झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के गुदड़ी प्रखंड के बुरुगुलीकेरा गांव में पिछले दिनों पत्थलगड़ी के बहाने हुए सामूहिक नरसंहार के बाद क्षेत्र में जहां सन्नाटा पसरा है, वहीं घटना के सप्ताह भर बाद भी अभी तक हत्या के असली कारण और हत्या में शामिल लोगों का कोई खुलासा नहीं हो पाया है। जबकि राज्य की सत्ता पर गैरभाजपा निजाम के कब्जे के बाद मीडिया की सक्रियता के साथ इस घटना पर शिनाख्त बढ़ी है।
दूसरी तरफ राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन 23 जनवरी को बुरुगुलीकेरा गांव पहुंचे। गांव पहुंचकर वे सीधे मृतकों के आश्रितों से मिले। परिजनों से घटना के बारे में जानकारी ली। मुख्यमंत्री ने बताया कि इस घटना की जांच के लिए एसआईटी का गठन कर दिया गया है। घटना के सभी पहलुओं की जांच की जा रही है।
मृतकों के परिवारों से मिलने के उपरांत मीडियाकर्मियों से बातचीत में मुख्यमंत्री ने कहा कि सरकार जनता के जान-माल की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करेगी। यह पूरा झारखंड राज्य मेरा घर है और यहां के वासी मेरे परिवार के सदस्य हैं। मुख्यमंत्री ने कहा कि राज्य में कानून व्यवस्था सबसे ऊपर है और किसी भी व्यक्ति को कानून तोड़ने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा कि दोषियों के विरुद्ध कठोर से कठोर कार्रवाई की जाएगी।
खबरों के मुताबिक 16 जनवरी की रात पत्थलगड़ी के विरोध में जेम्स बुढ़, जावरा बुढ़, लोंबा बुढ़, कोजे टोपनो, एतवा बुढ़, निर्मल बुढ़, बोबास लोमगा, गुसरु बुढ़ और सुकुआ बुढ़ ने पत्थलगड़ी के समर्थकों के घर में घुस कर उत्पात मचाया और घरों में रखे सामान को क्षतिग्रस्त कर दिया। इस घटना से नाराज ग्रामीणों ने 19 जनवरी को गांव में ग्रामसभा बुलाई। ग्रामसभा में ही सभी नौ युवकों को मौत की सजा सुनाई गई।
सजा सुन कर दो युवक गुसरु बुढ़ और सुकुआ बुढ़ भाग खड़े हुए। इससे ग्रामसभा के लोगों में गुस्सा फूट पड़ा। ग्रामीणों ने शेष सातों युवकों को पकड़ लिया और उनकी पिटाई शुरू कर दी। इसके बाद ग्रामीण सातों युवकों को जंगल की ओर ले गए और वहां उनकी हत्या कर दी गई। मारे गए लोगों में जेम्स बुढ़ (30 वर्ष) जावरा बुढ़ (22 वर्ष) लोंबा बुढ़ (25 वर्ष) कोजे टोपनो (23 वर्ष) एतवा बुढ़ (27 वर्ष) निर्मल बुढ़ (25 वर्ष) बोबास लोमगा (25 वर्ष) शामिल हैं।
बता दें कि बुरुगुलीकेरा गांव की आबादी लगभग 500 है। इस गांव के ज्यादातर लोग पत्थलगड़ी के समर्थक हैं। पिछले साल जब राज्य में पत्थलगड़ी का मामला उछला था, तब गांव के अधिकांश लोगों ने अपना राशन और आधार कार्ड प्रशासन को वापस कर दिया था और इसके बाद से ग्रामीण सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं ले रहे हैं। इसकी जानकारी के बावजूद प्रशासन की ओर से इस पर कोई कदम नहीं उठाया गया।
दूसरी तरफ पत्थलगड़ी के मामले को लेकर पिछली रघुवर सरकार में राज्य भर में कई लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था। हेमंत के मुख्यमंत्री बनते ही पिछली रघुवर सरकार में किए गए सीएनटी, एसपीटी एक्ट में संशोधन का विरोध करने वालों और पत्थगड़ी का समर्थन करने वालों के खिलाफ जो मुकदमे दर्ज हुए थे, उसे वापस लेने की घोषणा की गई।
