कर्नाटक में सिद्धारमैया सरकार को इस उम्मीद से समर्थन करने वाले प्रगतिशील तत्वों को अब गहरी निराशा होने लगी है, जो कल तक यह उम्मीद लगाये बैठे थे कि यह सरकार निरंकुश मोदी-आरएसएस शासन के खिलाफ एक सुरक्षा कवच के तौर पर काम करेगी। उनके भीतर आज घबराहट है क्योंकि सिद्धारमैया सरकार अब अनेकों घपलों में घिरी हुई है, जो कर्नाटक में भाजपा को आम लोगों के मोहभंग को अपने पक्ष में करने और एक बार फिर से पुनर्जीवित करने में मददगार साबित हो रही है। सिद्धारमैया के कई तटस्थ समर्थक भी अब महसूस करने लगे हैं कि यदि कांग्रेस इसी प्रकार के विकल्प के साथ आने वाली है तो इससे सिर्फ भाजपा को ही मजबूती मिलने वाली है।
वास्तव में देखें तो सिद्धारमैया सरकार अपने पहले कार्यकाल के साथ-साथ मौजूदा दूसरे कार्यकाल में भी घोटालों और सरकारी धन के दुरुपयोग के आरोपों से घिरी रही है। हाल ही में हुए घोटालों के कौन-कौन से मुख्य उदाहरण हैं? आइए इस पर एक नज़र डालते हैं।
सिद्धारमैया को बुरी तरह से परेशान करने वाला सबसे ताजातरीन घोटाला है, तबादले में घोटाला। बाकी के अन्य राज्यों की तरह ही कर्नाटक में भी सरकारी कर्मचारियों के तबादलों के मामले में एक बड़ा रैकेट काम कर रहा है, और इन तबादलों को रोकने के लिए रिश्वत के तौर पर मोटी रकम दी जाती है। और अक्सर कर्नाटक में घोटाले का आरोप लगाने के बाद उससे जुड़े लोगों के द्वारा आत्महत्या करने की घटनाओं ने लोगों की निगाह में इन घोटालों की गंभीरता को कम कर दिया है।
हमें याद होगा कि यह एक ठेकेदार की आत्महत्या का मामला काफी सुर्ख़ियों में था, जिसने अपने सुसाइड नोट में आरोप लगाया था कि तत्कालीन भाजपा मंत्री ने कॉन्ट्रैक्ट के पैसे का 30% रिश्वत के तौर पर मांगा था, जिसके चलते पूर्ववर्ती येदियुरप्पा सरकार के ऊपर “40% सरकार” का ठप्पा लग गया था, जो सरकार के पतन का कारण बना था।
उस घोटाले की एक झलक हाल ही में तब देखने को मिली जब यादगीर में एक पुलिस कांस्टेबल परशुराम ने आत्महत्या कर ली। उसने अपने सुसाइड नोट में आरोप लगाया कि कांग्रेस विधायक चेन्ना रेड्डी पाटिल ने उसका तबादला रद्द करने के लिए 30 लाख रुपए की रिश्वत मांगी थी। विधायक पर मामला दर्ज कर लिया गया है, लेकिन इससे स्थिति शांत नहीं हो पाई है।
MUDA घोटाला
यह वह घोटाला है, जिसमें सिद्धारमैया का स्वंय का परिवार व्यक्तिगत तौर पर उलझा हुआ है, जिसका नाम है MUDA घोटाला। असल में ये 2015 का एक पुराना घोटाला था। मैसूर अर्बन डेवलपमेंट अथॉरिटी (MUDA) ने सिद्धारमैया की पत्नी पार्वती को भूखंड आवंटित किए थे, जिसे अब विपक्षी दल भाजपा एक बड़े मुद्दे के तौर पर उठा रही है।
अपने बचाव में सिद्धारमैया का यह कहना है कि MUDA ने उनकी पत्नी की ज़मीन का अधिग्रहण किया था और उस अधिग्रहण के बदले में उन्हें भूखंड आवंटित किए गए थे। इस तर्क ने भाजपा के भाई-भतीजावाद और पक्षपात के आरोपों को कुछ हद तक भोथरा कर दिया है। और इससे भी बड़ी विडंबना की बात यह है कि ये भूखंड जिस दौरान आवंटित किये जा रहे थे, उस समय राज्य में भाजपा सरकार शासन में थी।
दरअसल, 2016 में ही कर्नाटक लोकायुक्त ने पार्वती सिद्धारमैया के खिलाफ़ एक प्राथमिकी दर्ज की थी, लेकिन 2018 में लोकायुक्त ने उनकी ओर से अनुचित दबाव और पक्षपात करने के बारे में सबूतों की कमी का हवाला देते हुए मामले को खारिज कर दिया था।
