहल झारखंड में की जा चुकी है और आने वाले दिनों में देशभर में आंदोलन किया जाएगा। सभी राजनीतिक नेताओं, विधायकों और सांसदों को सीधे तौर पर चेतावनी दी गई है कि वह कोई भी असंवैधानिक पहल ना करें, जिससे आदिवासी समुदाय को क्षति हो अन्यथा आदिवासी समुदाय सड़क पर उतरकर विरोध दर्ज कराएगा।

कहा गया कि झारखंड, बंगाल और ओड़िशा में सत्ता में बैठे दल कुड़मियों को भड़का रहे हैं। जब बड़ी आबादी वाले लोग आदिवासी बन जाएंगे तो मूल आदिवासियों का हक मारा जाएगा।

वहीं कुड़मी को एसटी में शामिल करने लेकर आन्दोलन कर रहे लोगों का मानना है कि कुड़मी किसी वेद शास्त्र से संचालित नहीं होते बल्कि कड़मियों का जनजातियों की तरह अपनी रूढ़ि परम्परा है, स्वशासन व्यवस्था है।

कुड़मियों का अन्य समुदायों के साथ पारिवारिक एवं वैवाहिक सम्बन्ध पूर्णत वर्जित हैl वर्तमान समय में कुड़मियों की आबादी झारखण्ड की कुल आबादी का लगभग 24 प्रतिशत है, परन्तु सरकारी नौकरियों और सरकारी योजनाओं में भागीदारी 2 प्रतिशत भी नहीं हैl इस कारण से कुड़मी समुदाय आज भी सामाजिक और आर्थिक रूप से अत्यंत पिछड़ा हैl

उनका कहना है कि 1872 से 1931 तक कुड़मी जनजाति को जनगणना में animist, aboriginal, tribe, primitive tribe कहा गया। 1950 में जब अनुसूचित जनजाति की सूची 1931 के जनगणना के आधार पर बनी तो कुड़मी को बिना कोई कारण बताए अन्य जनजातियों के साथ शामिल नहीं किया गया। पटना हाईकोर्ट 1941 में ये स्पष्ट करती है की छोटानागपुर के कुड़मी अपने customary laws यानी की रूढ़ि प्रथाओं से ही संचालित होते हैं। Kudmi Aboriginal Tribe हैं, इसलिए उनपर हिन्दू लॉ लागू नहीं होता। ऐसे ही 1925 के दर्जनों स्टेटमेंट हैं जिसमें कहा गया है kudmi tribe हैं और इनसे जुड़े फैसले कोर्ट नहीं इनकी अपनी customary laws ही करेगी।

बताते चलें कि मोरहाबादी में आयोजित आदिवासी अधिकार रक्षा मंच के कार्यक्रम में कुड़मियों की ओर से आदिवासी का दर्जा की मांग का सख्त विरोध किया। अवसर पर भाजपा सरकार में झारखंड की पूर्व शिक्षा मंत्री गीताश्री उरांव ने कहा कि अगर हमारे क्षेत्र में कुड़मी अतिक्रमण करेंगे, तो इसे बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। कुड़मियों के साथ हम मूलवासी और भाईचारा का रिश्ता रखना चाहते हैं। कुड़मी समाज के लोग खुद को आदिवासियों की सूची में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। जबकि कुड़मियों का आदिवासियों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।

इतिहास का हवाला देते हुए गीताश्री उरांव ने कहा कि देश में द्रविड़ और आर्य दो समूह हैं। आर्य विदेशों से आयी नस्ल है। कुड़मी उन्हीं के वंशज हैं। इनका मुख्य काम खेती-बाड़ी रहा है। खेती-बाड़ी करके ये काफी मजबूत रहे। कई जगहों पर अपना साम्राज्य भी स्थापित किया। कई जगह ये लोग क्षत्रिय/राजपूत से भी अपना कनेक्शन स्थापित करते रहे हैं।

