आरजी कर अस्पताल बलात्कार और हत्या मामला: प्रतिरोध, विवाद और पुनर्विचार

9 अगस्त 2024, कोलकाता के आर जी कर अस्पताल में एक महिला डॉक्टर का बलात्कार कर उसे मार दिया गया। साक्ष्य अभी तक जिस दिशा में इशारा कर रहे हैं, उससे यह एक गैंग रेप के रूप में सामने आ रहा है। यह मामला न केवल एक महिला के साथ बलात्कार का है, बल्कि महिला के शरीर को बेहद ही बुरी तरीके से क्षतिग्रस्त भी किया गया है। मीडियाकर्मियों से बात करते हुए पीड़िता के पिता ने बताया, “उसके दोनों पैर राइट एंगल में तोड़ दिए गए थे। यह ऐसी स्थिति में ही संभव है जहां पीड़ित के पेल्विक गार्डल को तोड़ दिया जाए।”

मामले की जांच कर रही सीबीआई का मानना है कि जिस रात महिला की हत्या और बलात्कार हुआ, उस दिन उसके साथ ड्यूटी पर दो पोस्ट ग्रेजुएट ट्रेनी (PGT) डॉक्टर थे, जिन्हें एजेंसी ने प्राइम सस्पेक्ट के रूप में रखते हुए तीस अन्य लोगों से पूछताछ के लिए बुलाया है। जांच एजेंसी, जो लगातार परिवार से संपर्क बनाए हुए है, उनके बयान के आधार पर भी सस्पेक्ट्स की सूची बना कर पूछताछ कर रही है।

इस घटना के बाद देश के विभिन्न स्थानों से दोषियों को सजा दिलाने के लिए विरोध प्रदर्शन किए जा रहे हैं। देश के अलग-अलग बड़े शहरों में डॉक्टरों द्वारा कैंडल मार्च निकाले जा रहे हैं, जहां आंध्र प्रदेश और दिल्ली के अलावा, कोलकाता में डॉक्टर और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने “रिक्लेम दी नाइट” के आह्वान के साथ एक बड़ा प्रदर्शन किया। देश के अलग-अलग लोकतांत्रिक संगठनों और महिला संगठनों ने इस घटना के विरोध में प्रदर्शन करते हुए न्याय की मांग की है। इंडियन मेडिकल काउंसिल ने पूरे देश में 24 घंटे के लिए हड़ताल की घोषणा करते हुए, मेडिकल कर्मियों की सुरक्षा के मुद्दे पर जोर दिया है, जिसके अभाव की वजह से अपराधी ऐसी घटनाओं को अंजाम दे पाने में सक्षम होते हैं।

इस मामले पर राजनीतिक दांव-पेच शुरू हो चुके हैं। ममता बनर्जी ने अपने प्रेस वक्तव्य में मुख्य आरोपी के लिए फांसी की मांग की है। वहीं बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता गौरव भाटिया ने इंडिया एलायंस को “पॉलिटिकल वल्चर” बताते हुए कहा कि “कोलकाता रेप केस पर पूरी इंडिया एलायंस खामोश है।” वहीं दूसरी तरफ ममता बनर्जी ने आर जी कर अस्पताल में हुई तोड़फोड़ के लिए वाम (लेफ्ट संगठन) और राम (बीजेपी) को दोषी ठहराया।

इन तमाम घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में यह लेख मुख्यतः दो बिंदुओं पर विचार करेगा। पहला मुद्दा जो हर बड़े रेप केस के बाद उठता है, “क्या फांसी की सजा रेप जैसे अपराध या किसी अपराध का समाधान है?” और दूसरा और अहम सवाल, “क्या रेप के केस में एक चयनात्मक संवेदनशीलता को जातीय और वर्गीय आधार पर प्रत्यक्ष रूप से देखा जाता है?”

क्या फांसी है समाधान?