हालांकि इससे भाजपा के पास सिद्धारमैया के परिवार के खिलाफ़ कानूनी लड़ाई लड़ने का कोई विकल्प नहीं बचा, लेकिन राजनीतिक रूप से यह मददगार साबित हुआ और पिछले सप्ताह भाजपा के द्वारा आयोजित मैसूर चलो मार्च का भारी असर देखने को मिला, जिसमें बड़ी संख्या में लोगों की भागीदारी देखने को मिली।
भाजपा के लिए किसी गैर-मुद्दे को भी मौजूदा राजनीतिक मुद्दे में तब्दील कर देना संभव हो रहा है, जो इस बात को रेखांकित करता है कि सिद्धारमैया के शासन से अब आम लोगों में मोहभंग बढ़ रहा है।
दूसरा घोटाला जिसका सीधे तौर पर समाज में असर पड़ सकता है, वह है वाल्मीकि घोटाला।
वाल्मीकि घोटाला
कर्नाटक महर्षि वाल्मीकि अनुसूचित जनजाति विकास निगम एक सरकारी निगम है और आदिवासियों के लिए कल्याणकारी योजनाओं हेतु निर्धारित धन को इसी के माध्यम से प्रेषित किया जाता है। सबसे पहले एसटी और दलितों के लिए निर्धारित धन को बड़े पैमाने पर अन्य सरकारी योजनाओं में डायवर्ट करने के आरोप लगे।
फिर कांग्रेस नेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों द्वारा इन निधियों के दुरुपयोग के भी आरोप एक-एक कर आने लगे। लाभार्थियों के चयन में पक्षपात करने, फर्जी दस्तावेजों का इस्तेमाल, और फर्जी पहचान पत्र के माध्यम से बैंक खाते खोलने और धन के दुरुपयोग, तय मानदंडों एवं निर्धारित नियमों का मनमाना उल्लंघन करने के आरोप लगने लगे।
इस घोटाले के मुख्य आरोपी निकले अनुसूचित जनजाति कल्याण मंत्री बी। नागेंद्र, और घोटाला सामने आने के एक महीने बाद सिद्धारमैया ने मंत्री को इस्तीफा देने के लिए कहा, लेकिन गिरफ्तार नहीं किया गया। हालांकि, यह केंद्र के अधीन आने वाली प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) थी, जिसने बी. नागेंद्र और कांग्रेस विधायक बसनगौड़ा दाद्दल को गिरफ्तार किया था, जो वाल्मीकि निगम के अध्यक्ष थे।
इस घोटाले की वजह से सरकारी खजाने को कथित तौर पर 300 करोड़ रुपये का नुकसान होने का आरोप है। कर्नाटक लोकायुक्त ने इस घोटाले की जांच की और अंजैया सहित कुछ वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए। लेकिन केंद्र के अधीन आने वाली ईडी ने पूर्व कांग्रेस मंत्री बी. नागेंद्र को गिरफ्तार कर लिया। ईडी ने यह भी दावा किया है कि इस ठगी के पैसे का इस्तेमाल लोकसभा चुनाव के दौरान मतदाताओं को शराब की आपूर्ति के लिए किया गया था।
सिद्धारमैया ने इस घोटाले को एक तरह से तब स्वीकार कर लिया जब उनकी सरकार ने इस सिलसिले में चार लोगों को हिरासत में ले लिया। लेकिन वे घोटाले के बारे में पारदर्शी नहीं बने रहे। उन्होंने दावा किया कि केवल 89 करोड़ रुपये की हेराफेरी की गई है, और उसमें से 82।5 करोड़ रुपये बरामद कर लिए गये हैं।
इसके बाद उनकी ओर से केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पर दोषारोपण करने की कोशिश की गई और सवाल किया गया कि उनके मंत्रालय ने ऐसे अवैध हस्तांतरण में मिलीभगत करने के लिए उनके मंत्रालय के तहत आने वाले बैंक अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई। दरअसल, इस मामले में नियमों का उल्लंघन किया गया है।