उन्होंने कहा कि रांची के तत्कालीन सांसद रामटहल चौधरी ने बूटी मोड़ में शिवाजी महाराज की मूर्ति बड़े धूमधाम से स्थापित की थी। हालांकि, शिवाजी महाराज का इस भू-भाग से कभी कोई नाता नहीं रहा। उन्होंने कहा कि कुड़मियों के संबंध राजपरिवारों से भी रहे हैं। आजादी के बाद 1950 में उन्हें पिछड़ा वर्ग में डाला गया। तब इन्होंने विरोध नहीं किया।

पूर्व मंत्री ने कहा कि अब इनके दिमाग में आ गया है कि ये लोग पिछड़ा वर्ग से अलग हैं और आदिवासी हैं। झारखंड में पेसा कानून लागू होने की बात हुई, तो इन्हीं लोगों ने इस बात का विरोध किया कि आदिवासी ही मुखिया बनेगा! 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय नीति और पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण की घोषणा हुई, तो इन लोगों ने मिठाई बांटी थी। ये लोग दो नाव पर सवार हैं। इसे हम कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे।

गीताश्री ने कहा कि जनजातीय शोध संस्थान (टीआरआई) ने वर्ष 2004 की अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया है कि इनके गोत्र भी बिल्कुल अलग हैं। हमारा (आदिवासियों का) गोत्र प्रकृति से जुड़ा है, जबकि उनके गोत्र ऋषि-मुनियों और चांद-सितारों से जुड़े हैं। हम आदिवासियों के जो रीति-रिवाज हैं, उनके रीति-रिवाजों से बहुत भिन्न हैं। उनका जुड़ाव सनातनी हिंदुओं से बहुत ज्यादा है।

श्रीमती उरांव ने कहा कि यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि कुड़मी कोई अलग जाति है, जो आदिवासियों से मिलती-जुलती है। वास्तविकता यह है कि कुड़मी ही कुरमी है। उन्होंने कहा कि झारखंड की कुरमी जाति झारखंड में खुद को डॉमिनेंट कास्ट के रूप में स्थापित करना चाहती है, जिसकी वजह से आदिवासी समुदाय एक बार फिर से शोषण और अत्याचार के भंवर जाल में फंसने वाला है। इस बार का अत्याचारी और शोषक बाहरी नहीं, बल्कि आपका पड़ोसी होगा और इसका दायरा शहर से निकलकर दूर-दराज के गांवों तक फैल जायेगा।

गीताश्री उरांव ने कहा कि यह जानना जरूरी है कि डॉमिनेंट कास्ट होता क्या है? कोई भी जाति जब अपने आर्थिक संसाधन और संख्या बल के दम पर पहले राजनीतिक दबदबा कायम करती है और उसके बाद सामाजिक व्यवस्था में अपना इको सिस्टम इस तरह तैयार करती है कि समाज के हर क्षेत्र में उसका प्रभुत्व कायम हो जाता है। बिहार-उत्तर प्रदेश में यादव और कुरमी, महाराष्ट्र में मराठा (पाटील), गुजरात के पटवारी (पटेल), राजस्थान में गुर्जर और पंजाब-हरियाणा में जाट ने अपना प्रभुत्व कायम कर रखा है। झारखंड की कुड़मी जाति की महत्वकांक्षा वैसी ही है।

अगर कुड़मी जाति कुड़मी के नाम से आदिवासी समुदाय में शामिल हो जाती है, तो झारखंड के तमाम आदिवासी वर्ग, चाहे वह उरांव, संथाल, हो, मुंडा खेरवार, चेरो या फिर सरना ईसाई हों, सभी की बर्बादी तय है। समस्त शौक्षणिक संस्थाओं, सरकारी नौकरियों और सरकार की सभी कल्याणकारी योजनाओं का बड़ा हिस्सा ये लोग हथिया लेंगे।