सत्ता परिवर्तन के बाद हुई इस घटना को दो नजरिए से देखा जा सकता है। यह घटना या तो सत्ता परिवर्तन से पत्थलगड़ी के समर्थकों के बुलंद होते हौसले का परिणाम है, या वर्तमान सत्ता को बदनाम करने की किसी साजिश का हिस्सा है। यह घटना की पूरी जांच के बाद ही सामने आ सकता है। इस मामले का सबसे अहम पहलू यह है कि आदिवासी समाज में दंड का प्रावधान तो है, मगर मारपीट करके, आर्थिक दंड के बाद चेतावनी देकर छोड़ देने का है। हत्या जैसे जघन्य अपराध करने की इजाजत इस समाज में नहीं है।
क्या है पत्थलगड़ी
पत्थलगड़ी आदिवासी समाज की एक पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था है। गांव में किसी बाहरी व्यक्तियों का प्रवेश प्रतिबंधित है, कारोबार तो दूर की बात है। जब तक ग्रामसभा प्रवेश की इजाजत नहीं देता तब तक यहां कोई व्यक्ति नहीं जा सकता। पत्थलगड़ी एक तरह से आदिवासी समाज की स्वायत शासन व्यवस्था है। इस व्यवस्था को अंग्रेजी हुकूमत ने संवैधानिक मान्यता दी थी।
इस बारे में झारखंड के सेवानिवृत प्रशासनिक अधिकारी संग्राम बेसरा कहते हैं, ‘जब अंग्रेजी हुकूमत आदिवासी क्षेत्रों में अपना वर्चस्व कायम करने में असफल रही तो उसने 1872 में संताल परगना टेन्डेंसी एक्ट (एसपीटी) कानून बनाकर मांझी परगना प्रथा को मान्यता दे दी। इसी समुदाय के कुछ लोगों को जमींदारी देकर लगान की वसूली की। वहीं छोटानागपुर क्षेत्र में 1908 में छोटानागपुर टेन्डेंसी एक्ट बनाकर मांझी परगना प्रथा एवं मानकी मुंडा प्रथा की मान्यता दी। आजादी के बाद भारत सरकार द्वारा एसपीटी में सन् 1949 में संशोधन तो किया गया लेकिन ग्रामसभा के तहत स्वशासन की परंपरा के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं हुई।
पत्थलगड़ी आदिम जातियों की हजारों वर्षों की परंपरा है और यह केवल झारखंड में नहीं है, बल्कि दुनिया के कई आदिवासी समुदायों में है। सरकार इनकी इस परंपरा को प्रतिबंधित करना चाह रही है। झारखंड की पत्थलगड़ी पर सबसे पहले टीएफ पेपे (1871 में) का ध्यान गया था, जिसकी सूचना पर कर्नल डॉल्टन ने 1873 में लेख लिखा। पत्थलगड़ी की परंपरा पर दूसरा महत्वपूर्ण लेख रांची के प्रख्यात मानवशास्त्री सरत चंद्र राय का है जो 1915 में प्रकाशित हुआ। दुनिया भर के पुरातात्विक और इतिहासकार मानते हैं कि पत्थलगड़ी के निर्माता आदिवासी लोग हैं। एशिया क्षेत्र में पाए जाने वाले पत्थलगड़ी के निर्माता मुंडा समूह के आदिवासी हैं।
पत्थलगड़ी नदी घाटी सभ्यताओं के उदय से हजारों साल पहले की सभ्यताओं की सूचना देते हैं। इसे महापाषाण सभ्यता या पाषाण काल के नाम से जाना जाता है। उत्तर-पूर्व के खासी, दक्षिण के नीलगिरी के आदिवासी और झारखंड के मुंडा लोग आज भी पत्थलगड़ी करते हैं। झारखंड का विस्तृत संदर्भ देते हुए पत्थलगड़ी पर भाई सुभाशीष दास ने तीन महत्वपूर्ण किताबें लिखी हैं। इनमें एक ‘मेगालिथिक साइट्स ऑफ झारखंड’ है। परंतु बुलु इमाम पहले लेखक हैं जिन्होंने बड़कागांव के इस्को रॉक पेंटिंग की खोज के बाद इस ओर दुनिया का ध्यान खींचा।
झारखंड के गांवों में पत्थलगड़ी 1997 से ही शुरू हो गई थी। भारत जन आंदोलन के तत्वावधान में डॉ. बीडी शर्मा, बंदी उरांव सहित अन्य लोगों के नेतृत्व में खूंटी, कर्रा सहित कई जिलों के दर्जनों गांवों में पत्थलगड़ी की गई थी। इसके बाद झारखंड (एकीकृत बिहार) के गांवों में एक अभियान की तरह शिलालेख (पत्थलगड़ी) की स्थापना की जाने लगी। डॉ. बीडी शर्मा, बंदी उरांव, पीएनएस सुरीन सहित अन्य लोग इस काम में जुटे।
गांवों में जागरूकता अभियान चलाया गया। पत्थलगड़ी पूरे विधि विधान के साथ की जाने लगी। पत्थलगड़ी समारोह चोरी छिपे नहीं, बल्कि समारोह आयोजित करके किया जाता था। इसकी सूचना प्रशासन को दी जाती थी। खूंटी सहित अन्य जिलों में आज भी उस समय की पत्थलगड़ी को देखा जा सकता है।