बलात्कार का अपराध सामने आते ही पूरे देश में यह आवाज एक साथ उठने लगती है, “हैंग द रेपिस्ट”। आर जी कर अस्पताल की घटना के बाद भी यही देखने को मिला जब दोषियों को फांसी की सजा देने की बात को दोहराते हुए नारे लगाए गए और बैनर-पोस्टर छापे गए। एक सामंती समाज के अंदर महिलाओं की हत्या, भ्रूण हत्या इतना बड़ा सवाल नहीं है जितना बड़ा सवाल “इज्जत के लुट” जाने का बनता है। यह इज्जत और अधिकार किसी सामंती समाज के अंदर उसके परिवार और जाति के साथ उसके पति या पिता का होता था, न कि उसका।

समाज में परिवर्तन के साथ हम एक ऐसे समाज में प्रस्थान कर चुके हैं जो न तो मूल रूप से सामंती मूल्यों को छोड़ पाया है और न ही व्यक्ति-केंद्रित पूंजीवादी नैतिकताओं को अपना पाया है। इसका परिणाम यह है कि अब महिलाओं के लिए यह लड़ाई उसके सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक अधिकारों के साथ इज्जत और अधिकार की लड़ाई है। पर यहां एक मूल अंतर है जिसे समझने की बेहद जरूरत है कि पिछले समाज की इज्जत की समझदारी से इस समाज की आगे की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। अर्थात नए लोकतांत्रिक समाज के लिए यह इज्जत की लड़ाई महिला की एक स्वतंत्र पहचान के साथ एक सामाजिक इकाई के रूप में खड़े होने की लड़ाई है, जिसमें इज्जत की रक्षा का सवाल पूरे परिवार की इज्जत के सवाल से आगे बढ़ता दिखाई देता है।

वहीं वर्तमान समाज में न्याय की व्यवस्था को कायम रखने के लिए जो संहिता हमें आज का शासक वर्ग देता है, उसके अनुसार भी जब अपराध की बात की जाती है, तब उसे समस्त समाज के विरोध में समझा जाता है, और यही अपराध कानून के दर्शन का मूल है। ऐसी स्थिति में किसी महिला का बलात्कार होना ही अपने आप में एक व्यक्तिगत के साथ-साथ सामाजिक विषय है। 2017 में जस्टिस बानुमति ने अपने एक केस में अलग बयान में कहा कि “केवल सजा को बढ़ा देना या उसे मृत्युदंड तक पहुंचा देना काफी नहीं है। इसके अलावा हमें जेंडर सेंसिटिविटी और महिलाओं के प्रति इज्जत की भावना को समाज में भरना होगा।”

जस्टिस बानुमति के सुझाव की सीमा वर्तमान समाज की अपनी सीमाएं हैं, जो “टॉप-डाउन एप्रोच ऑफ डेमोक्रेटिजेशन” का है। जिसमें लोगों की चेतना का विकास उनके व्यवहार को उसकी वस्तुनिष्ठ स्थिति के आधार को समझते हुए करने के बजाय कुछ ऊपर की सूचना से उनकी चेतना का विकास करना चाहते हैं। जब तक व्यक्ति पितृसत्ता के पॉलिटिकल-इकॉनमी को समझते हुए उसके आधार को बदलने की क्रिया में शामिल नहीं होगा, तब तक ये नैतिक शास्त्र की बातें केवल विचार से विचार को विकसित करने का बेकार प्रयास करती रहेंगी। अर्थात व्यवहार से विचारधारा और चेतना के विकास की यात्रा शुरू ही नहीं हो पाएगी।

2024 के एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) की माने तो महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न और हिंसा की शिकायतों में इजाफा देखा गया है, जो साल दर साल लगातार बढ़ रहा है। 2023 की तुलना में यह 2024 में 1.25 फीसदी की दर से बढ़ा है। निर्भया केस के बाद बलात्कार कानूनों में एक व्यापक फेरबदल किया गया था, जिसमें फांसी तक के प्रावधान की बात की गई है। परंतु इससे हालात सुधारने के बजाय बिगड़े हैं। देश में प्रत्येक घंटे 51 बलात्कार होते हैं। वहीं ये आंकड़े कितने कम हो सकते हैं, इसका अंदाजा हम इस बात से लगा सकते हैं कि देश में होने वाले यौन उत्पीड़न के 99% मामले रजिस्टर ही नहीं होते हैं (2018, Mint)।