इतना ही नहीं, आदिवासियों के लिए आरक्षित मुखिया, विधायक और सांसद की सीटें भी धन, छल-प्रपंच, वोट कटवा डमी कैंडिडेट खड़ा करके और अपनी जातीय राजनीति के सहारे छीन लेंगे। इस तरह आदिवासी समुदाय पूरी तरह से हाशिये पर चला जायेगा। यही नहीं, गांवों में आदिवासियों को अपनी जमीन बचाना मुश्किल हो जायेगा। उन्होंने कहा कि दिलचस्प बात तो यह है कि इनका कुड़मी नाम से ओबीसी (OBC) का स्टेटस भी जारी रहेगा और आरक्षण समेत तमाम कल्याणकारी योजनाओं का लाभ वे लेते रहेंगे।

गीताश्री उरांव ने कहा कि इसका मतलब यह हुआ कि एक ही जाति कुड़मी (आदिवासी) और कुरमी (पिछड़ी जाति) के नाम से आरक्षण और सरकारी कल्याणकारी योजनाओं को हथिया लेंगे। यह आदिवासियों ही नहीं, अन्य पिछड़ी जातियों (अहिर, वैश्य, कोईरी, तेली) के लिए भी घातक है।

उन्होंने कहा कि झारखंड की 22 विधानसभा सीटों पर कुड़मी निर्णायक वोटर हैं। कल्पना करें, अगर कुड़मी के नाम से आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों से विधायक बनते हैं, तो झारखंड विधानसभा में एक ही जाति का बोलबाला हो जायेगा। झारखंड में कुड़मी ही एकमात्र जाति है, जो जातीय राजनीति करती है। जातीय हित के मुद्दे पर सभी दलों के कुड़मी नेता अपनी-अपनी पार्टी के एजेंडा को दरकिनार कर सब एक हो जाते हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री भी इन्हीं का बन जायेगा, जो स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए घातक है। उन्होंने कहा कि आदिवासियों के इस संघर्ष में सभी गैर-कुड़मी जातियों को उसका साथ देना चाहिए। नहीं, तो झारखंड राज्य की बर्बादी निश्चित है।

झारखंड आंदोलनकारी और आदिवासी नेता लक्ष्मी नारायण मुंडा ने कहा कि मुगलकाल से लेकर ब्रिटिशकाल के समय तक कई आदिवासी विद्रोह जैसे भूमिज विद्रोह, मुंडा विद्रोह, संथाल विद्रोह, हो विद्रोह हुए हैं। इन विद्रोह में कुड़मी समुदाय की कोई भूमिका नही रही है। इसलिए कोई भी जमीन कानूनों में आदिवासियों की जमीन के संरक्षण की बात लिखी हुई है। ऐतिहासिक तथ्यों और दस्तावेज भी इन्हें आदिवासी साबित नहीं करते हैं। उन्होंने कहा कि आज आदिवासियों का विरोध करने वाले लोग आदिवासी बनने की आतुर हैं।

इस अवसर पर आदिवासी सेंगेल अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद सालखन मुर्मू ने कहा कि झारखंड में आदिवासियों की स्थिति ठीक नहीं है। सरकार ने 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय नीति तय करने की घोषणा की है। अभी इसे लागू नहीं किया गया है और यह लागू नहीं हो सकता है। यह झारखंड मुक्ति मोर्चा का राजनीतिक स्टंट है। यह व्यावहारिक नहीं है। क्योंकि झारखंड हाई कोर्ट 27 नवंबर 2002 को इसे खारिज कर चुका है।

1932 खतियान आधारित स्थानीयता देने और लेने की बात करने वाले झारखंडी आदिवासी मूलवासी का इमोशनल ब्लैकमेल कर रहे हैं। एक दूसरे को ठगने का काम कर रहे हैं। इसे खुद लागू करने की बजाय केंद्र को भेजना, नौवीं अनुसूची में शामिल करने आदि की बात करना, केवल लटकाने भटकाने का कुत्सित प्रयास है।