क्योंकि सरकारी विभागों को सिर्फ राष्ट्रीयकृत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में ही खाते खोलने चाहिए थे और उनके माध्यम से ही राजकोष का पैसा केवल उन्हीं ठेकेदारों के वैध खातों में ही प्रेषित किया जाना चाहिए था, जिन्हें उनके द्वारा किए गए काम के भुगतान के लिए जिला मजिस्ट्रेट द्वारा प्रमाणित किया गया हो।
इस मामले में गैर-राष्ट्रीयकृत बैंकों में खाते खोले गए और अप्रमाणित फर्जी खातों में धन हस्तांतरित करके ठगी की गई, जिसके लिए वे बैंक अधिकारी भी जिम्मेदार हैं। लेकिन निर्मला ने यह कहकर पलटवार किया कि उनके मंत्रालय ने पहले से ही दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की है, लेकिन राज्य सरकार ने कुछ नहीं किया।
उन्होंने कहा कि राज्य सरकार के पास दोषी बैंक अधिकारियों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने और उन्हें गिरफ्तार करने का पूरा अधिकार था। उन्होंने सवाल खड़े किये कि सिद्धारमैया सरकार ऐसा कर पाने में विफल क्यों रही। केंद्रीय वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के आधार पर उन्होंने यह भी दावा किया है कि कुल 187 करोड़ रुपये की हेराफेरी की गई है, न कि 89 करोड़ रुपये की, जैसा कि सिद्धारमैया ने दावा किया है। राज्य में मौजूद तटस्थ लोगों का निष्कर्ष है कि दाल में कुछ काला है, और सिद्धारमैया दोषियों को बचाने की कोशिश में जुटे हैं।
सिद्धारमैया का पहला कार्यकाल मई 2013 से मई 2018 तक चला। वे 2018 का विधानसभा चुनाव हार गए और भाजपा के समर्थन से एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने और उनका कार्यकाल जुलाई 2019 तक चला और जुलाई 2019 में भाजपा के येदियुरप्पा सीएम बने।
मई 2023 में एक बार फिर से कांग्रेस ने बाजी मार ली और सिद्धारमैया फिर से सीएम बने। लेकिन अपने पहले कार्यकाल के दौरान और मई 2023 के बाद से सिद्धारमैया सरकार पर कई घोटालों के आरोप लगे हैं।
सिद्धारमैया के घोटालों का रिकॉर्ड
ट्रांसफर घोटाले और वाल्मीकि घोटाले के अलावा सिद्धारमैया सरकार के हिस्से में निम्नलिखित घोटाले आये हैं:
I-M मॉनेटरी एडवाइजरी पोंजी स्कीम स्कैम: I-M मॉनेटरी एडवाइजरी खाड़ी देशों से लौटे मोहम्मद मंसूर खान और इलियास के द्वारा शुरू की गई एक निवेश कंपनी थी, जिसने वित्तीय रूप से अस्थिर उच्च ब्याज दर देने का वादा कर तकरीबन 30,000 जमाकर्ताओं के साथ धोखाधड़ी की। इन पीड़ितों में से 80% से अधिक मुस्लिम थे। हालांकि आरबीआई ने 2016 में ही सिद्धारमैया सरकार को इस योजना की पोंजी प्रकृति के बारे में सचेत कर दिया था, लेकिन कर्नाटक सरकार अगले तीन वर्षों तक इसके खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने में विफल रही।
कर्नाटक वक्फ बोर्ड घोटाला: 2012 में जब भाजपा के सदानंद गौड़ा राज्य के मुख्य मंत्री थे, तब कर्नाटक अल्पसंख्यक आयोग ने कर्नाटक यूपीए लोकायुक्त की रिपोर्ट के आधार पर कर्नाटक में वक्फ बोर्डों के तहत 27,000 एकड़ जमीन के फर्जी हस्तांतरण और कर्नाटक वक्फ बोर्ड के फंड के दुरुपयोग का पर्दाफाश किया था। 2013 में सत्ता में आए सिद्धारमैया ने विधानसभा में इस रिपोर्ट को पेश ही नहीं किया और कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्देश पर ही उन्हें यह रिपोर्ट पेश करनी पड़ी।