डॉ. बीडी शर्मा ने अपनी पुस्तिका ‘गांव गणराज्य का स्थापना महापर्व’ में लिखा है कि ”26 जनवरी से दो अक्तूबर 1997 तक गांव गणराज्य स्थापना महापर्व के दौर में हर गांव में शिलालेख की स्थापना और गांव गणराज्य का संकल्प लिया जाएगा। उन्होंने लिखा है कि हमारे गांव को 50 साल के बाद असली आजादी मिली है। यह साफ है कि आजादी का अर्थ मनमाना व्यवहार नहीं हो सकता है। जब हमारा समाज हमारे गांव में व्यवस्था की बागडोर अपने हाथ में ले लेता है, तो उसके बाद हर भली-बुरी बात के लिए वह स्वयं जिम्मेदार होगा और उसी की जवाबदेही होगी।”
उल्लेखनीय है कि 21 फरवरी 2018 को ग्रामीणों ने कुरूंगा गांव से कुछ दूर आगे 25 पुलिसकर्मियों की टीम को घेर लिया और चार घंटे तक बंधक बनाए रखा। पत्थलगड़ी को लेकर कुरूंगा गांव के ग्राम प्रधान सागर मुंडा को पुलिस गिरफ्तार कर अड़की थाना ले जा रही थी कि अपने प्रधान को हिरासत में लिए जाने की खबर के बाद ग्रामीणों ने पुलिसकर्मियों को बंधक बना लिया और तब तक नहीं छोड़ा जब तक खूंटी जिले के जिला मुख्यालय से एसपी और डीसी ने घटनास्थल पर पहुंचकर सागर मुंडा को छोड़ने का आदेश नहीं दिया।
इससे पूर्व 25 अगस्त 2017 को खूंटी थाना क्षेत्र के कांकी सिलादोन गांव के लोगों ने खूंटी के डीएसपी रणवीर कुमार सहित पुलिस टीम को बंधक बना लिया था। ग्रामीणों और पुलिस के बीच हल्की झड़प भी हुई थी। इस क्रम में पुलिस को फायरिंग भी करनी पड़ी थी। करीब 24 घंटे के बाद बंधक बने पुलिसकर्मियों को मुक्त कराया गया था।
बताते चलें कि झारखंड के 16022 गांव, 2074 पंचायत, 131 प्रखंड, 13 जिले पूरी तरह एवं तीन जिले आंशिक रूप से पेसा के तहत आते हैं। राज्य में पेसा (प्रॉविजन आफ पंचायत एक्शटेशन टू शिड्यूल एरिया 1996 एक्ट) कानून पूरी तरह से लागू नहीं है। राज्य सरकार ने इसे लागू करने की नियमावली ही नहीं बनाई है। इस कारण ग्रामसभाओं के पास अधिकार ही नहीं हैं। सरकार केवल पंचायती राज कानून में पेसा के प्रावधानों को रखने का दावा करती रही है। ऐसे में ग्राम पंचायतों और पारंपरिक ग्राम सभाओं के अधिकारों को लेकर विरोधाभास उत्पन्न होते रहे हैं।
भारत सरकार ने पांचवीं अनुसूची के तहत आने वाले आदिवासी बहुल इलाकों में स्वशासन का विशेष प्रावधान करते हुए 1996 में पेसा यानी (पंचायत उपबंध विस्तार अनूसूची क्षेत्र) में अधिनियम को लागू किया गया था, तथा इसे राज्य को एक साल के भीतर ऐसा ही कानून विधानसभा से पारित करना था।
मगर राज्य सरकार ने पेसा जैसे कानून बनाने की जगह 2001 में पंचायती राज अधिनियम बनाकर अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत की सीटों को आदिवासियों के लिए आरक्षित कर दी। जबकि पेसा में ग्राम पंचायत को हटाकर पारंपरिक ग्राम सभाओं को स्थानीय स्वशासन की संवैधानिक सत्ता के रूप में स्थापित करने की व्यवस्था है। नियमावली नहीं होने से पारंपरिक प्रधानों को अधिकार सम्पन्न नहीं किया जा सका है।
गौरतलब है कि पत्थलगड़ी की पारंपरिक रिवाज के अनुसार ग्रामसभा की प्रधानी वंशजों को हस्तांतरित होती है। पिता के बाद पुत्र को ही ग्राम प्रधान के अधिकार मिलते हैं। यह सिलसिला चलता रहता है। मगर पेसा के तहत बनने वाली ग्रामसभा की अध्यक्षता उस गांव के प्रभावशाली आदिवासी समुदाय का प्रधान करता है।
(रांची से जनचौक संवाददाता विशद कुमार की रिपोर्ट।)