कुड़मी समाज द्वारा खुद को आदिवासी बताने और उन्हें एसटी में शामिल करने की मांग पर सालखन मुर्मू ने कहा कि कुड़मी (कुर्मी) समाज का दावा कि वे 1950 के पूर्व तक एस टी थे, तो इसकी पुष्टि के लिए उन्हें मान्य हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए।

सालखन ने आरोप लगाया कि 20 सितंबर से 3 प्रदेशों में रेल रोड चक्का जाम के पीछे तीनों प्रदेशों के सत्ताधारी दलों का हाथ है। चूँकि जेएमएम, बीजेडी और टीएमसी ने वोट की लालच में, आदिवासी विरोधी स्टैंड लेकर, कुरमी समाज को एसटी बनाने का प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष फैसला पहले से घोषित किया हुआ है। कुरमी समाज या अन्य समाज के एसटी बनने से असली आदिवासी समाज (संताल मुंडा उरांव हो खड़िया भूमिज पहाड़िया गोंड आदि) के अस्तित्व पहचान हिस्सेदारी पर सेंधमारी निश्चित है। क्योंकि यहां वोट बैंक की राजनीति हावी है। इसलिए कुरमी समाज का विरोध करने के बदले आदिवासियों को जेएमएम, बीजेडी और टीएमसी का विरोध करना जरूरी है। ताकि इन पार्टियों को आदिवासी वोट बैंक के खिसक जाने का दबाव बने।

कुर्मी रेल-रोड चक्काजाम आंदोलन ने नई राजनीतिक ध्रुवीकरण को जन्म दिया है। इस मुद्दे पर जेएमएम, बीजेडी और टीएमसी आदिवासी विरोधी साबित हो चुके हैं। केंद्रीय सरना समिति के अजय तिर्की ने कहा कि कुर्मी/कुड़मी लोग अपने समुदाय की बेहतरी और अधिकारों के लिए लड़ें, हम आदिवासी लोग भी साथ देंगे। लेकिन ये लोग अगर हमारे हक अधिकारों को हकमारी के इरादों से एसटी बनने की कोशिश करेंगे तो इसका पुरजोर विरोध करेंगे।

निरंजना हेरेंज टोप्पो ने कहा कि कुर्मी/कुड़मी समुदाय के द्वारा आदिवासी समुदाय के ऊपर हमला बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। रानी कुंदरुसी मुंडा ने कहा कि आदिवासियों को हेय दृष्टि से देखने वाले लोग आज आदिवासी बनने का सपना देख रहे हैं। अभय भुटकुंवर ने कहा कि कुर्मी कुड़मी समुदाय का आंदोलन भाजपाई केंद्र सरकार के द्वारा प्रायोजित है।

इस सामूहिक उपवास कार्यक्रम में इस बात पर जोर दिया गया कि दुर्गा पूजा बीतने के बाद इसको लेकर एक बड़ी बैठक की जाएगी।

वहीं एसटी में शामिल करने को लेकर आन्दोलन कर रहे कुड़मी समुदाय के लोग कुड़मी और कुरमी में अंतर और कुड़मी को एसटी में क्यों शामिल किया जाए पर अपनी बात रखते हुए आदि कुड़मी युवा शक्ति मनीष कुमार महतो कहते हैं कि कुड़मी एक pre dravidian रेस की जनजाति है, जबकी कुरमी aryan रेस की जाति है। कुड़मी छोटानागपुर पठार के भौगोलिक छेत्र में वास करते है जबकी कुरमी उत्तरप्रदेश, बिहार महारष्ट्र गुजरात जैसे जगहों में पाए जाते है। कुड़मियों की अपनी निश्चित मातृभाषा कुड़माली है। जबकी कुर्मियों की अपनी कोई मातृभाषा नहीं है।

कुड़मी totemic गुस्टिधारी होते है जैसे बंसरीआर काडुआर, डुमरीआर और ये सब प्रकृति से जुड़े है जबकि कुरमी गोत्रधारी होते है जिनका संबंध ऋषि मुनियों से होता है।