अपने पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने निहित स्वार्थों के खिलाफ किसी भी प्रकार की कोई कार्रवाई करने से परहेज किया। दस वर्ष बाद, अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान, 21 सितंबर 2022 को बेशर्म सिद्धारमैया ने विधानसभा को बताया कि उनकी सरकार “रिपोर्ट का अध्ययन करेगी”! इस निष्क्रियता की एक बड़ी वजह यह थी कि रिपोर्ट में कांग्रेस के करीब छह नेताओं को भी आरोपी बनाया गया था।
बैंगलोर स्टील फ्लाईओवर घोटाला: सिद्धारमैया सरकार को इस परियोजना में भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद अपने ही 1800 करोड़ रुपये की स्टील फ्लाईओवर परियोजना को रद्द करना पड़ा था। आलोचकों ने इंगित किया है कि सिद्धारमैया ने इस परियोजना को इसलिए भी रद्द कर दिया, क्योंकि उनके प्रतिद्वंद्वी डीके शिवकुमार का इस परियोजना के लिए ठेका प्रदान करने में खुद का काफी बड़ा निहित स्वार्थ था। संयोग से, डीके शिवकुमार को चुनाव आयोग के अधिकारियों को रिश्वत देने के कथित प्रयास के लिए सीबीआई के द्वारा गिरफ़्तारी का भी सामना करना पड़ा था।
कर्नाटक अधिसूचना रद्दीकरण एवं भूमि अधिग्रहण घोटाले: बेंगलुरु और उसके आसपास के इलाके में रियल एस्टेट की कीमतों में भारी उछाल के बीच सरकार के द्वारा अधिग्रहित किंतु अप्रयुक्त भूमि को अधिसूचित करने के तंत्र के माध्यम से निहित स्वार्थों के द्वारा भूमि अधिग्रहण की घटनाएं हुई। सरकार के कब्जे वाली जमीन को कांग्रेसियों, भ्रष्ट नौकरशाहों और रियल एस्टेट माफिया को 50X80 वर्ग फीट के प्लॉट के लिए 10 लाख रुपये की मामूली कीमत पर आवंटित कर दिया गया।
जबकि इसका बाजार मूल्य 1 करोड़ रुपये था। यह पिछली भाजपा सरकार थी, जिसने इस कुप्रथा की शुरुआत की और येदियुरप्पा ने स्वंय अपने बेटे को भूमि आवंटन कर इसके माध्यम से व्यक्तिगत तौर पर इसका लाभ उठाया। सत्ता में आने के बाद, सिद्धारमैया ने घोटालेबाजों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की और प्राइम लैंड की धोखाधड़ी वाले आवंटनों को रद्द नहीं किया है।
KSIIDC घोटाला: सिद्धारमैया सरकार के तहत, कर्नाटक राज्य औद्योगिक निवेश एवं विकास निगम (KSIIDC) पर ऋण वितरण में अनियमितताओं और सत्तारूढ़ कांग्रेस नेताओं के करीबी कुछ कंपनियों के प्रति पक्षपात के आरोप लगे हैं।
बेंगलुरु-मैसूर एक्सप्रेसवे घोटाला: हालांकि विवादास्पद बेंगलुरु-मैसूर एक्सप्रेसवे देवगौड़ा के लिए मुसीबत बना हुआ था, लेकिन 8000 करोड़ रुपये की इस परियोजना को मोदी ने मार्च 2023 में अपने हाथ में लेकर इसका उद्घाटन कर दिया, जिससे सिद्धारमैया भी ठेके देने में हुई अनियमितताओं के खिलाफ़ कार्रवाई करने में विफल रहे।
जबकि भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के तहत राज्य सरकार के पास पर्याप्त शक्तियां मौजूद थीं। हालांकि घोटालों की संख्या और पैमाने के मामले में भाजपा के येदियुरप्पा ने सिद्धारमैया को पीछे छोड़ दिया था, लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि सिद्धारमैया अपने दागी पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के घोटालों के रिकॉर्ड का पीछा करने की दौड़ में लगे हुए हैं!