सेलेक्टिव सेंसिटिविटी अर्थात चयनात्मक संवेदनशीलता

आर जी कर अस्पताल की घटना के साथ ही उत्तराखंड में एक महिला नर्स का बुरी तरीके से बलात्कार किया गया। वहीं दूसरी तरफ बिहार के मुजफ्फरपुर में 14 साल की एक दलित महिला को उसके परिवार वालों के सामने से यह कहकर उठा लिया जाता है कि हम तुम्हारी लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार करेंगे। इसके अलावा कई मामले जैसे उन्नाव, हाथरस गैंगरेप केस, आदि की एक लंबी सूची है। इसके बीच में एक बड़ा सवाल उभरकर आया है कि देश में बलात्कार एक बड़ा मुद्दा तभी क्यों बनता है जब किसी उच्च जाति और उच्चवर्ग की महिला का बलात्कार होता है? किसी आदिवासी, दलित, या मुस्लिम महिला पर यह देश क्यों खड़ा नहीं होता?

यह एक ऐतिहासिक विवाद का मुद्दा है जिसकी जड़ें भारत के मूल में निहित हैं, अर्थात यहां के उत्पादन संबंध में। यह भारत के स्वतंत्रता के बाद के इतिहास को समझने का मसला है, जहां कोई भी ऐसा मुद्दा राष्ट्रीय स्तर का मामला या आंदोलन नहीं बन पाया जिसमें भारत के शासक वर्ग का हित शामिल न हो। 2013 में जेनी रोवन ने एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था “द प्रोटेस्ट इन दिल्ली एंड द नेशनलिस्ट पैराडिज्म।” लेख में जेनी इस बात को रेखांकित करती हैं कि किस प्रकार से उच्च जाति के ऐसे मामले कैसे राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे बन जाते हैं और कैसे वो एक बॉडी नेशनल बॉडी की तरह लोगों के सामने पेश किया जाता है। फ्लाविया एग्नेस ने इस बात को आगे बढ़ाते हुए अपने लेख “क्रिटिक ऑफ द फेमिनिस्ट मूवमेंट” में बताया कि किस प्रकार स्वतंत्र आंदोलनों में नेतृत्व हमेशा शहरी उच्च जाति की महिलाओं के हाथों में रहा है। आंदोलन के अपने मजबूत और निश्चयात्मक रूप दिखाने के लिए कैसे देवियों को रूपक के रूप में प्रयोग किया गया है (दुर्गा, काली)।

यौन शोषण या हिंसा के विरोध में यह पूरा विवाद हमेशा एक “unnamed unlocated patriarchy” के इर्द-गिर्द घूमता रहता है, जिस पर एक आलोचनात्मक विश्लेषण की आवश्यकता है। पितृसत्ता बोल देना अपने आप में पूरा सच नहीं है। जब तक हम वास्तविक रूप से वर्तमान समाज की पितृसत्ता की जड़ को नहीं समझ लेते, उसके पीछे के कारक को नहीं जान लेते, उससे लड़ाई के तरीके भी उसी प्रकार से कमजोर रहेंगे और हमारी योजनाएं भी वही “culprit-centric” होंगी। और उसके आगे न्याय का भी एक बेहद ही गैर-प्रभावकारी रूप ही बार-बार सामने आता रहेगा।

भारत के अंदर का गुस्सा अभी भी केवल शासक वर्ग का गुस्सा है, जब उसके ऊपर कुछ चोट लगती है। इसलिए इस प्रश्न पर पूरे देश में चर्चा होने की जरूरत है कि सोनी सोरी के बलात्कार पर देश खड़ा होने से पहले उसे नक्सली मान लेता है और कुनान पोषपोरा की महिलाएं अपने दर्द को समझा पाने से पहले ही आतंकवादी की सहयोगी बता दी जाती हैं। इसलिए जब तक यह लड़ाई “पीड़िता को न्याय दो” की मांग से आगे बढ़ते हुए “पीड़ित होने की दशा का नाश हो” तक नहीं पहुंचती, यह विवाद एक प्रासंगिक विवाद के रूप में मौजूद रहेगा।

(निशांत आनंद दिल्ली विश्वविद्यालय में विधि तृतीय वर्ष के छात्र हैं।)

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