कुड़मी किसी वेद शास्त्र से संचालित नहीं होते बल्कि कुड़मियों का अपना रूढ़ि परम्परा है, स्वशासन व्यवस्था है लेकिन वंही कुरमी वैदिक संस्कृति धर्म ग्रंथ को मानते है और उसी से संचालित होते है।

कुड़मियों के बिहा-मरखी (शादी-मरण) में ब्राह्मणों की जरूरत नहीं पड़ती लेकिन कुर्मियों के हर संस्कार में ब्राह्मण की आवश्यकता होती है। और आदिवासी समाज में भी ये तमाम व्यवस्थाएं मौजूद है इसलिए हम यानी कुड़मी आदिवासी यानी जनजातीय समुदाय है। इस आधार पर हमें एसटी में शामिल किया जाना चाहिए।

आन्दोलनकारी व सामाजिक कार्यकर्ता अनूप महतो बताते हैं कि झारखंड के कुड़मी और बिहार के कुर्मी में अंतर होने का यह कारण है कि इन दोनों के गोत्रों में मेल नहीं है, झारखंड के कुड़मी का गुस्टी/ गोत्र totemic होते हैं जो कि प्रकृति के किसी चीज से संबंध रखता है पेड़, पौधा, चिड़िया, जानवर इत्यादि किंतु कुर्मी का गोत्र ऋषि-मुनियों से होता है। कुड़मी pre Dravidian रेस के जनजाति हैं वही कुर्मी आर्यन रेस के जाती है।

कुड़मी पूर्वी भारत के छोटा नागपुर पठार के भौगोलिक क्षेत्र में वास करते हुए पाए जाते हैं, वही कुर्मी भारत के विभिन्न राज गुजरात, बिहार, यूपी पाए जाते हैं। कुड़मी को खेती या जीवन यापन करने के लिए भूमि प्रकृति से मिली है, खेती लायक खेत खुद तैयार किए हैं जंगल पहाड़ को काटकर।

कुड़मी 1913 व 1931 के सरकारी दस्तावेज में आदिवासी हैं, जिस गांव में कुड़मी वास करते हैं वहां कुड़मीयों का खुद का जाहेर स्थान ( पूजा स्थल) होता है जिसका लाया/पुजारी खुद कुर्मी समाज का होता है, कुड़मी समाज का सबसे बड़ा परब बंदना परब है, जिसमें साल में एक बार अपने देवी देवता को कुड़मी पूजा और खुद ही बलि देता है। कुड़मी की खुद की भाषा है कुड़माली, वही कुर्मी का खुद का भाषा नहीं है, कुड़मी का जन्म, मरण, विवाह में खुद का नेग नियम है। कुड़मी के शादी में दहेज लेने के वजह लड़की के घर वालों को पोन देने का रिवाज है, कुड़मी एक ही गुस्टी / गोत्र में शादी नहीं करते, कुड़मी का खुद का विवाह गीत मरण गीत सांस्कृतिक गीत है। कुड़मी देवी देवता को पूजा में हाड़ीया/रानू उपयोग करते हैं जो कई रकम के जड़ी बूटी से बना हुआ होता है। जो जनजातीय समुदाय से पूरी तरह मेल खाता है। इस आधार पर कुड़मी को एसटी में शामिल किया जाना चाहिए।