स्थानीय कुलक पूंजीवाद और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पूंजी का इंटरफेस
कर्नाटक, खास तौर पर बैंगलोर, बहुराष्ट्रीय और राष्ट्रीय बड़ी पूंजी और स्थानीय कृषि कुलक पूंजी के बीच इंटरफेस को सबसे अच्छी तरह से दर्शाता है। मार्क्सवादी भाषा में, उभरते कृषि पूंजीपति वर्ग को कुलक के रूप में जाना जाता है। कर्नाटक में पूंजीवाद मुख्य रूप से बाहरी तौर पर आरोपित पूंजीवाद है।
जब 1980 के दशक में बैंगलोर हरा-भरा और आदर्श जलवायु के तौर पर देश में सबसे तेजी से विस्तार करने वाला महानगर बन रहा था, और रामकृष्ण हेगड़े के द्वारा “एक दिन में एक उद्योग” की अनुकूल औद्योगिक प्रोत्साहन नीति अमल में लाइ गई, और पहले देवराज उर्स और बाद में कृष्णा ने भी आवश्यक बुनियादी ढांचे के विकास को बढ़ावा दिया, तो राज्य के बाहर से बड़े पैमाने पर पूंजी प्रवाह कर्नाटक में होने लगा था। 1990 के दशक में यह एशिया का शीर्ष आईटी केंद्र बन चुका था।
1960 के दशक तक, कन्नड़ समाज मुख्य रूप से अर्ध-सामंती कृषि समाज बना हुआ था। उर्स द्वारा अपनाए गए दूरगामी भूमि सुधारों के परिणामस्वरूप केवल कृषि पूंजीवाद को बढ़ावा मिला और बेहद ताकतवर पूंजीवादी किसान, जिन्हें कुलक के तौर पर जाना जाता है।
न केवल प्रमुख वोक्कालिगा और लिंगायत जातियों के बीच बल्कि संख्यात्मक रूप से मजबूत कुरुबा ओबीसी जाति के बीच से भी उभरे। ऊपर से आरोपित बाहरी पूंजी ने कन्नड़ लोगों के बीच की पहली पीढ़ी के नए पूंजीपतियों की एक परत को जन्म दिया, जो बाहरी पूंजीपतियों के साथ-साथ प्रवासी श्रमिकों द्वारा बैंगलोर पर कब्ज़ा करने से नाराज़ थे।
लेकिन, उनकी राजनीतिक ताकत के कारण, उसी “बाहरी रूप से थोपे गए” पूंजीवाद ने उनमें से कई लोगों को ठेकेदार, रियल एस्टेट ब्रोकर, निर्माण परियोजनाओं में प्रमोटर और व्यापारियों के तौर पर छोटे पूंजीपतियों के रूप में उभरने में मदद पहुंचाई। सांस्कृतिक रूप से लुम्पेन कांग्रेस ओबीसी नेता बंगरप्पा सबसे पहले उनके मुख्य राजनीतिक प्रतिनिधि बनकर उभरे।
लेकिन कर्नाटक में सबसे मजबूत कुलक वर्ग वोक्कालिगा (जिन्हें गौड़ा के रूप में भी जाना जाता है) समुदाय से आता था, जो बैंगलोर के निकट मांड्या, हासन, तुमकुर और कोलार में केंद्रित थे। इससे प्रमुख वोक्कालिगा नेता देवेगौड़ा का उदय हुआ। ओबीसी पर वोक्कालिगा आधिपत्य को स्थापित करने के लिए, विशेषकर पूंजीवादी तौर पर उभरती हुई किसान जाति कुरुबा जो पहले चरवाहे हुआ करते थे, देवेगौड़ा ने सिद्धारमैया को अपने लेफ्टिनेंट के तौर पर चुना और बढ़ावा दिया।
धीरे-धीरे सिद्धारमैया देवेगौड़ा की छाया से बाहर निकल आए और देवेगौड़ा की जनता दल (सेक्युलर) को छोड़कर 2006 में कांग्रेस में शामिल हो गए। लिंगायत की उच्च जाति के वर्चस्व वाली भाजपा और वोक्कालिगा की उच्च जाति के वर्चस्व वाली जेडी(एस) का मुकाबला करने के लिए, कांग्रेस ने ओबीसी-मुस्लिम-दलितों के एकीकरण की रणनीति तैयार की और मजबूत ओबीसी कुलक नेता सिद्धारमैया ने कांग्रेस हाईकमान के लिए इसकी राह तैयार की। घरेलू कन्नड़ अपस्टार्ट बुर्जुआ वर्ग के इस अग्रणी नेता ने भ्रष्ट आरोपित पूंजीवाद के स्थानीय राजनीतिक नतीजों का सबसे अच्छा प्रतीक पेश किया।
सिद्धारमैया का अंधराष्ट्रवादी रुख
स्वाभाविक तौर पर, जब सिद्धारमैया को भ्रष्टाचार से संबंधित कई घोटालों का सामना करना पड़ रहा है, तो ध्यान भटकाने के लिए उन्होंने हाल ही में विधानसभा में एक अंधराष्ट्रवादी विधेयक पारित कर दिया, जिसमें निजी उद्योग में भी स्थानीय लोगों (कन्नड़ लोगों) के लिए नौकरियां आरक्षित करने की बात कही गई है।
मसौदा विधेयक में प्रबंधकीय पदों पर स्थानीय लोगों के लिए 50% आरक्षण और गैर-प्रबंधकीय मध्यम श्रेणियों में 70% पदों और “सी” और “डी” श्रेणी के पदों पर स्थानीय लोगों के लिए 100% आरक्षण अनिवार्य कर दिया गया था। इसमें ‘स्थानीय’ की परिभाषा उन लोगों के रूप में दी गई है, जो 15 वर्षों से कर्नाटक में रह रहे हैं और जो कन्नड़ बोल, पढ़ और लिख सकते हैं।
स्वाभाविक रूप से, यह कानून सिर्फ स्थानीय कन्नड़ लोगों के पक्ष में होता। कन्नड़ लोगों के बीच शिक्षा और तकनीकी कौशल को बढ़ावा देने के बजाय, सिद्धारमैया ने वंचित कन्नड़ लोगों की संकीर्ण भावनाओं को भड़काने के लिए इस क्षेत्रीयता वादी शॉर्टकट का सहारा लिया-बेरोजगार श्रमिकों और महत्वाकांक्षी नव पूंजीपति वर्ग दोनों के लिए।
लेकिन कन्नड़ लोगों के बीच श्रम बाजार अभी भी पर्याप्त रूप से विकसित नहीं हो सका है, इसलिए लगातार बढ़ते बैंगलोर के उद्योग के लिए आवश्यक कुशल श्रम शक्ति की आपूर्ति अकेले कन्नड़ लोगों से संभव नहीं है। वस्तुगत वास्तविकताओं ने बैंगलोर के श्रम बल को महानगरीय बना दिया है।
इसलिए, स्वाभाविक रूप से, उद्योग की ओर से बेहद तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। मोहनदास पई और बायोकॉन प्रमुख किरण मजूमदार-शॉ ने विधेयक की तीखी निंदा की और जल्द ही कई प्रमुख उद्योगपतियों ने इसका अनुसरण किया और यहां तक कि बैंगलोर छोड़ने तक की धमकी दे डाली।
पहले से ही बैंगलोर आईटी हब हैदराबाद, पुणे और चेन्नई के साथ प्रतिस्पर्धा में निवेश खो रहा है। मैसूर, मैंगलोर और धारवाड़ और कोलार और तुमकुर जैसे छोटे शहरों में आईटी इंफ्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा दिए बिना, सिद्धारमैया के इस अंधराष्ट्रवादी कदम को उद्योग जगत से व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा, जिसमें कुछ कन्नड़ उद्योगपति भी शामिल थे। जिन्हें कोविड के दिनों में श्रमिकों की किल्लत के बुरे सपने याद आने लगे। उद्योग जगत के विरोध के चलते, सिद्धारमैया ने विधेयक को अधिसूचित करने से स्थगित कर दिया है।
क्या सिद्धारमैया कर्नाटक में कांग्रेस के लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र के वादों को लागू करने के प्रति गंभीर हैं?
लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस के घोषणापत्र में वादा किया गया था: “कांग्रेस के द्वारा सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में नियमित नौकरियों में ठेका प्रथा को खत्म किया जायेगा और ऐसी नियुक्तियों को नियमित किया जायेगा।” कांग्रेस के मुख्यमंत्री के तौर पर, सिद्धारमैया के ऊपर कर्नाटक में कांग्रेस के वादे को लागू करने और एक आदर्श स्थापित करने का दायित्व है। लेकिन कांग्रेस शासित कर्नाटक में वास्तविकता क्या है?
वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण (एएसआई) 2020-21 के आंकड़ों के अनुसार, कर्नाटक में 2.45 लाख और बैंगलोर में 2 लाख ठेका मजदूर थे, जिसमें से अकेले बैंगलोर के मुख्य सार्वजनिक उपक्रमों में 30,000 ठेका मजदूर कार्यरत हैं।
ठेका मज़दूरी के उन्मूलन की अवधारणा को कमज़ोर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अक्टूबर 2016 में अपने फैसले में कहा था कि ठेका मज़दूरों को समान काम करने वाले नियमित मज़दूरों के बराबर वेतन मिलना चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 2016 के फ़ैसले के अनुसार भी कांग्रेस शासित सिद्धारमैया सरकार का रिकॉर्ड क्या है?