आदि कुड़मी युवा शक्ती के अध्यक्ष दयामय बानुआर बताते हैं कि 1872 से 1931 तक कुड़मी जनजाति को जनगणना में animist, aboriginal, tribe, primitive tribe कहा गया। 1950 में जब अनुसूचित जनजाति की सूची 1931 के जनगणना के आधार पर बनी तो कुड़मी को बिना कोई कारण बताए अन्य जनजातियों के साथ शामिल नहीं किया गया। पटना हाईकोर्ट 1941 में ये स्पष्ट करती है की छोटानागपुर के कुड़मी अपने customary laws यानी की रूढ़ि प्रथाओं से ही संचालित होते हैं। Kudmi Aboriginal Tribe हैं, इसलिए उनपर हिन्दू लॉ लागू नहीं होता। ऐसे ही 1925 के दर्जनों स्टेटमेंट हैं जिसमें कहा गया है kudmi tribe हैं और इनसे जुड़े फैसले कोर्ट नहीं इनकी अपनी customary laws ही करेगी।

वे आगे कहते हैं कि कुड़मी के सभी पर्व-त्यौहार धान खेती पर ही आधारित है। कुड़मी की अपनी मातृभाषा कुड़माली है। कुड़मियों का अपनी स्वशासन व्यवस्था है, जन्म से मरण तक के सभी संस्कार बिना पुरोहित का करते हैं। अतः कुड़मी पूरी तरह आदिवासी हैं। यही हमारी मांग है कि इस आधार पर हमें एसटी में शामिल किया जाए।

 कुड़माली भाषा के आन्दोलन से जुड़े अरूण बानुआर की माने तो कुड़मी का ST इन्क्लुजन का मुद्दा सिर्फ आरक्षण से नहीं बल्कि उनके सामाजिक, सांस्कृतिक और संवैधानिक पहचान से जुड़ा हैl कुड़मी आदिकाल से छोटानागपुर क्षेत्र के मूल वशिंदा हैं l कुड़मियों की मातृभाषा कुड़माली है l कुड़मियों में अपनी रूढ़िवादी सामाजिक एवं धार्मिक व्यवस्था होती है l कुड़मियों के समस्त पारिवारिक संस्कार घर के बड़े-बुजुर्ग, भइगना और दामाद द्वारा जबकि धार्मिक क्रियाकलाप नाया पाहन संपन्न कराये कराये जाते हैंl

कुड़मियों का अन्य समुदायों के साथ पारिवारिक एवं वैवाहिक सम्बन्ध पूर्णत वर्जित हैl वर्त्तमान समय में कुड़मियों की आबादी झारखण्ड की कुल आबादी का लगभग 24% है, परन्तु सरकारी नौकरियों और सरकारी योजनाओं में भागीदारी 2% भी नहीं है l इस कारण से कुड़मी समुदाय आज भी सामाजिक और आर्थिक रूप से अत्यंत पिछड़ा है l

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि कुड़मी ST इन्क्लुजन सम्बन्धी लोकुर कमिटी की सभी अर्हताओं यथा, आदिम लक्षण, भौगोलिक अलगाव, विशिष्ट संस्कृति, बाहरी समुदाय के साथ संपर्क करने में संकोच और आर्थिक रूप से पिछड़ापन को पूरा करते हैं l इसके बावजूद आजादी से पूर्व तक जनजाति के रूप में चिन्हित कुड़मियों को 1950 में अनुसूचित जनजाति में शामिल नहीं किया गयाl जिसके कारण आज कुड़मियों की विशिष्ट कुड़माली भाषा एवं संस्कृति विलुप्ति के कगार पर हैl अपनी विशिष्ट भाषा संस्कृति को बचाने और उसे संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए कुड़मी पिछले 72 सालों से संघर्ष कर रहे हैं l साथ ही, सरकारी नौकरियों और सरकारी योजनाओं में कुड़मियों को उचित भागीदारी मिले और उन्हें अपने गाँव-समाज, भाषा-संस्कृति को छोड़कर रोजी-रोजगार की तलाश में पलायन न करना पड़े, इसलिए कुड़मी ST इन्क्लुजन के लिए सरकार से मांग कर रहे हैंl

अब देखना है कि कई राजनीतिक संकटों के गुजर रही हेमंत सोरेन सरकार इस संकट कैसे उबरती है?

(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार है और झारखंड के बोकारो में रहते हैं।)

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

You May Also Like

More From Author