एचएमटी, एचएएल, बीईएल और बीईएमएल जैसी प्रमुख सार्वजनिक उपक्रमों में ठेका श्रमिकों को 10,000 से 14,000 रुपये प्रति माह के बीच में भुगतान किया जा रहा है। नियमित श्रमिकों को लगभग 45,000 से 50,000 रुपये का भुगतान किया जाता है। सरकार ने अकुशल श्रमिकों के लिए कर्नाटक न्यूनतम वेतन 15,106 रुपये निर्धारित किया है।
लेकिन असल में बैंगलोर के सार्वजनिक उपक्रमों में ठेका श्रमिकों को इतना वेतन भी नहीं दिया जा रहा है। न तो कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार और न ही मोदी सरकार के तहत सार्वजनिक उपक्रम विभाग जिसके अंतर्गत सार्वजनिक उपक्रम आते हैं, के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले और न ही न्यूनतम वेतन अधिनियम को लागू किया जा रहा है।
कांग्रेस के घोषणापत्र में यह भी वादा किया गया था: “हम गिग वर्कर्स और असंगठित श्रमिकों के अधिकारों को निर्दिष्ट और संरक्षित करने तथा उनकी सामाजिक सुरक्षा को बढ़ाने के लिए एक कानून बनाएंगे।” बेहतर होता यदि कांग्रेस उन्हें पूर्ण-विकसित श्रमिकों का दर्जा देने का स्पष्ट वादा करती।
दिल्ली के बाद बैंगलोर में गिग वर्कर्स की दूसरी सबसे बड़ी संख्या है। IPSOS के अध्ययन के मुताबिक, 2019 में बैंगलोर में 2.5 लाख गिग वर्कर्स थे। सिद्धारमैया ने आज तक उनके लिए कौन सा श्रम अधिकार सुनिश्चित किया है? कुछ भी नहीं!
आइए, आईटी कर्मचारियों के मामले पर नजर डालें। नैसकॉम के आंकड़ों के अनुसार, कर्नाटक में 13 लाख आईटी कर्मचारी हैं और उनमें से 10 लाख बैंगलोर में हैं। पिछले कुछ वर्षों में इनमें से करीब 1 लाख लोगों की छंटनी कर दी गई है। बैंगलोर में 3 दशकों में पहली बार रियल एस्टेट की कीमतों में गिरावट आई है।
मुख्य रूप से आईटी कर्मचारियों को सेवा प्रदान करने वाले 600 बार में से 150 बंद हो चुके हैं। क्या सिद्धारमैया ने उन्हें कोई राहत दी? बल्कि, यह सिद्धारमैया ही थे जिन्होंने कर्नाटक में आईटी उद्योग को “आवश्यक सेवा” के रूप में अधिसूचित किया, जिसने आईटी इकाइयों में यूनियनों के गठन और हड़ताल पर प्रतिबंध लगा दिया। बाद में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने उन्हें उद्योग के रूप में चिह्नित किया और उनमें यूनियनों के गठन की इजाजत दी।
जब आईटी दिग्गज नारायण मूर्ति ने आईटी कर्मचारियों को प्रतिदिन 10 घंटे काम करने का आह्वान किया, तो सिद्धारमैया एक कदम आगे बढ़ गए और उनकी मंशा कर्नाटक शॉप्स एंड एस्टेब्लिशमेंट्स एक्ट में संशोधन कर प्रतिदिन 14 घंटे काम करने की अनुमति प्रदान करने की हो गई!
आईटी कर्मचारियों और यहां तक कि आईटी उद्योग तक को कर्मचारियों के पलायन की आशंका के कारण इसका बड़े पैमाने पर विरोध करने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसके चलते सिद्धारमैया को इस विधेयक को भी स्थगित करना पड़ा है। सिद्धारमैया का श्रमिक विरोधी रिकॉर्ड कुछ इस प्रकार से है। इस प्रकार का रिकॉर्ड अंततः निरंकुश मोदी शासन का विकल्प बनाने के कांग्रेस के प्रयासों को ही कमजोर करने के काम आएगा।
अनुवाद: रविंद्र पटवाल